अभिषेक श्रीवास्तव / डूंगरपुर से लौटकर
आज से कोई दस साल पहले दिल्ली से पत्रकारों का एक दल वागड़ क्षेत्र की यात्रा पर एक संस्था के बुलावे पर गया था। वह संस्था डूंगरपुर, बांसवाड़ा और प्रतापगढ़ के भील आदिवासियों के बीच शिक्षा पर काम कर रही थी। यह वह दौर था जब छत्तीसगढ़ में सलवा जुड़ुम नाम का आदिवासी विरोधी अभियान शुरू ही हुआ था और ऑपरेशन ग्रीनहंट की तैयारी हो चुकी थी। सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के बीच इसकी खूब चर्चा थी। उस यात्रा में एक रात संस्था के एक बड़े अधिकारी ने ऑफ दि रिकॉर्ड बातचीत में उद्घाटन किया था कि आखिर उदयपुर और उसके आसपास के इलाकों में स्वयंसेवी संस्थाओं की इतनी भरमार क्यों है। उनका नाम और पूरी बातचीत वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश द्वारा उदारीकरण के विषय पर संपादित और प्रकाशित लेखों के एक संग्रह में है, लेकिन मोटामोटी जितना याद पड़ता है, उस व्यक्ति ने इस लेखक से कहा था कि वागड़ में माओवाद के पनपने की पर्याप्त गुंजाइश है और सरकार इस बात को लेकर सचेत है। उनका मानना था कि जिंक सिटी या वेदांता सिटी के नाम से मशहूर उदयपुर से शुरू होकर समूचे वागड में खनिजों के खनन की जो स्थिति है और आबादी में आदिवासियों का जो अनुपात है, साथ ही यहां की भूस्थलीय स्थिति सब मिलकर माओवाद के लिए खाद-पानी का काम कर सकते हैं।
आज दस साल बाद खनन भी जस का तस है, आदिवासी भी हैं और जंगल-पहाड़ भी लेकिन उस अधिकारी की समझ गलत निकली है। तलैया से लौटकर हम यहां वागड़ किसान मजदूर संगठन के कुछ शहरी और गैर-आदिवासी कार्यकर्ताओं से बात कर रहे थे। उनकी समझदारी दूसरे ही छोर पर थी। वे मानते हैं कि यहां का आदिवासी मुख्यधारा का इस कदर हिस्सा बन चुका है कि उसके राजनीतिक रेडिकलाइजेशन की संभावना खत्म हो गई है। अगर ये बात सही है तो डूंगरपुर शहर के भीतर काम-धंधों से लेकर दूसरे क्षेत्रों में आदिवासी गायब क्यों हैं? क्या दिहाड़ी मजदूरी के लिए शहर आने को ही मुख्यधारा का हिस्सा बनना मान लिया जाए? रांची, रायपुर, बस्तर जिला मुख्यालय से लेकर भोपाल और हैदराबाद तक हमें शहरों में बसे आदिवासियों की संख्या पर्याप्त दिखती है। इनके ठीक उलट डूंगरपुर और उदयपुर शहर में आदिवासी तकरीबन नदारद हैं। जैनी, राजपूत, मारवाड़ी और बनियों से मिलकर ये शहर बने हैं जहां आदिवासियों के लिए कोई जगह ही नहीं है।
डूंगरपुर की स्थिति इस मामले में विशिष्ट है। इस शहर का नाम यहां के आदिवासी राजा डूंगर बरंडा के नाम पर पड़ा है। सरकारी वेबसाइट भी कहती है कि डूंगर भील के नाम पर शहर का नामकरण हुआ है। क्या यह महज संयोग है कि आदिवासी राजा और उसके राज के बारे में यहां प्रामाणिक जानकारी देने वाला कोई शख्स नहीं मिलता, दस्तावेज़ों की तो छोड़ दें। हमने इन विषयों पर वागड़ संगठन के पदाधिकारियों से लंबी बात की। आदिवासियों के राज के पतन की कहानी पर आने से पहले बताते चलें कि वागड़ किसान मजदूर संगठन अनिवार्यत: आदिवासियों का संगठन है लेकिन इसके संरक्षक एक राजपूत हैं मानसिंह सिसोदिया। इस तथ्य का कहानी से कितना लेना-देना है, यह पाठक तय करेंगे।
वागड़ संगठन से अध्यक्ष और संरक्षक मानसिंह सिसोदिया
यहा के आदिवासी अपने राजा डूंगर बरंडा का ”बलिदान दिवस” हर 15 नवंबर को मनाते हैं। इस साल राजा को मरे 726 वर्ष पूरे हो जाएंगे। डूंगरपुर राज ”भील प्रदेश” को डूंगर नू घेर या डूंगर नू पाल के नाम से जाना जाता था। यहां आदिवासियों की तमाम पालों (गांवों के समूह) के गमेती (प्रधान) ने राजा डूंगर को अपना राजा नियुक्त किया था। कहते हैं कि उस समय एक बनिया व्यापार करने के लिए शालासाह-थाना गांव आया। उसकी एक खूबसूरत कन्या थी। राजा ने उससे विवाह का प्रस्ताव भेजा। बनिया मान गया लेकिन उसने पीठ पीछे राजा को मारने का षडयंत्र रचा। यह साजिश डूंगर राज की राजधानी आसपुर बड़ोदा के एक राजपूत सामंत के साथ मिलकर रची गई। शादी 1336 संवत् की शुक्लदशमी को तय थी। राजा बारात लेकर पहुंचा। घरातियों ने मनुहार कर के बारातियों को ज़हरीली शराब पिला दी और राजपूतों ने अचानक राजा पर हमला कर दिया। राजा ने शराब नहीं पी थी इसलिए वह बच गया, बाकी बाराती मारे गए। राजा उनसे लड़ते हुए डूंगरपुर पहुंचे। राजा की दो रानियां थीं- कालिका और धनु। वे भी राजपूतों से लड़ते हुए मारी गईं। पहाड़ की चोटी से कुछ दूर पहले राजा के ऊपर पीछे से राजपूतों ने वार किया। राजा भी वीरगति को प्राप्त हुए। राजा डूंगर जहां मारे गए, वहां आज भी उनकी याद में एक छतरी बनी हुई है और डूंगरपुर में ही दोनों रानियों धनु माता और कालकी माता के मंदिर हैं।
इसके बाद राजपूतों ने अगले दिन भील प्रदेश का नामकरण मारे गए राजा के नाम पर किया और खुद उस पर राज किया। आदिवासियों के राज का कोई दस्तावेज़ीकरण नहीं किया गया। उनका इतिहास ही मिटा दिया गया। राजा के मारे जाने के अगले दिन से डूंगरपुर की स्थापना का दिवस मनाया जाने लगा जो आज तक जारी है। अजीब बात है कि डूंगरपुर के स्थापना दिवस से एक दिन पहले यहां के आदिवासी राजा का शहादत दिवस यहां के मूलनिवासी मनाते हैं। यह भीलों के साथ हुआ पहला विश्वासघात था जिसका विस्तार आज के डूंगरपुर में हम देख सकते हैं।
दो साल पहले इस विषय पर जीओआइ मॉनीटर में रवलीन कौर ने एक स्टोरी की थी जिसमें आधुनिक भारत में भील आदिवासियों के संग हुए दूसरे विश्वासघात की कहानी विस्तार से बताई गई थी। साठ के दशक में डूंगरपुर के शाही परिवार महारावल लक्ष्मण सिंह डूंगरपुर ने घोषणा की कि वे अपने राज्य की ज़मीनें बेचने जा रहे हैं। भीलों ने अपने नाते-रिश्तेदारों से उधार पैसे लेकर उन लोगों से संपर्क किया जो राजा को जानते थे। उन्हें राजा ने दयालुता में कुछ ज़मीनें 50 रुपया बीघा की दर पर दे दी। कुछ लोगों को ज़मीनों का पट्टा भी मिला। यह पट्टा काग़ज़ पर नहीं था बल्कि कपड़े के एक टुकड़े पर स्याही से बिक्री का सबूत बनाया गया था। कई को यह भी नहीं मिला इसी शाही ज़मीन को चक राजधानी के नाम से जना गया। इन ज़मीनों पर जो 21 गांव बसे, उनके नाम के आगे चक लगा हुआ है।
अगले कुछ साल तक यहां यथास्थिति बनी रही। जिन्हें ज़मीन मिली, वे आदिवासी उसे साफ़ कर के खेती के लायक बना लिए और उपज लेने लगे। अचानक 1977 में राजस्थान सरकार ने ज़मीन का सर्वे शुरू किया और भीलों से कहा गया कि यह ज़मीन उनकी नहीं है। राजस्थान भूमि सुधार एवं भूस्वामी एस्टेट अध्धिग्रहण कानून, 1963 के मुताबिक पुराने राजाओं की सारी ज़मीन अब सरकार की थी। राजा ने यह बात भीलों से ज़मीन देते वक्त छुपा ली थी। अधिकतर जमीन 1963 के बाद ही भीलों को बेची गई थी। सर्वे के बाद भी पांचेक साल तक आदिवासी खेती करते रहे लेकिन 1982 से उनके पास सरकारी भूमि पर अतिक्रमण संबंधी नोटिस आना शुरू हो गए। इन भीलों से अतिक्रमण के दंडस्वरूप 500 से 5000 रुपए के बीच राशि सरकार ने मांग ली।
एक बार फिर से भीलों को कर्ज लेना पड़ा, अपने गहने बेचने पड़े ताकि दंड चुकाया जा सके। किसी ने इसके खिलाफ आवाज नहीं उठाई। सबको यह लग रहा था कि दंड देने के बाद ज़मीन फिर से उनकी हो जाएगी। बाद के वर्षों में दंड की राशि तो कम होती गई लेकिन 30 से ज्यादा वर्षों से से लगातार वसूली जा रही है। भीलों ने अपनी ज़मीन के एवज के तीन दशक के दौरान जितना दंड चुकाया है, वह उनकी ज़मीन की मूल कीमत से भी कहीं ज्यादा है।
अप्रैल 2012 में डूंगरपुर नगरपालिका को नगर निगम में तब्दील कर दिया गया। शहर के अधिकार क्षेत्र में उसकी चौहद्दी के विस्तार का काम भी आ गया। भीलों को इस बात का डर था कि कहीं बिना कायदे का मुआवजा दिए सरकार शहर के विस्तार के नाम पर उनकी ज़मीनें न हथिया ले। आदिवासियों द्वारा अपने अधिकारों के लिए एकजुट होने का यह निर्णायक बिंदु रहा। वागड़ किसान मजदूर संगठन ने 2055 के बाद से ज़मीन के संबंध में कई आवेदन और आरटीआइ किए। मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के पूर्व कार्यकाल में उन्हें भी संगठन की ओर से एक याचिका भेजी गई। प्रशासन की ओर से जवाब मिला कि तत्कालीन राजा की ओर से मुआवजे का एक दावा अब भी लंबित और न्यायाधीन है इसलिए उसके समाधान से पहले आदिवासियों के मामले में कुछ नहीं किया जा सकता। राजा के परिवार से जो ज़मीन 1963 में ली गई थी, उसके मुआवजे से राजा संतुष्ट नहीं थे। राजपरिवार ने अजमेर की उच्च अदालत में इसके खिलाफ अपील कर दी। उसने 2006 में मामला उदयपुर की रेवेन्यू कोर्ट में भेज दिया। अब तक उसका नतीजा नहीं निकला है। इसके चक्कर में आदिवासियों की ज़मीन का मसला भी अटका पड़ा है।
इस बीच एक और दिलचस्प काम सरकार ने किया। डूंगरपुर के एसडीएम ने 1987-89 में 15 गांवों के 450 आदिवासी किसानों को गैर-खातेदारी के तहत ज़मीन आवंटित कर दी। इसमें ज़मीन पर किसान का मालिकाना नहीं होता है लेकिन वह उसे अपनी आजीविका के लिए जोत सकता है। इसमें एक शर्त रखी गई: राजा के लिए जो भी मुआवजा तय होगा उसका भुगतान किसानों से लिया जाएगा जिन्हें गैर-खातेदारी अधिकार मिले हैं। राज्य के राजस्व कानून के तहत तीन साल के बाद गैर-खातेदारी वाली ज़मीनों पर मालिकाना नियमित किया जा सकता है। चूंकि अब तक राजा का मुआवजा ही तय नहीं हुआ लिहाजा इन किसानों को ज़मीन का मालिकाना भी नहीं मिल सका। अब स्थिति यह है कि राजशाही खत्म होने के बाद भीलों की दूसरी पीढ़ी जिन ज़मीनों पर पचास साल से खेती कर रही है उस पर उनका अधिकार ही नहीं है। कायदे ये यह ज़मीन उनकी होनी चाहिए थी लेकिन सरकार उनके ऊपर लगातार तलवार लटकी रहती है।
वागड़ संगठन के सचिव कारुलाल कोटेड
एक बड़ा संकट इधर बीच यह पैदा हुआ है कि चूंकि चक वाली ज़मीनें सरकारी हैं, तो सरकार ने इन्हीं ज़मीनों को खनन के लिए लीज़ पर भी दे दिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि ग्रामीण आबादी के बीचोबीच धड़ल्ले से खनन का काम जारी है और भील आदिवासी सिलकोसिस जैसी गंभीर बीमारियों से उसकी कीमत चुका रहे हैं। अगर कहीं अदालत ने मुआवजा तय कर दिया तो भील और मुसीबत में पड़ सकते हैं क्योंकि राजा ने न केवल ज़मीन बल्कि तालाबों समेत हर चीज़ का मुआवजा मांगा है और अधिग्रहण के बाद से हर साल 12 फीसदी तक के ब्याज की भी मांग की है। यह सब आदिवासियों की जेब से राजा को दिया जाएगा।
कुल मिलाकर स्थिति यह है कि आदिवासी अपनी ही ज़मीन और अपने ही संसाधनों का दंड पचास साल से भर रहे हैं और उनके हाथ में कुछ भी नहीं। पेसा कानून पर हलचल के पीछे की व्यापक पृष्ठभूमि यही कहानी है। 1996 में पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पंचायती राज कानून लागू होने के बाद से आदिवासियों को यह बात समझ में आई कि यह सारे संसाधन उनके अपने हैं और संविधान में दिए अधिकार के तहत वे इन पर दावा कर सकते हैं। वागड़ संगठन ने इस जागरूकता को फैलाने में बड़ा काम किया और धीरे-धीरे हर गांव में शिलालेख लगाए जाने लगे और ग्राम सभाएं बनने लगीं। आदिवासियों को अब भी उम्मीद है कि मामला जब अदालत से निपटेगा तो शायद इन ज़मीनों पर उनका मालिकाना हो जाए, इसीलिए आज तक भरे दंड की सारी रसीद वे जमा कर के रखे हुए हैं।
ऐसी जटिल स्थिति न तो झारखण्ड में है और न ही छत्तीसगढ़ में, फिर भी दक्षिणी राजस्थान वहां के मुकाबले राजनीतिक रूप से बहुत शांत है। ग्राम सभा बनाने, गांव गणराज्य के पत्थर गाड़ने और संविधान के दायरे में खुद को शिक्षित करने का काम यहां लंबे समय से चल रहा है और आज भी जारी है। कुछ गांवों में इसके अनुकूल परिणाम भी देखने को मिले हैं। कोड़ीयागुण ऐसा ही एक गांव है जहां से पहले पत्थरगड़ी की कहानी 1998 में शुरू हुई थी। वागड़ संगठन के दो अनुभवी कार्यकर्ता हमें वहां ले जाने को तैयार हो गए। संयोग से दोनों ही नारायण थे- एक नारायण भराड़ी और दूसरे नारायण बरंडा। कोड़ीयागुण की ओर निकलते हुए हमें अहसास था कि यात्रा सुरक्षित रहेगी। भील राजा डूंगर बरंडा के खानदानी हमारे सारथी जो थे।
क्रमश: