“बहादुरी कोई दिखावे की चीज़ नहीं है”! बच्‍चों के लिए ‘द लायन किंग’ का अहम सबक



नवउदारवाद के घोड़े पर सवार ग्लोबल दुनिया में चौड़ी होती सड़कों और तेज़ रफ़्तार वाहनों और सूचना प्रौद्योगिकी के भयावह प्रसार के बीच यदि कोई चीज़ निरंतर संकुचित होती जा रही है तो वह है बच्चों की दुनिया. देखिए अपने आसपास, स्मार्ट होने का दावा करने वाले अत्याधुनिक शहरों में बच्चों के लिए कोई जगह ही नहीं बची है. ऐसा लगता है कि हमारे शहरों में अनियमित रूप से फैलती जा रही कालोनियां, जो कभी नदी के मुहाने तक पहुंच जाती हैं तो कभी शहर के मृत्प्राय किसी पुराने तालाब पर कुकुरमुत्ते की तरह उग आती हैं, उनमें शहर के विकास के उस मॉडल को तिलांजलि दे दी गई है जिसमें कोलोनी के बीचोबीच एक पार्क हुआ करता था.

बहुत दिन हुए किसी बच्चे को चंपक, बालहंस, नंदन इत्यादि पकड़े हुए देखे. पिछले दशक में दुनिया यदि किसी के प्रति बेहद निर्मम रही है तो वे हैं बच्चे. सूचना और मनोरंजन के नित नए आविष्कारों से अद्यतन होती दुनिया में बच्चों का मनोरंजन सबसे अधिक हाशिये पर ढकेल दिया गया है. इसी के परिणामस्वरूप हम समाज में यह भयंकर बदलाव के लक्षण देख रहे हैं कि बच्चों में बचपन समाप्त हो रहा है. और वे भी अपने अभिभावकों और घर के अन्य वयस्क सदस्यों के साथ वो भोंडापन देखने को विवश हैं जो मनोरंजन के नाम पर प्रस्तुत किया जा रहा है.

ऐसे समय में जब कोई फ़िल्म आती है जो बच्चों के मनोरंजन के लिए है तो ये संतोष की बात है. कम से कम कोई फ़िल्मकार बच्चों की दुनिया को बचाए रखने के लिए गम्भीर है. ‘द लायन किंग’ कई प्रतीकों के माध्यम से बच्चों को सकारात्मक संदेश भी देती है और उन्हें जी भर के हंसाती भी है और भावुक भी करती है यानि कुल मिलाकर उनकी मानवीय संवेदनाओं को जागृत करने का प्रयास करती है. यह फ़िल्म बच्चों के बहाने उनके अभिभावकों से भी शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व, सहिष्णुता और परिवार के ढांचे को लेकर संवाद करती है.

यूं तो फ़िल्म का कथानक एक आम साधारण सी दादी-नानी की कहानी की तरह ही है जिसमें बब्बर शेर जंगल (गौरवभूमि) का राजा है (मुफ़ासा), उसका एक बेटा है (सिंबा) जिसे पता है कि वह आने वाले समय में जंगल का राजा बनेगा, उसका एक कुनबा है जिसमें उसकी रानी भी है. लेकिन महत्वपूर्ण है फ़िल्म का प्रस्तुतीकरण.

कहानी कुछ यूं है कि मुफासा एक न्यायप्रिय और करुणामयी राजा है जो जंगल में अनियमित शिकार के विरुद्ध है और जो यह मानता है जंगल के सभी प्राणी एक दूसरे पर परस्पर निर्भर हैं और जंगल में सह-अस्तित्व है. किसी एक के भी अनियंत्रित शिकार से सभी प्राणियों के अस्तित्व पर ख़तरा है. उसका एक भाई है ‘स्कार’ जो सत्ता का महत्वाकांक्षी है. और इसीलिए वो लक़ड़बग्‍घों, जो शिकार के लालची हैं और जो शिकार पर नियंत्रण रखने के आदेश के विरुद्ध हैं, की सहायता से सत्ता हड़पने के लिए साज़िश रचता है जिसमें वह सफल भी हो जाता है.

मुफ़ासा को मारकर वह सिंबा को जंगल छोड़ने पर मजबूर कर देता है और गौरवभूमि पर लक़ड़बग्‍घों का आतंक छा जाता है और वे जंगल की सम्पत्ति का अनियंत्रित दोहन शुरू कर देते हैं. और अंत में सिंबा किस प्रकार गौरवभूमि को स्कार और लक़ड़बग्‍घों से आज़ाद कराता है. यही फ़िल्म की कहानी है.

कहने को तो ये फ़िल्म बच्चों के लिए है लेकिन प्रतीकों के माध्यम से ऐसी बातों की ओर इशारा किया गया है जिस ओर बड़ों को ध्यान देना चाहिए. मसलन, पूंजीवादी लोकतंत्र में भी सत्ता हथियाने के लिए हमारे यहां भी नेता जो ख़ुद को शेर कहलाना पसंद करते हैं, लक़ड़बग्‍घे रूपी पूंजीपतियों की फ़ौज का सहारा लेते हैं और सत्ता हासिल करने के बाद लक़ड़बग्‍घों को मिलती है लूट की खुली छूट और शुरू हो जाती है गौरवभूमि रूपी देश के संसाधनों की अंधी लूट, जिसमें गौरवभूमि के संसाधन पूंजीपतियों के अंधे कुएं रूपी पेट में समाते जाते हैं.

एक ऐसे दौर में जब दुनिया के कई देश अपने नेता की छद्म बहादुरी पर मोहान हैं और विश्व के बहुतेरे नेता ख़ुद अपनी वीरता का अश्लील प्रदर्शन कर रहे हैं, उस दौर में कोई फ़िल्म बच्चों को सिखा रही है कि “बहादुरी दिखावे की चीज़ नहीं है”, तो यह पर्याप्त उत्साह की बात है. मुफ़ासा को आवाज़ दी है शाहरुख़ खान ने जबकि मुफासा के बेटे सिंबा को आवाज़ दी है शाहरुख़ के बेटे आर्यन ने. आशीष विद्यार्थी और असरानी ने भी अपनी वाणी से किरदारों को जीवंत बनाया है.

कुल मिलाकर फ़िल्मकार जॉन फ़ेवरी की बच्चों की दुनिया और उनके बचपन को बचाए रखने की यह एक बेहद ईमानदार कोशिश है और आपको इसे अपने बच्चों के साथ अवश्य देखना चाहिए.