मीडिया लगातार दक्षिणपंथी शब्दावली को सहजता से इस्तेमाल किए जा रहा है और हाशिये पर पड़े लोगों की पहचान को क्लिक-प्रिय माल में तब्दील कर रहा है
सबा के. / दि प्रिंट से साभार
हादिया की आज़ादी से जुड़े मामले की कवरेज में तकरीबन समूचा भारतीय मीडिया- कट्टर से लेकर प्रगतिशील रुझान वाले समाचार पोर्टलों तक- अपनी हेडलाइन में ‘लव जिहाद’ का इस्तेमाल कर रहा है। यहां तक कि वे संस्थान जो नहीं चाहते कि इस मामले को दक्षिणपंथी वैचारिकी के दायरे में समझा-देखा जाए, वे भी कोटेशन मार्क का इस्तेमाल कर के केरल का ‘लव जिहाद’ केस लिखे जा रहे हैं और इस तरह विभाजनकारी राजनीतिक विमर्श में अपने आप हिस्सेदार बन जा रहे हैं।
केरल उच्च न्यायालय ने कड़े शब्दों में सवाल उठाया है कि आखिर इस शब्द के इस्तेमाल से एक अंतरधार्मिक विवाह को कैसे सांप्रदायिक शक्ल दे दी गई। अब हम अंतरधार्मिक या अंतरआस्था का विवाह कहने के बजाय वापस उसी शब्द पर लौट जाते हैं। हादिया की स्टोरी का नाम देने के हज़ारों तरीके हो सकते थे। ”केरल की महिला का लव जिहाद केस” लिखने के बजाय यह लिखा जा सकता था- ”मुस्लिम से ब्याही एक वयस्क लड़की का केस” या ”25 साल की महिला की स्वायत्तता वाले केस में राज्य का दख़ल”। शब्दों के संक्षेप में जाने की यह प्रवृत्ति दिखाती है कि लोगों के जीवन-अनुभवों को किसी हैशटैग या ट्रैफिक हासिल करने वाले ट्रेंडी पदों में बदलकर कैसे उनके मूल संदर्भ से ही काट दिया गया है।
मैंने खुद फिल्म पद्मावती के संदर्भ में उसके जातिगत आयामों और पितृसत्तात्मक रूढि़यों पर एक लेख लिखा था। उसकी हेडलाइन को बदल दिया गया और ‘लव जिहाद’ से जोड़ दिया गया (यह लेख अब भी सोशल मीडिया पर उपलब्ध है)।
ऐसी हेडलाइन और कैप्शन एक बड़ी ढांचागत समस्या का हिस्सा हैं। सामाजिक मुद्दों को उनके सामाजिक व राजनीतिक संदर्भ से कटे हुए किसी लोकप्रिय शब्द के चश्मे से कवर करने का आग्रह दरअसल लोगों की पहचानों और समस्याओं को न्यूज़ बाइट की तरह बरतने की प्रवृत्ति से पैदा होता है जिसके बिकने की एक निश्चित अवधि होती है। लगातार चौबीस घंटा सात दिन चलने वाले चैनलों, कॉरपोरेट और उपभोक्तावादी होते मीडिया के दौर में चीज़ों को आकर्षक नाम देने का ज़ोर बढ़ा है। चुनावी बहसों में अकसर ‘मुस्लिम वोट’ जैसे घिसे-पिटे शब्द का इस्तेमाल होता है, जो एक समूचे समुदाय की जटिलताओं और वास्तविकताओं को वोटबैंक के अदद सवाल में तब्दील कर देता है।
अपने अधिकार हासिल करने के लिए महिलाओं के किए लंबे संघर्ष को ”जेंडर विमर्श” में बांध दिया जाता है। हाशिये पर पड़े लोगों की अस्मिताओं को क्लिक-प्रिय माल में तब्दील कर दिया जाता है। यही वजह है कि हम यह नहीं कहते कि ”दलित, बहुजन और आदिवासी लोगों के साथ सवर्णों ने किया संस्थागत भेदभाव” बल्कि हम केवल इतना कह कर रह जाते हैं- ”दलितों के साथ भेदभाव”।
पत्रकार सुदीप्तो मंडल ठीक कहते हैं, ”भारतीय मीडिया को दलितों की ख़बर चाहिए, दलित रिपोर्टर नहीं।”
ध्यान देने वाली बात है कि ऐसे शब्द बमुश्किल ही उन ख़बरों में इस्तेमाल किए जाते हैं जिनका लेना-देना प्रभु वर्गों या ताकतवर समुदायों से होता हो। मसलन, चश्मे को एक बार के लिए पलट दें। अगर हम हादिया के केस को ”केरल के लव जिहाद केस” की जगह ”केरल का हिंदुत्व केस” कहें तो कैसा रहेगा?
समस्या केवल मीडिया के साथ नहीं है बल्कि उन आवाज़ों से जुड़ी है जिनका हमारी अदालतों और सत्ता के संस्थानों में प्रतिनिधित्व बहुत कम है।
यह वैसे ही है जैसे सभी पुरुष जजों की सुप्रीम कोर्ट की खंडपीठ एक स्त्री की जिंदगी पर फैसले दे रही है। हमारा मीडिया एक दक्षिणपंथी उपज वाले शब्द को इतनी सहजता से बरतते हुए अपने संपादकीय फैसले सुनाता है, तो इसकी वजह यह है कि हमारे संस्थान (न्यायपालिका भी) अधिसंख्य हिंदुओं और सवर्णों से भरे हुए हैं।
ऐसे क्षेत्र बेशक हैं जहां बलात्कार की संस्कृति और यौनिकता या सांप्रदायिकता जैसे मसलों पर काम होता है और कवरेज होती है, लेकिन कानून और मीडिया इन समुदायों से लोगों को रोजगार देकर बराबरी बख्शने जितनी जगह नहीं देना चाहते बल्कि इन्हें एक हैशटैग तक ही सीमित रखते हैं।
‘लव जिहाद’ और ‘राष्ट्रविरोधी’ जैसे शब्द सामाजिक और राजनीतिक गढ़न हैं। इनका इस्तेमाल इसी हिसाब से हमारी बोलचाल की भाषा में होना चाहिए- मसलन आलोचना करने के दौरान, व्यंग्य में या इनके असली अर्थ को प्रकाशित करने के उद्देश्य से। मूल्य-निरपेक्ष तरीके से मीडिया की हेडलाइनों में इनका इस्तेमाल उन अवधारणाओं का साधारणीकरण कर डालता है जो भगवा कल्पनालोक की उपज हैं।
कभी-कभार कोटेशन मार्क पर्याप्त नहीं होते। ‘केरल का लव जिहाद’ या ‘कथित रूप से राष्ट्रविरोधी टिप्पणी’ कहने के बजाय राष्ट्रविरोधी या भारतीय हिंदू पुरुष की कमज़ोरी से झलकते उस मूल विचार पर ही क्यों न हंस दिया जाए- जिसने ‘लव जिहाद’ जैसे शब्द की उत्पत्ति करने वाले आक्रोश को जन्म दिया है?
सबा के. का यह लेख 28 नवंबर 2017 को वेबसाइट दि प्रिंट पर छपा था। वहीं से साभार मीडियाविजिल पर प्रकाशित है। मूल अंग्रेज़ी में इसे यहां पढ़ा जा सकता है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।