राणा अयूब
गिरीश सिंघल के बड़े बेटे हार्दिक ने 2012 में खुदकुशी कर ली थी। उनके करीबी बताते हैं कि सिंघल इस घटना के बाद टूट गए थे। मेरी सिंघल से मुलाकात 2010 की एक सुबह हुई। उस वक्त में गुजरात एटीएस के प्रमुख थे। एसआइटी की जांच के चलते सिंघल की हरकतों पर करीबी निगाह रखी जा रही थी। उनकी गिरफ्तारी होनी तय थी। दो जूनियर अफसरों को पहले ही गिरफ्तार किया जा चुका था और अगली बारी सिंघल की ही थी। इनके और अन्य के खिलाफ तमाम अन्य आरोपों समेत आतंकवाद के नाम पर इशरत जहां की हत्या और उसकी साजि़श का आरोप था… मैं जब यह किताब लिख रही हूं, तो सिंघल पहले ही गिरफ्तार हो चुके हैं और उन्होंने सीबीआइ के सामने अपनी भूमिका कुबूल ली है।
दंगों का राज्य पर क्या असर पड़ा है? और पुलिस पर भी?
देखिए, मैं यहां 1991 से काम कर रहा हूं और मैंने गुजरात के कई दंगों को देखा है। सन 82, 83, 85, 87 और अयोध्या के बाद सन 92 का दंगा भी मैंने देखा है। उस वक्त मुसलमान वर्चस्व में होते थे। 2002 में मुसलमान ज्यादा संख्या में मारे गए। यह बात खासकर 2002 में ही हुई थी, वरना बीते वर्षों में मुसलमान ही हिंदुओं को मारते थे। इतने साल मुसलमानों के हाथों मारे जाने के बाद 2002 एक बदला था, जबकि दुनिया भर में लोगों ने हल्ला मचा दिया। उन्होंने यह नहीं देखा कि यहां पहले हिंदू मारे जा रहे थे।
मैं राजन प्रियदर्शी से मिली थी। आपने ही मुझे एक दलित के बतौर उनसे बात करने की सलाह दी थी।
मैं यहां हर संभव पद पर और तमाम अफसरों के साथ काम कर चुका हूं। मैं पदानुक्रम में बीच में हूं, लिहाजा मैंने तमाम लोगों के साथ काम किया है लेकिन उनके जैसा आदमी नहीं मिला। वे सबसे ईमानदार अफसर हैं। वे ऐसे अफ़सर हैं जो पुलिस तंत्र के बारे में हर चीज़ जानते हैं।
उन्होंने बताया था कि सरकार उनसे समझौता करवाना चाहती थी लेकिन वे नहीं माने।
हां, उन्होंने समझौता नहीं किया, मैं इससे वाकिफ़ हूं।
क्या यह संभव है कि आप समझौता किए बगैर भी तंत्र का हिस्सा बने रह सकें?
एक बार समझौता करने पर आपको हर चीज़ से समझौता करना पड़ता है, खुद से, अपने विचारों से, अपनी आत्मा से।
क्या गुजरात में किसी अफसर के लिए अपनी आत्मा की आवाज़ सुनते हुए काम करते रहना मुमकिन है?
हां, हां, लेकिन जब कानून को अच्छे से जानने वाला कोई बड़ा अधिकारी समझौता कर लेता है तो यह मुश्किल हो जाता है।
क्या यही आपके साथ भी हुआ? आपको कितना संघर्ष करना पड़ा?
कुछ लोग खड़े होने की, संघर्ष करने की कोशिश करते हैं। कुछ ऐसे हैं जो मरते दम तक लड़ते रहते हैं। प्रियदर्शी ऐसे ही व्यक्ति हैं।
और आप?
मैं भी।
तो क्या यह तंत्र आपको सहयोग करता है?
कतई नहीं। मैं दलित हूं लेकिन ब्राह्मणों जैसा हर काम कर सकता हूं। मैं उनके मुकाबले अपना धर्म कहीं बेहतर जानता हूं लेकिन लोग इसे नहीं समझते। अगर मैं दलित परिवार में पैदा हुआ हूं तो क्या यह मेरी ग़लती है?
क्या भी ऐसा हुआ है कि उन लोगों की सेवा करने के बावजूद जब बात प्रोन्नति की आई तो आपकी जाति के कारण आपको रोक दिया गया?
हां, कई बार ऐसा हुआ है। देखिए, गुजरात ही नहीं, तमाम राज्यों में यह चलन है। ये ब्राह्मण और क्षत्रिय अपने नीचे दलित या ओबीसी को नहीं रखते।
क्या आपके वरिष्ठ दलित हैं?
नहीं, लेकिन मेरा काम चल जा रहा है। मैं उनके लिए ज़रूरी हूं क्योंकि मैंने उनके लिए आतंकवाद के कई मामले निपटाए हैं। इसके बावजूद वे अपनी हरकत से बाज़ नहीं आते। कभी-कभार वे मुझे ऐसा काम पकड़ा देते हैं जो एक सिपाही के लायक होता है।
उषा (राडा, पांचवें अध्याय में इसका जि़क्र है) बता रही थी कि आप भी किसी विवाद में फंसे थे?
हां, 2004 में हमने चार लोगों को मुठभेड़ में मार गिराया था। दो पाकिस्तानी थे और दो मुंबई से थे। उनमें एक लड़की थी इशरत, यह मामला काफी लोकप्रिय हुआ था। हाइ कार्ट ने आदेश दिया है कि इस मुठभेड़ की जांच की जाए कि यह असली था या फर्जी।
क्या यह फर्जी था? आप उसमें क्या कर रहे थे?
मैं उस एनकाउंटर का हिस्सा जो था।
लेकिन आप क्यों फंस रहे हैं?
देखिए, ये सब मानवाधिकार आयोगों का किया धरा है। कुछ मामले मुश्किल होते हैं तो उनसे अलग से निपटना पड़ता है। अब अमेरिका को देखिए, उसने 9/11 के बाद क्या किया। वहां एक जगह थी गुआंतानामो। वहां लोगों को रखा जाता था हिरासत में और प्रताड़ना दी जाती थी। हर किसी को प्रताडि़त थोड़े ही किया जाता है। दस फीसदी ऐसे लोग होते हैं जिन्हें यातना दी जाती है, भले ही उन्होंने कुछ न किया हो। इनमें एक फीसदी तो गलत होंगे ही। ये सब देश को बचाने के लिए करना पड़ता है।
कौन थे ये लोग? लश्कर के आतंकी?
हां।
लड़की भी, इशरत?
देखिए, वो नहीं थी लेकिन उसी घटना में वह भी मारी गई थी। मेरा मतलब है वह हो भी सकती है और नहीं भी। हो सकता है उसका कवर के तौर पर इस्तेमाल किया गया रहा हो।
मतलब ये है कि आप सभी यानी वंजारा, पांडियन अमीन, परमार और बाकी कई निचली जातियों से आते हैं। आपने जो कुछ किया, राज्य के कहने पर किया। इसका मतलब कि आपका इस्तेमाल कर के आपको फेंक दिया गया?
हां, हम सभी के साथ यही हुआ है। सरकार लेकिन ऐसा नहीं सोचती। उसे लगता है कि हमारा काम उसकी बात मानना है और उसकी ज़रूरत को पूरा करना है। हर सरकारी नौकर जो कुछ करता है सरकार के लिए करता है। इसके बावजूद समाज और सरकार आपको अपना नहीं मानते। वंजारा ने जो कुछ भी किया, लेकिन उसके साथ कोई भी खड़ा नहीं हुआ।
लेकिन सर, आप लोगों ने जो कुछ भी किया वह तो सरकार के कहने पर किया था, राजनीतिक ताकतों के कहने पर किया, फिर वे लोग क्यों नहीं… ?
सिस्टम के साथ रहना है तो लोगों को कम्प्रोमाइज़ करना पड़ता है।
इसका मतलब कि प्रियदर्शी सरकार के करीब नहीं थे?
वे सरकार के करीब तो थे, लेकिन जब कभी उनसे कुछ गलत करने को कहा जाता, वे मना कर देते थे।
हां, उन्होंने बताया था कि उन्हें एक एनकाउंटर करने को कहा गया था, पांडियन के साथ। उन्होंने इनकार कर दिया था।
पता नहीं, मैं पाडियन की पृष्ठभूमि से बहुत परिचित नहीं हूं। वह अभी जेल में हैं।
वे गृहमंत्री के इतना करीबी कैसे हो गए?
एटीएस में आने से पहले वे इंटेलिजेंस में थे।
ओह, इसका मतलब कि मुख्यमंत्री और गृहमंत्री दोनों अपना काम निकाल रहे हैं। तो अब आप क्या राहत की स्थिति में हैं?
कुछ चीज़ें हमारे हाथ में नहीं हैं। हमने जो किया, सिस्टम के लिए किया।
लेकिन ये अमित शाह का मामला क्या है… मैं आपके अफ़सरों के बारे में भी सुन रही हूं। मेरा मतलब है कि एक किस्म का अफसर-नेता गिरोह जैसा कुछ खासकर मुठभेड़ों के मामले में काम कर रहा है। मैं दूसरे मंत्रियों से मिली थी तो मुझे इसका अंदाजा लगा।
इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री भी… जितने भी मंत्रालय और मंत्री हैं, सब रबड़ की मुहरें हैं। सारे फैसले मुख्यमंत्री लेते हैं। मंत्री कोई भी फैसला लेने से पहले उनसे मंजूरी लेते हैं।
फिर तमाम मामलों में, आप वाले में भी, उन पर कोई आंच क्यों नहीं आती? इन मामलों में वे दोषी कैसे नहीं हुए?
क्योंकि वे सीधे तस्वीर में कभी नहीं आते। वे अपने नौकरशाहों को निर्देश देते हैं।
अगर आपके मामले में अमित शाह की गिरफ्तारी हुई तो इसी तर्ज पर मुख्यमंत्री को भी गिरफ्तार होना चाहिए था?
हां। सोहराबुद्दीन की हत्या में अफसरों की गिरफ्तारी के ठीक बाद 2007 में सोनिया गांधी यहां आई थीं और उन्होंने अधिकारियों को मौत के सौदागर कहा था। इसके बाद हर सभा में मोदी चिल्ला कर बोलते थे- ‘मौत के सौदागर? सोहराबुद्दीन कौन था? उसको मारा तो अच्छा हुआ कि नहीं हुआ?” इसी के बाद उन्हें भारी बहुमत मिल गया। वे जो चाहते थे वही हुआ।
और जिन अफसरों के माध्यम से उन्होंने सब करवाया, अब उनकी वे मदद नहीं कर रहे?
नहीं, वे सब जेल में हैं।
क्या उन्होंने कभी भी आपसे इन मुठभेड़ों के बारे में कोई सवाल पूछा?
कभी नहीं। देखो, इनको सबका बेनेफिट लेना होता है, दंगे हुए, मुस्लिम को मारा, फायदा लिया…
क्या आपके शाह साहब दोबारा गृह मंत्रालय में आएंगे?
नहीं, अब वे नहीं आ पाएंगे क्योंकि मुख्यमंत्री को उससे डर लगता है क्योंकि वो होम डिपार्टमेंट में बहुत लोकप्रिय हो गया था। वे सरकार की कमज़ोरी जानते हैं, इसलिए मुख्यमंत्री कभी नहीं चाहेंगे कि गृहमंत्री कोई ऐसा व्यक्ति रहे जो सब जानता हो।
तो क्या अब गृहमंत्री और मुख्यमंत्री के बीच बनती नहीं है?
नहीं, ये मुख्यमंत्री मोदी जो है, जैसे अभी आप बोल रहे थे, वो मौकापरस्त है। अपना काम निकाल लिया, सारा काम करवा लिया।
गंदे काम।
हां।
तो आपने इसके अलावा कितने एनकाउंटर किए हैं?
हम्म… दस के करीब शायद…
सारे अहम एनकाउंटर, क्या मैं जान सकती हूं?
नहीं नहीं।
(पत्रकार राणा अयूब ने मैथिली त्यागी के नाम से अंडरकवर रह कर गुजरात के कई आला अफसरों का स्टिंग किया था, जिसके आधार पर उन्होंने ”गुजरात फाइल्स” नाम की पुस्तक प्रकाशित की है। उसी पुस्तक के कुछ चुनिंदा संवाद मीडियाविजिल अपने हिंदी के पाठकों के लिए कड़ी में पेश कर रहा है। इस पुस्तक को अब तक मुख्यधारा के मीडिया में कहीं भी जगह नहीं मिली है। लेखिका का दावा है कि पुस्तक में शामिल सारे संवादों के वीडियो टेप उनके पास सुरक्षित हैं। इस सामग्री का कॉपीराइट राणा अयूब के पास है और मीडियाविजिल इसे उनकी पुस्तक से साभाार प्रस्तुत कर रहा है।)