संयुक्त राष्ट्र महासभा में 15 जून 2007 को महात्मा गाँधी की जयंती यानी 2 अक्टूबर को हर साल विश्व अहिंसा दिवस मनाने के प्रस्ताव पर मतदान हुआ। महासभा के सभी सदस्यों ने इसका समर्थन किया और तब से हर साल पूरी दुनिया 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस मनाती है। हिंसा से भरपूर दुनिया को बचाने में अहिंसा के महत्व का यह विश्वव्यापी स्वीकार था जिसका प्रचार बुद्ध और ईसा के बाद सबसे मुखर रूप से महात्मा गाँधी करते नज़र आते हैं।
लेकिन केंद्र और राज्यों में काबिज़ बीजेपी सरकारों के लिए गाँधी महज़ स्वच्छता के प्रतीक हैं। याद नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने गाँधी जी को याद करते हुए कभी भूलकर भी अहिंसा की बात की हो। गाँधी जी के हाथ में झाड़ू पकड़ाकर उनके चश्मे को स्वच्छता मिशन का प्रतीक बना दिया गया, लेकिन अहिंसा, सत्य और सर्वधर्म समभाव जैसी बातों के लिए सरकारी प्रचार में कोई जगह नहीं रही।
महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती पर भी यही किया गया है। केंद्र सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय की ओर से जारी विज्ञापन में कहीं अहिंसा, सत्य, या सद्भाव का जिक्र नहीं है। सबकुछ स्वच्छता मिशन को समर्पित है। मोदी जी की तस्वीर है जिसमें वे झाड़ू लगा कर स्वच्छता मिशन को सफल बना रहे हैं
यूपी की योगी सरकार का तो कहना ही क्या। उसके विज्ञापन में स्वच्छता, स्वदेशी, स्वरोजगार, स्वावलंबन जैसे भारी-भरहकम शब्द हैं। स्वच्छता को आदत बनाने की गांधी की अपील भी है, लेकिन भूलकर भी सत्य या अहिंसा जैसे शब्द नहीं है।
दिल्ली कैंट के एक कार्यक्रम में गाँधी जयंती पर रक्षामंत्री राजनाथ सिंह आमंत्रित हैं। यह भी पूरी तरह स्वच्छता को समर्पित है।
इसमें शक नहीं कि गाँधी जी स्वच्छता को महत्व देते थे, लेकिन यह उनकी मौलिक बात नहीं थी। शौच का महत्व हमेशा से रहा है। यहाँ तक कि छुआछूत जैसी बुराई के पक्षधर भी इसके मूल में स्वच्छता का ही तर्क देते रहे हैं। ऐसे में स्वच्छता को गाँधी की एकमात्र शिक्षा बताना विशुद्ध रूप से वैचारिक बेईमानी है। गाँधी की वैचारिक हत्या का अभियान।
शुक्र मनाइए कि मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को गाँधी के मूल विचारों की फ़िक्र है। दिल्ली में आयोजित गाँधी संदेश यात्रा के पोस्टरों में में बड़ा-बड़ा लिखा है- सत्य, अहिंसा और सर्वधर्म समभाव।
दरअसल, महात्मा गाँधी का भारतीय समाज को सबसे मौलिक योगदान ‘अहिंसा’ ही है, वरना तो यहाँ बिना अस्त्र-शस्त्र के देवी-देवताओं की भी कल्पना नहीं की गई थी। ऐसा नहीं कि इससे पहले अहिंसा की बात नहीं हुई। जैन और बौद्ध दर्शन में इसका पर्याप्त महत्व था, लेकिन अहिंसा को राजनीतिक-सामाजिक-नैतिक परिवर्तन का महामंत्र बनाने में जैसी सफलता गाँधी को मिली, वैसी किसी को नहीं मिली। इसी के दम पर उन्होंने एक ऐसे साम्राज्य को झुकने पर मजबूर कर दिया जो बम-बंदूक के दम पर शायद ही झुकाया जा सकता था। करोड़ों करोड़ लोग अहिंसा के रास्ते ही बर्तानी साम्राज्यवाद के सामने तन कर निर्भय खड़े होने का साहस कर सके। एक नए भारत का उदय हुआ।