गोपाल कृष्ण
अनूठी पहचान/आधार संख्या मामले की सुनवाई के दौरान 2-3 मई, 2017 को जब अटॉर्नी जनरल और भारत सरकार के वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट को यह बताया कि उनके द्वारा उठाया जा रहा कदम 1975 से जारी है तो यकायक कांग्रेस सरकार के मार्च 1975 के देश को एक संचार तंत्र में गूंथने के स्वप्न का खयाल आ गया। उस वक्त अधिकतर लोगों को यह कदम देशहित में ही लगा होगा क्योंकि वे इसके दूरगामी परिणाम से अनभिज्ञ थे. इसके लिए संयुक्त राष्ट्र की एक संस्था कि मदद से नेशनल इनफ़ॉरमेटिक्स सेंटर का गठन 1975-1977 दौरान हुआ। यह सेंटर सूचना एवं संचार तंत्र का एक मुख्य केंद्र बन गया।
गौरतलब है कि आधार मामले में राज्यसभा में जब इस साल 10 अप्रैल को बहस चल रही थी तो कांग्रेस के वरिष्ठ सांसद, भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण पर बनी कैबिनेट कमिटी के सदस्य व पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि “What sterilisation was to the Emergency, Aadhaar seeding is becoming to your Government” (जो रिश्ता नसबंदी और आपातकाल में था वही रिश्ता आधार और आपकी सरकार में है). स्पष्ट है कि उनके दिमाग में आपातकाल की याद अभी भी ताज़ा है. वे आधार परियोजना के एकमात्र ऐसे जन्मदाता है जिन्होंने खुद सार्वजनिक तौर पर यह घोषणा कर रखी है कि वे अपना आधार नहीं बनवाएंगे. वैसे तो उनमें और पूर्व केंद्रीय कानून व वाणिज्य मंत्री व वरिष्ठ सांसद सुब्रमण्यम स्वामी में शायद ही किसी बात पर सहमति हो मगर आधार के मामले में वे दोनों एक ही राय रखते दीखते है. 22 अप्रैल को NewsX चैनल पर स्वामी ने स्पष्ट कहा कि वे तो आधार नहीं बनवाएंगे. ऐसा लगता है कि आपातकाल में खिलाफ लड़ने वाले योद्धा स्वामी को उस दौर की नसीहत अब भी याद है.
नेशनल इनफ़ॉरमेटिक्स सेंटर का गठन आपातकाल के गर्भ में हुआ. उस दौरान इंदिरा गाँधी ने एक सेंटर का गठन नागरिकों को एक संचार तंत्र में बांधने के लिए किया था. इस सबंध में इलेक्ट्रॉनिक्स आयोग ने संयुक्त राष्ट्र की संस्था UNDP को सहयोग के लिए एक प्रस्ताव दिया था जिसमे दिल्ली में राष्ट्रीय सूचना संग्रह (डेटाबेस) के निर्माण और सरकार और विश्व बैंक समूह के व्यापक आर्थिक कार्यक्रमों के लिए एक राष्ट्रीय कंप्यूटर केंद्र की जरूरत है. नेशनल इनफ़ॉरमेटिक्स सेंटर के निर्माण के लिए UNDP धन मुहैया कराने को तैयार हो गयी. इस केंद्र का मैनडेट था कि वह मूल आकड़ों के संग्रहीकरण और विस्तारण की केंद्र-बिन्दु बने. इस दूरगामी मकसद को योजना आयोग, वित्त मंत्रालय और इलेक्ट्रॉनिक्स आयोग ने अनुमति दे दी. असल में इन तीनों संस्थानों की मुखिया खुद इंदिरा गाँधी ही थी. उसी दौरान (1976-1977) इस केंद्र के लिए एक सलाहकार समिति भी बनायी गई.
बाद में इलेक्ट्रॉनिक आयोग इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय बना जिसका जिम्मा कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के पास है. दिलचस्प बात ये है कि इंदिरा गाँधी की तानाशाही के खिलाफ जयप्रकाश आन्दोलन के संचालन के लिए जो 11 सदस्यों वाली समिति बनाई गयी थी उसमे रवि शंकर प्रसाद भी एक सदस्य थे मगर अब उन्हें आपातकाल का सबक याद नहीं. इस समिति के अन्य सदस्यों में लालू प्रसाद यादव, राम बहादुर राय आदि शामिल थे.
आपातकाल में इंदिरा गाँधी द्वारा गठित उसी नेशनल इनफ़ॉरमेटिक्स सेंटर के गर्भ से उंगलियों और आँखों की पुतलियों के जरिये आधार संख्या परियोजना को लागू करने वाली भारतीय विशिष्ट प्राधिकरण का जन्म हुआ. नेशनल इनफ़ॉरमेटिक्स सेंटर की तरह ही UNDP, विश्व बैंक, योजना आयोग (नीति आयोग), वित्त मंत्रालय और इलेक्ट्रॉनिक्स आयोग (इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय) आधार संख्या परियोजना के क्रियान्वयन में शामिल है. इसके द्वारा सभी देशवासियों समेत 53 केंद्रीय विभागों, राज्य सरकारों के 35 सचिवालयों, 640 जिला मुख्यालयों, 2 लाख 50 हज़ार पंचायतों, हरेक संस्था, जमीन, मशीन, दस्तावेज, भोजन, पानी, प्राकृतिक संसाधन, स्थान, पेड़-पौधे, जानवर, मुकदमे आदि को चिन्हित कर उस पर एक विशिष्ट पहचान संख्या गोदना है. इसके लिए आवश्यक तकनीक के निर्माण और प्रयोग के लिए नेशनल इनफ़ॉरमेटिक्स सेंटर और कुछ विदेशी कंपनियों के साथ ठेका-समझौता हो चुका है. इस परियोजना के प्रमुख सलाहकारों में से एक सैम पित्रोदा ने भविष्यवाणी की है कि इलेक्ट्रॉनिक संपर्क के कारण साइबर दुनिया में राष्ट्र-राज्यों का अर्थ आने वाले दिनों में वही नहीं रहेगा जो 70 साल पहले हुआ करता था. 2013 में उन्होंने कहा था कि इस पर करीब एक लाख करोड़ का खर्चा आएगा.
भयावह बात ये है कि बायोमेट्रिक आधार परियोजना को लागू करने के लिए सैफ्रान नाम की जिस फ्रांस की कंपनी को ठेका दिया गया है उस कंपनी का चीन के साथ 40 साल का कोई समझौता है. इस कंपनी में फ्रांस सरकार का 40 फीसदी निवेश भी है. एल 1 नामक अमेरिकी कंपनी को अमेरिकी सरकार से राष्ट्रीय सुरक्षा मंजूरी मिलने बाद फ्रांस कि इस कंपनी ने खरीद लिया. इस अमेरिकी कंपनी को भी आधार परियोजना को लागू करने के लिए ठेका दिया गया है. बायोमेट्रिक तकनीक के लिए विदेशी कंपनियों को शामिल करने की कोई ठोस वजह नहीं थी क्योंकि भारत सरकार के अपनी सूचना प्रौद्योगिकी विभाग के पास ये तकनीक मौजूद थी. चीन के साथ 1962 के युद्ध में हार से सबक लेकर प्रधानमंत्री के तहत इलेक्ट्रॉनिक्स विभाग का गठन 26 जून, 1970 को किया गया था.
सरकार सूचना का ऐसा खजाना तैयार करने में जुटी है, जिसमें विभिन्न दफ्तरों के साथ-साथ आम लोगों से जुड़ी शहरी-देहाती व जंगली जन-जीवन की एक-एक चीजों की पूरी जानकारी उपलब्ध रहेगी। इस प्रकार सभी सरकारी योजनाओं, जेलों, राशन व्यवस्था, खजानों, जमीन के रिकार्डों आदि को भी इस सूत्र में बांधने की कवायद है। सरकार के अनुसार, ‘‘यदि आप व्यक्तियों, जगहों एवं प्रोग्रामों को चिन्हित कर (सूचीबद्ध) कर लेते हैं तो सूचनाओं को सुविधापूर्वक संगठित कर जन-सुविधाओं को उपलब्ध कराने में सहूलियत होगी।’’
वर्तमान सरकार पिछली सरकार की तरह 1975 में तय संरचना में ही काम कर रही है. सारी सूचनाएं सरकार के कुछ विश्वासी लोगों और कुछ खास निजी कंपनियों के हाथों में होगी, जिनके साथ पहले ही समझौता हो चुका है। इस परियोजना का श्रेय लेने में आज नंदन नीलेकणी सबसे आगे दिख रहे हैं मगर तथ्य ये है कि भारत की दूसरे नंबर की सबसे बड़ी साफ्टवेयर कंपनी इन्फोसिस टेक्नोलाजीज इंडिया लिमिटेड के सह-संस्थापक और सीईओ निलेकणी जिन्हें भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण का चेयरमैन जुलाई 2009 में नियुक्त किया गया- दस्तावेजों से यह प्रमाणित होता है कि निलेकणी के पदभार ग्रहण से कम-से-कम दो साल पहले ही विशिष्ट पहचान परियोजना लागू हो चुकी थी. यह परियोजना सूचना प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार के अंतर्गत चल रही थी. आइडेंटिटी मैनेजमेंट (पहचान प्रबंधन) सम्बन्धी एक टास्क फ़ोर्स के 2007 की रिपोर्ट और विप्रो के 2006-07 रिपोर्ट से भी यह खुलासा होता है. 2006 के आसपास आईटी क्षेत्र की विप्रो कंपनी ने योजना आयोग को एक रिपोर्ट सौंपी थी, जिसका शीर्षक था ‘भारतीय विशिष्ट पहचान की रणनीतिक दृष्टि’ (दी स्ट्रेटजिक विजन ऑन दी यूआईडीएआई). इस रिपोर्ट को गुप्त रखा गया था मगर काफी बाद में सुप्रीम कोर्ट में इस 14 पृष्ठ के दस्तावेज को पेश किया गया। विप्रो का दस्तावेज यह भी उजागर करता है कि मतदाता सूची और विशिष्ट पहचान/आधार संख्या की सूची दोनों एक दूसरे के पार्टनर डेटाबेस हैं. सच्चाई ये है कि निलेकणी को केवल इसके मार्केटिंग, प्रचार और प्रसार के लिए ब्रांड एम्बेसडर के तौर पर लाया गया था. उन्होंने शुरूआती दिनों में स्वीकार भी किया था कि इस परियिजना के सफलता और असफलता सिर्फ मार्केटिंग पर निर्भर है. असल में यह कार्यक्रम तो मूल रूप में 1975 से ही चल रहा है.
विकीलिक्स ने यूआईडीएआई का एक 41 पृष्ठों वाला दस्तावेज उजागर किया। इस दस्तावेज में जानबूझ कर गलतबयानी की गई है कि सबसे पहले भारत सरकार ने देशवासियों को स्पष्ट पहचान देने का प्रयास 1993 में किया था जो चुनाव आयोग द्वारा जारी फ़ोटो पहचान पत्र के रूप में 2003 में सामने आया, जिसके जरिए भारत सरकार ने बहुउद्देशीय राष्ट्रीय पहचान पत्र को स्वीकृति दे दी। यह तथ्य पूर्णतः गलत है क्योंकि 2003 में जो पह्चान पत्र चुनाव आयोग द्वारा जारी किया गया वह नागरिकों के लिए है न कि देशवासियों के लिए। यहां नागरिक एवं देशवासी के बीच अंतर को समझना अत्यंत जरूरी है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि इसी विकीलिक्स द्वारा जारी दस्तावेज में लिखा है, ‘‘सभी देशवासियों को अनूठा पहचान पत्र जारी किया जा सकता है। यह अनूठा पहचान पत्र ‘पहचान’ का सबूत तो है, मगर यह नागरिकता का द्योतक नहीं है।’’ यह दस्तावेज 13 नवंबर, 2009 का है।
गौरतलब है कि वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने 2009 के अपने बजट भाषण के 64वें पैरा में कहा, ‘‘भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण इंटरनेट पर एक ऐसा डाटाबेस बनाएगी जो देशवासियों को जैव-सांख्यिकीय (बायो-मेट्रिक्स) जानकारी के आधार पर उनकी पहचान करेगा।’’
सरकार ने आज तक परियोजना के कुल अनुमानित खर्चे का खुलासा नहीं किया है. वित्त पर संसदीय समिति ने संसद में पेश की अपनी रिपोर्ट में खुलासा किया है कि एक आधार संख्या जारी करने में औसतन 130 रुपये का खर्चा आता है जिसका देश के 130 करोड़ लोगों को भुगतान करना पड़ेगा. फ़रवरी 2009 से फ़रवरी 2017 तक प्राधिकरण ने कुल 8,536.83 करोड़ रुपये आधार परियोजना पर खर्च किये हैं.
घोटालों के उजागर होने के कारण सूचना अधिकार कानून से तिलमिलाई कंपनियों ने सरकार से स्पष्ट मांग रखी कि सियासी दलों को अगर उनसे चन्दा चाहिए तो उनका नाम गुमनाम रखना होगा. इसका खुलासा अरुण जेटली ने अपने बजट भाषण 2017-18 में किया है. वित्त विधेयक 2017 को धन विधेयक के रूप में लोकसभा में लाकर उन्होंने कंपनियों की आज्ञा का अक्षरशः पालन किया है. कंपनियां उनके इस कारनामे से काफी खुश होंगी. इस वित्त कानून 2017 ने अप्रत्याशित तौर पर लगभग 40 कानूनों में तक़रीबन 250 संशोधन किया है. आधार कानून 2016 में भी संशोधन कर बायोमेट्रिक आधार को अनिवार्य कर दिया गया है. इस तरह वर्तमान और भविष्य के भारतवासियों को अनंतकाल के लिए पारदर्शी बना दिया गया है और कंपनियों को लगभग सौ साल बाद “लिमिटेड लायबिलिटी” के अधिकार के साथ-साथ गुमनाम रहने का परम निर्णायक अधिकार मिल गया है. कंपनियों को ‘लिमिटेड कंपनी’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि कानून ने उन्हें यह सहूलियत प्रदान की है कि वे अपने क्रियाकलाप से “अनलिमिटेड” (अंतहीन) नुकसान कर सकती हैं मगर उनके ऊपर अंतहीन भारपाई कि जिम्मेवारी नहीं होगी. बायोमेट्रिक आधार परियोजना ऐसे ही नुकसान का उदाहरण है. जेटली भी आपातकाल के खिलाफ लड़ने वाले सिपाहियों में शामिल थे.
गुमनाम रहने के चरम अधिकार के फलस्वरूप उन्हें गुमनाम रहकर अंतहीन नुकसान पहुंचाने का अधिकार मिल गया है. अब वे सियासी दलों को जितना चाहें उतना चंदा दे सकते है और उसके बदले देश के प्राकृतिक संशाधनों, मानव संसाधनों और लोक संस्थानों को अपनी पूंजी के बलबूते आसानी से अपने वश में कर सकती हैं. सवाल ये है कि यह अनहोनी खुलेआम कैसे हो गयी और लोग खामोश क्यों हैं? सरकार व कंपनियों के विचारकों के अनुसार भारत “मंदबुद्धि लोगों का देश” है. शायद इसीलिए वो मानते जानते हैं कि लोग खामोश ही रहेंगे. ऐसा भारतीय गृह मंत्रालय के तहत नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) विभाग के मुखिया रहे कैप्टन रघुरमन का मानना है.
कैप्टन रघुरमन पहले महिंद्रा स्पेशल सर्विसेस ग्रुप के मुखिया थे और बॉम्बे चैम्बर्स ऑफ़ इंडस्ट्रीज एंड कॉमर्स की सेफ्टी एंड सिक्योरिटी कमेटि के चेयरमैन थे। इनकी मंशा का पता इनके द्वारा ही लिखित एक दस्तावेज से चलता है, जिसका शीर्षक “ए नेशन ऑफ़ नम्ब पीपल” अर्थात् असंवेदनशील मंदबुद्धि लोगों का देश है। कैप्टन रघुरमन बाद में नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड के मुखिया बने. इस ग्रिड के बारे में 3 लाख कंपनियों की नुमाइंदगी करने वाली एसोसिएट चैम्बर्स एंड कॉमर्स (एसोचेम) और स्विस कंसलटेंसी के एक दस्तावेज में यह खुलासा हुआ है कि विशिष्ट पहचान/आधार संख्या इससे जुड़ा हुआ है।
आजादी से पहले गठित अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “फिक्की” (फेडरेशन ऑफ़ इंडियन कॉमर्स एंड इंडस्ट्री) द्वारा 2009 में तैयार राष्ट्रीय सुरक्षा और आतंकवाद पर टास्कफोर्स (कार्यबल) की 121 पृष्ठ की रिपोर्ट में गैर सरकारी तत्वों की साजिशों पर चिंता जतायी गयी है जो “वैश्विक निवेशकों” के भरोसे को डिगाता है. फिक्की की रिपोर्ट सभी जिला मुख्यालयों और पुलिस स्टेशनों को ई-नेटवर्क के माध्यम से नेशनल इंटेलिजेंस ग्रिड (नैटग्रिड) में जोड़ने की वकालत करती है और कहती है “जैसे ही भारतीय विशिष्ट पहचान प्राधिकरण (यूआईडीएआई) तैयार हो जाएगा, उसमें शामिल आंकड़ों को नेशनल ग्रिड का हिस्सा बनाया जा सकता है।’’ ऐसा पहली बार नहीं है कि नैटग्रिड और यूआईडीएआई के रिश्तों पर बात की गई है। कंपनियों के हितों के लिए काम करने वाली संस्था व अघोषित और अलोकतांत्रिक राजनीतिक पार्टी “एसोचैम” और स्विस परामर्शदाता फर्म केपीएमजी की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी इन इंडिया 2010’ में भी यह बात सामने आई है। इसके अलावा जून 2011 में एसोचैम और डेकन क्रॉनिकल समूह के प्रवर्तकों की पहल एवियोटेक की एक संयुक्त रिपोर्ट ‘होमलैंड सिक्योरिटी एसेसमेंट इन इंडिया: एक्सपैंशन एंड ग्रोथ’ में कहा गया है कि ‘राष्ट्रीय जनगणना के तहत आने वाले कार्यक्रमों के लिए बायोमीट्रिक्स की जरूरत अहम हो जाएगी।’
वैसे तो दस्तावेजों के मुताबिक अमेरिका में बायोमेट्रिक यूआईडी/अनूठी पहचान के बारे में क्रियान्वयन की चर्चा 1995 में अमेरिका के फ़ेडरल ब्यूरो आफ इन्वेस्टिगेशन के एक ट्रेनिंग केंद्र पर हो चुकी थी मगर हाल के समय में धरातल पर इसे अमेरिकी रक्षा विभाग में यूआईडी और रेडियो फ्रीक्वेंसी आइडेंटिफिकेशन (आरएफआईडी) की प्रक्रिया माइकल वीन के रहते उतारा गया. वीन 2003 से 2005 के बीच एक्विजिशन, टेक्नोलॉजी एंड लॉजिस्टिक्स (एटीऐंडएल) में अंडर सेक्रेटरी डिफेंस हुआ करते थे। एटीऐंडएल ने ही यूआईडी और आरएफआईडी कारोबार को जन्म दिया। अंतरराष्ट्रीय फौजी गठबंधन “नाटो” के भीतर दो ऐसे दस्तावेज हैं जो चीजों की पहचान से जुड़े हैं। पहला मानकीकरण संधि है जिसे 2010 में स्वीकार किया गया था। दूसरा एक दिशा-निर्देशिका है जो नाटो के सदस्यों के लिए है जो यूआईडी के कारोबार में प्रवेश करना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि पाकिस्तान की तरह भारत का भी नाटो से कोई रिश्ता बन गया है. यहां हो रही घटनाएं इसी बात का आभास दे रही हैं।
ध्यान देने वाली बात ये है कि चुनाव आयोग की वेबसाइट पर मौजूद सूचना के मुताबिक हर ईवीएम में यूआईडी होता है। हैरतंगेज बात यह है कि राज्यों में जहां विरोधी दलों की सरकार है वह भी यूआईडी/आधार परियोजना का बड़ी तत्परता से लागू कर रहे हैं मगर संसद में उसके खिलाफ तर्क दे रहे है. यह ऐसा ही है जैसे अमेरिकी डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जब पहली बार शपथ ले रहे थे तो उन्हें यह पता ही नहीं चला कि जिस कालीन पर खड़े थे वह उनके परम विरोधी पूंजीपति डेविड कोच की कम्पनी इन्विस्ता द्वारा बनायीं गई थी. डेविड कोच ने ही अपने संगठनों के जरिये पहले उन्हें गैर चुनावी शिकस्त दी और फिर बाद में चुनावी शिकस्त भी दी. भारत में भी विरोधी दल जिस बायोमेट्रिक यूआईडी/आधार और यूआईडी युक्त ईवीएम की कालीन पर खड़े हैं वह भी कभी भी उनके पैरों के नीचे से खींची जा सकती है. लोकतंत्र में विरोधी दल को अगर आधारहीन कर दिया जाता है तो इसका दुष्परिणाम जनता को भोगना पड़ता है क्योंकि ऐसी स्थिति में उनके लोकतान्त्रिक अधिकार छिन जाते हैं. आधार मामले में विरोधी दलों का जो विरोधाभासी रुख है वह उनकी विश्वसनीयता पर सवालिया निशान उठाता दिख रहा है.
इसी कड़ी में जनगणना के 15वें चरण में एक दूरगामी परिणाम वाली योजना राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को भी जोड़ दिया गया जो अनूठी पहचान संख्या से संरचनात्मक तौर से संबंधित है। इन योजनाओं का रिश्ता कुछ अन्य प्रस्तावों एवं प्रस्तावित विधेयकों से भी है। इस तरह निशानदेही करने के पुराने सिलसिले को संसद और नागरिकों को अंधकार में रखकर आगे बढ़ाया जा रहा है। इस संबंध में कांग्रेस नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार की तरह ही भाजपा नेतृत्व वाली सरकार भी अदालत और संसद की अवमानना तक कर रही है। हैरत की बात है कि गैर कांग्रेस और गैर भाजपा सियासी दल कथनी में तो उनका विरोध करते हैं मगर करनी में उन्हीं की नीतियों पर चल रहे हैं.
हैरत की बात यह भी है कि एक तरफ गाँधीजी के चंपारण सत्याग्रह के सौ साल होने पर सरकारी कार्यक्रम हो रहे है वहीं वे गाँधीजी के द्वारा एशिया के लोगों के बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पंजीकरण के खिलाफ उनके पहले सत्याग्रह और आजादी के आन्दोलन के सबक को भूल गए. उन्होंने उंगलियों की निशानदेही के द्वारा पंजीकरण कानून को काला कानून कहा था और सबंधित दस्तावेज को सार्वजनिक तौर पर जला दिया था. चीनी निवासी भी उस विरोध में शामिल थे. ऐसा लगता है जैसे चीन को यह सियासी सबक याद रहा मगर भारत भूल गया. चीन ने बायोमेट्रिक निशानदेही आधारित पहचान परियोजना को रद्द कर दिया है.
साइबर और बायोमेट्रिक पहलों से मौलिक और संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण हो रहा है. प्रौद्योगिकी आधारित सत्ता प्रणाली की छाया लोकतंत्र के मायने ही बदल रही है जहां प्रौद्योगिकी और प्रौद्योगिकी कंपनियां नियामक नियंत्रण से बाहर हैं क्योंकि वे सरकारों, विधायिकाओं और विरोधी दलों से हर मायने में कहीं ज्यादा विशाल और विराट हैं।
ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया है कि आधार आपातकाल में लागू की गयी संरचना का ही हिस्सा है. जयराम रमेश ने राज्यसभा में नसबंदी और आधार की तुलना के बाद कहा कि “यह बात सही है कि बच्चा हमने पैदा किया, लेकिन बच्चे को भस्मासुर आप बना रहे है।“ दस्तावेज बताते है कि असल में इसकी पैदाइश भस्मासुर के रूप में ही हुई थी.
सरकार ने कंपनियों को गुमनाम रहने का अधिकार दे दिया गया है. कंपनियों के दबाव में सरकार जो कि जनता की नौकर है वह खुद को अपारदर्शी और जनता जो उसकी मालिक है, उसे पारदर्शी बना रही है. उसके बाद यह अलोकतांत्रिक दावा किया जा रहा कि सरकार का देशवासियों के शरीर पर अधिकार है. इस दावे के दूरगामी परिणाम होंगे.
इंदिरा गाँधी और उनके एक वंशज को भी ऐसा ही लगा था. वे केवल पुरुषों के शरीर पर हाथ रख रहे थे. इसका खामियाज़ा उन्हें भुगतना पड़ा. आधार में मामले में तो स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर के संवेदनशील हिस्सों पर हाथ डाला जा रहा है. इतिहास अपने को दोहरा रहा है. ताज्जुब की बात ये है कि विस्मृति का स्वांग कर आपातकाल की संरचना और दर्शन के खिलाफ आन्दोलन करने वाले आज तानाशाही की संरचना को ही लागू करते दिख रहे हैं.
फोटो साभार feminisminindia.com