गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों ने कहा- बच्चों को ले जाओ, शाम तक मर जाएँगे !
इस ‘बाल दिवस’ यानी 14 नवंबर को अगर देवरिया का प्रशासनिक अमला लार कस्बे के गयाधीर वार्ड में पशुपति राजभर घर जुटा तो वजह उसके दो बच्चे ही थे। न..न..मेहनत-मज़दूरी करने वाले पशुपति की सात साल की बेटी ख़ुशबू और दो साल के बेटे अजय ने कोई टैलेंट शो नहीं जीता था, न देश का नाम रोशन किया था, बस अपनी लाचार निगाहों से मजबूर पिता के लिए ‘आह’ और मज़बूत योगी-राज के लिए ‘हाय’ निकालते हुए मौत के मुँह में चले गए। वह भी सिर्फ़ दो घंटे के अंतराल में।
घटना 9 नवंबर की है। पाँच दिन बाद तमाम अधिकारी पशुपति के पास पहुँचकर उसका आधार और राशनकार्ड बनवाने का वादा कर रहे थे। कोटेदार से कहकर घर में 50-50 किलो गेहूँ और चावल रखवाया जा रहा, जिसका इंतज़ाम पशुपति कभी नहीं कर पाया। दरअसल, एक-आध अख़बारों ने कुपोषण और बीमारी से हुई इन मौतों की ख़बर छाप दी थी। विपक्ष हमलावर हो गया था और प्रशासन बैकफुट पर आकर कुपोषण की बात को झुठला रहा था, वरना योगी जी का रामराज दाग़दार हो जाता।
मीडिया विजिल आपको यह ख़बर, अपने सलाहकार मंडल के सदस्य और गोरखपुर न्यूज़लाइन के संपादक मनोज सिंह के सौजन्य से पहुँचा रहा है। संवेदना होती तो देश भर का मीडिया इसे बड़ा मुद्दा बनाता, लेकिन वह अयोध्या में व्यस्त है जहाँ मंदिर बनना है और जहाँ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दीवाली पर लाखों दिये जलाकर आये हैं। यह अलग बात है कि उनके शहर गोरखपुर का मेडिकल कॉलेज पशुपति के घर का चिराग़ बुझने से न बचा सका। जबकि मस्तिष्क ज्वर जैसी जटिलता नहीं, फ़क़त पीलिया का मसला था। लेकिन शायद उसकी रुचि बस इतनी थी कि बीमर बच्चे घर चले जाएँ, वरना मेडिकल कॉलेज में हुई मौतों का आँकड़ा बढ़ जाएगा।
पशुपति की कहानी सुनकर कलेजा मुँह को आता है। सोचिए, बेटी की लाश पड़ी हो और श्मशान की जगह, बीमार बेटे को बचाने के लिए बाप को किसी बड़े शहर की ओर भागना पड़े। फिर यह भी न हो पाए और बेटा भी दम तोड़ दे। महज़ दो घंटे मे एक पूरी दुनिया उजड़ गई, इसलिए कि लार, देवरिया से लेकर गोरखपुर तक के अस्पताल में पीलिया जैसी मामूली समझी जाने वाली बीमारी का इलाज नहीं हो सका। यह उत्तर प्रदेश की सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था का हाल है।
पशुपति ने अपनी रामकहानी कुछ यूँ सुनाई
“ हम तीन भाई हैं-पशुपतिनाथ, शंभूनाथ और त्रिलोकीनाथ। माता-पिता गुजर चुके हैं। तीनों भाई अलग-अलग रहते हैं। लार कस्बे के गयाधीर वार्ड में मेरा घर है। मै मजदूरी करता हूँ। आठ वर्ष पहले मेरी कृष्णावती से शादी हुई। शादी के एक वर्ष बाद बेटी खुशबू और उसके दो वर्ष बाद बेटे अजय का जन्म हुआ। इसके बाद मै मजदूरी करने गुड़गांव चला गया और वहाँ की अनाज मंडी में पल्लेदारी का काम करने लगा। वहाँ 200 से 300 रूपए कमाई होती थी। किराए पर कमरा लेकर रहता था। बाद में पत्नी और दोनों बच्चों को ले आया। किसी तरह जिंदगी कट रही थी। तीन वर्ष पहले कृष्णावती कहीं चली गई और तभी से उसका पता नहीं चला। मैं तो यही कहता हूं कि वह वह गुजर (मर) गई।
गुड़गांव में हमें मजदूरी तो मिल जाती थी लेकिन खर्च भी अधिक था। बच्चों की पढाई और उनकी देख-रेख नहीं हो पा रही थी। इसलिए लार वापस लौट आया और यहीं मजदूरी करने लगा। यहां आकर दोनों बच्चें का एडमिशन प्राईमरी स्कूल में करा दिया। लार की मंडी में ट्रक, पिकप से बोरे उतारने और लादने का काम करता था। एक बोरे की ढुलाई के तीन से चार रूपए मिलते थे। काम हर रोज नहीं मिलता था। कई बार कोई काम नहीं होता था। कई बार सुबह चार बजे ही काम पर निकलना पड़ता था। जाने के पहले बच्चों के लिए रोटी बना कर जाता था। कई बार उनके लिए भोजन तैयार नहीं कर पाता था और काम पर भागना पड़ता था। तक उन्हें कुछ पैसे दे जाता और वे दुकान पर कुछ खा लेते। शाम को लौटता तो उनके लिए भोजन का इंतजाम करता। यह सब व्यवस्था करने में बहुत मुश्किल हो रही थी।
अक्टूबर में दोनों बच्चे बीमार पड़े। उन्हें बुखार हुआ। मै उन्हें 16 अक्टूबर को सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र लार ले गया जहां उन्हें पीलिया बताया गया और इलाज के लिए देवरिया जिला अस्पताल ले जाने की सलाह देते हुए दवाइयां दी गईं। दवाइयों से उन्हें आराम नहीं मिला तो 3 नवम्बर को खूश्बू (7 वर्ष ) और अजय (5 वर्ष ) को लेकर देवरिया जिला अस्पताल गया। वहां उन्हें भर्ती नहीं किया गया और बीआरडी मेडिकल कालेज ले जाने को कहा गया।
मेरे पास पैसा नहीं था। कस्बे के एक साहूकार से दस रूपया सैकड़ा ब्याज़ पर 30 हजार रूपया कर्ज लिया। सगे-सम्बन्धियों और जानने वालों से भी कुछ पैसा लिया और 3 नवम्बर को देवरिया से बस से गोरखपुर पहुंचा। मै अकेला था। शाम को बीआरडी मेडिकल कालेज पहुंचा। वहाँ बच्चों को वार्ड नम्बर 12 में भर्ती किया गया। एक दिन बाद उन्हें आक्सीजन वाले कमरे में ले जाया गया। नाक में नली लगी थी। दवा चल रही थी लेकिन डॉक्टरों ने नहीं बताया कि बच्चों को क्या हुआ है। अजय और खूशबू का पेट फूल गया था। मै अकेला उनकी देखभाल कर रहा था। आठ नवम्बर को मेरी बहन मीरा भी मेडिकल कालेज आ गई। मेडिकल कालेज में कुछ दवाइयां मिल रही थीं और कुछ बाहर के दुकानदारों से खरीदनी पड़ रही थी।
नौ नवम्बर की सुबह डॉक्टरों ने कहा कि बच्चों की हालत खराब है। उन्हें घर ले जाओ। शाम तक मर जाएंगे। घर ले जाओ। हमने उनसे एम्बुलेंस दिलाने को कहा लेकिन सरकारी एम्बुलेंस नहीं मिली। तब भाड़े के एम्बुलेंस लेकर बच्चों को घर लाया। मेडिकल कालेज से मुझे कोई कागज नहीं मिला।
घर पहुंचा तो तक डेढ बज चुके थे। घर आने के बाद दोनों की हालत और खराब हो गई। बच्चे बेहोशी की स्थिति में थे। मै उन्हें सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र लार ले गया। वहां के डॉक्टर ने कहा कि पीजीआई ले जाओ। मेरी स्थिति नहीं थी कि पीजीआई ले जा सकूँ। मै बच्चों को फिर देवरिया लेकर चला कि वहां से सरकारी गाड़ी मिल जाएगी तो पीजीआई चला जाउँगा लेकिन जिला अस्पताल के गेट तक पहुंचते-पहुंचते बेटी की सांस टूट गई। उस समय शाम के छह बज रहे थे।
देवरिया जिला अस्पताल से बेटी का शव और बीमार बेटे को लेकर घर आया। बेटी का शव घर में रख दिया और भाइयों से उसका अंतिम संस्कार करने को कह कर ऑटो से बेटे अजय को लेकर लार रोड स्टेशन पहुंचा। साथ में बहन और चाचा-चाची भी थे। हम अजय को बनारस ले जाना चाहते थे। स्टेशन पहुंच कर मै टिकट कटाने लगा तभी अजय की भी साँस टूट गई। दो घंटे में दोनो बच्चे मर चुके थे। रोते-बिलखते बेटे का शव लेकर घर आया और उसी रात दोनों बच्चों को दफना दिया।
मै क्या जानता हूं कि बच्चे कैसे मरे। न डॉक्टरों ने कुछ बताया न कोई रिपोर्ट दी। बच्चे बीमार थे और उन्हें देख मेरा दिमाग खराब था। इलाज और दौड़-धूप में 35-40 हजार रूपए खर्च हो गए। मेरे पास राशन कार्ड नहीं है। वर्ष 2011 में इंदिरा आवास मिला था। ”
यह कहानी उस भयावहता को सामने रखती है जिससे ग़रीबों को ग़ुज़रना पड़ता है। एक ग़रीब आदमी ब्याज़ पर क़र्ज़ लेकर अपने बच्चों की जान बचाने की कोशिश करता है, लेकिन गोरखपुर मेडिकल कॉलेज के डॉक्टर इलाज करने के बजाय घर भेज देते हैं क्योंकि बच्चे ‘मरने वाले’ हैं।
यह कहानी भी हज़ारों दूसरी कहानियों की तरह दफ़्न हो जाती लेकिन अब सामने है तो विवाद इस बात पर हो रहा है कि बच्चे कुपोषण से मरे या नहीं, जैसा कि कुछ अख़बारों ने छापा। प्रशासनिक अमले का सारा ज़ोर यह साबित करने पर है कि कुपोषण से मौत नहीं हुई। गोया बीमारी से बच्चों का मरना कोई ख़ास बात नहीं है।
वैसे, पिछले दिनों बच्चों का एडमीशन एक स्कूल में हुआ था, जहाँ मिड डे मील मिलता था। यानी पेट में अन्न ज़रूर रहा होगा। लेकिन क्या इतने भर से पोषण संभव है। जब पर्याप्त भोजन नहीं मिलता तो बीमारियाँ आसानी से चपेट में लेती हैं और मृत्युप्रमाणपत्र में उनका ही ज़िक्र होता है।
इस कहानी से यह भी साफ़ है कि आधार नंबर की अनिवार्यता ग़रीबों पर कैसा कहर ढा रही है। आधार न होने की वजह से पशुपति का राशनकार्ड नहीं बना था और राशनकार्ड न होने से कोटे का अनाज भी नहीं मिलता था। अब जब दो बच्चों की जान चली गई है तो प्रशासन मेहरबानी दिखा रहा है।
ख़ुशबू और अजय की तस्वीरें हमें स्कूल की शिक्षिका प्रियंका जी के सौजन्य से प्राप्त हुईं। स्कूल में लाइन में खड़े इन बच्चों के चेहरे पर तस्वीर में गोला लगा हुआ है। उनकी यही निशानी पशुपति के पास बची है।
जो कहीं नहीं बची है वह शर्म है। शासन में भी, प्रशासन में भी। उनमें भी जो करोड़ों फूँककर लाखों दिये जलाने को रामराज बताते हैं। अस्पताल में बच्चों के लिए दवा और ग़रीबों के घर में राशन हो चाहे न हो।