पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों के बाद इवीएम पर गंभीर सवाल उठे। बसपा सुप्रीमो मायावती ने चुनाव रद्द करके बैलेट पेपर आधारित चुनाव कराने की मांग कर डाली। सोशल मीडिया में कई वीडियो, रिपोर्ट इत्यादि वायरल है, जिनमें बताया गया है कि इवीएम का दुरूपयोग कैसे होता है। कई देशों में इवीएम का उपयोग बंद कर दिये जाने संबंधी जानकारियां भी प्रचारित की जा रही हैं।
इवीएम के दुरूपयोग के आरोप पहली बार नहीं लगे हैं। खुद भाजपा के प्रमुख नेताओं से लेकर लगभग सभी दलों ने समय-समय पर इवीएम के खिलाफ मोरचा खोला है। भाजपा के बौद्धिक-कानूनी सेनापति डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने तो इवीएम के खिलाफ अनवरत अभियान चलाया और अदालतों में भी चुनौती दी। इवीएम के दुरूपयोग पर एक पुस्तक की भूमिका भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी। पंजाब के कांग्रेस नेता अमरिंदर सिंह भी एक समय इवीएम के खिलाफ जोरदार अभियान चला चुके हैं। रामविलास पासवान, ममता बनर्जी, लालू यादव से लेकर सीपीआइ-सीपीएम नेताओं द्वारा भी इवीएम के दुरूपयोग के आरोप लगाए जा चुके हैं।
हमारे देश में इवीएम का उपयोग सबसे पहले वर्ष 1982 में केरल में एक विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव में प्रयोग के तौर पर कुछ बूथों पर हुआ था। इवीएम का सीमित उपयोग लोकसभा और विधानसभा चुनावों में वर्ष 1999 से होना शुरू हुआ। 2004 में लोकसभा चुनाव पूरी तरह इवीएम से हुआ था। उसके बाद सारे चुनाव इवीएम द्वारा कराए जा रहे हैं। इवीएम के दुरूपयोग के आरोप के आलोक में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर पालयट प्रोजेक्ट के तौर पर एक ट्रेकिंग सिस्टम का प्रयोग भी किया गया है।
बहरहाल, यह आलेख इवीएम के दुरूपयोग की संभावना से इंकार नहीं करता। किसी इलेक्ट्रोनिक प्रणाली में ऐसी छेड़छाड़ करना बेहद आसान है। फिर, हमारे देश में विभिन्न संवैधानिक या स्वायत्त संस्थाओं के बेरीढ़ लोगों द्वारा कठपुलती की तरह काम करने का इतिहास सत्तर साल पुराना है। इसलिए ऐसे आरोपों पर सहज ही भरोसा किया जा सकता है। लिहाजा, तकनीकी और संस्थागत तौर पर इवीएम का दुरूपयोग बेहद आसान और संभव है। लेकिन इस आलेख में हम चुनाव परिणामों के आलोक में इवीएम पर चर्चा करेंगे।
वर्ष 2004 में जब पहली बार लोकसभा का पूरा चुनाव इवीएम द्वारा हुआ, तब केंद्र में वाजपेयी जी के नेतृत्व वाली राजग सरकार थी। लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार आ गई। कांग्रेस के कार्यकाल में 2009 में लोकसभा चुनाव हुए और फिर कांग्रेस की सरकार बनी। उस वक्त भाजपा सहित अन्य दलों ने इवीएम के दुरूपयोग के आरोप लगाए। लेकिन 2014 के चुनाव में कांग्रेस को भारी पराजय का मुंह देखना पड़ा और मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन गई।
अब पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा को उत्तरप्रदेश की 403 में से 324 सीटें मिली हैं। बहन मायावती के अनुसार यह इवीएम का कमाल है। मायावती का आरोप सही या गलत हो सकता है। लेकिन एक दिलचस्प सवाल बनता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में इसी उत्तरप्रदेश की 80 में से 73 सीटें भाजपा को कैसे मिल गईं? कुल सीटों की लगभग नब्बे प्रतिशत। क्या वह भी इवीएम का कमाल था? उस वक्त तो केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी और प्रदेश में अखिलेश की समाजवादी सरकार। अगर उस परिणाम को वास्तविक समझा जाए, तो वर्तमान नतीजा भी स्वाभाविक लगता है। जिसे लोकसभा की 80 में से 73 सीट मिल रही हो, उसे गणित के मुताबिक विधानसभा की 403 सीटों में 350 से भी ज्यादा सीट मिलनी चाहिए थी।
अगर इवीएम ने उत्तरप्रदेश में कमाल किया है, तो पंजाब में क्यों नहीं किया? वहां तो राज्य में भी अकाली दल और भाजपा की सरकार थी। भाजपा के लिए प्रशासनिक मशीनरी का दुरूपयोग करना पंजाब में ज्यादा आसान था। लेकिन पंजाब में भाजपा महज तीन सीटों पर सिमट गई। गोवा में भी अपनी राज्य सरकार होने के बावजूद भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। यानी उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा की सरकार नहीं होने के बावजूद भाजपा जीत गई। जबकि पंजाब और गोवा में अपनी सरकार होने के बावजूद हार गई। ऐसे परिणम इवीएम दुरूपयोग सिद्धांत को कमजोर करते हैं।
अब उत्तरप्रदेश के चुनावी मैदान पर भी थोड़ी चर्चा कर लें। सच तो यह है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा के लिए खुला मैदान था। बसपा एक नेत्री की व्यक्तिगत पार्टी है और सपा एक परिवार की। जाति विशेष के वोट बैंक ने दोनों को चरम दरजे के अहंकार और मूर्खता का शिकार बना रखा है। दोनों में लोकतंत्र या संगठन का कोई मतलब नहीं। व्यक्तिगत सनक और मनमानी है। दोनों के लिए वोटर और कार्यकर्त्ता बंधुआ मजदूर हैं। हद तो तब हुई जब इटावा के पहलवान परिवार ने ऐन चुनाव के मौके पर घरेलू कुश्ती शुरू कर दी। कुछ लोग तो इसे भी मुलायम की सुविचारित नीति और ‘स्क्रिप्टेड’ बताकर लहालोट थे। पार्टी के विभाजन का दावा चुनाव आयोग में कर दिया गया। चुनाव चिन्ह भी खतरे में पड़ गया। गनीमत यही है कि चुनाव आयोग ने स्वतंत्र निर्णय लेकर साइकिल लौटा दी, वरना यह कुश्ती और महंगी पड़ती।
कांग्रेस और सपा का अचानक गंठबंधन भी बेमेल और अनैतिक था। जनता को मूर्ख समझ लिया है इन लोगों ने। कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश में चुनाव की तैयारी सपा के खिलाफ प्रचार से की थी। नारा दिया- ‘सत्ताइस साल, यूपी बेहाल।‘ लेकिन अचानक सपा के साथ कांग्रेस ने गंठबंधन करके राजनीतिक अवसरवाद का परिचय दिया।
अन्य कोई भरोसेमंद राजनीतिक विकल्प उत्तरप्रदेश में था ही नहीं। वामपंथी ताकतें हाशिये पर हैं। जबकि उग्रराष्ट्रवाद की चाशनी में हिंदुत्व के नारों और आतंकवाद के भय के मिश्रण से पैदा अंधभक्तों की नई फसल हर तरफ लहलहाती साफ दिख रही है। हर हाल में सत्ता के भागीदार रहे सवर्णों, कारपोरेट और पेड-मीडिया का पोस्टर ब्वॉय मोदी ही है। रही-सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है जिसने तमाम झूठ-अफवाह और नफरत के व्यापक प्रसार को बेहद आसान कर दिया है।
आत्ममुग्धता से निकलकर कोई इन चीजों को देखे तो उत्तररप्रदेश का परिणाम स्वाभाविक दिखेगा। मैं बस इतना जोड़ना चाहूंगा कि अगर इवीएम ने 324 सीटें दिलाई हैं तो बैलेट पेपर से 360 सीटें मिलतीं।
इसलिए शर्मनाक पराजक के बाद इवीएम में मुंह छुपाने के बजाय अपनी राजनीति पर नजर दौड़ाएं, तो संभव है कि कल इसी एवीएम के खिलाफ खुद भाजपा ही एक बार फिर अभियान शुरू कर दे।
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पुनश्च : यूपी चुनाव के पहले लिखी मेरी इस टिप्पणी को फिर से पढ़ना भी प्रासंगिक होगा-
“मुलायम-अखिलेश दंगल को सुविचारित या स्किप्टेड वही समझेगा, जिसे राजनेताओं के अहंकार, आत्मकेंद्रितता, चरम स्वार्थ, आत्मघाती मूर्खता की हद तक सनकी और जिद्दी होने इत्यादि को लेकर संदेह हो।
यह न भूलें कि दोनों तरफ से तनातनी इस चरम आत्मघाती दौर तक पहुँच गई थी, कि इनकी सबसे बड़ी पूँजी, यानि चुनाव चिह्न साइकिल ही दांव पर लग गई थी। लेकिन खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान की तर्ज पर साईकिल अखिलेश को मिल गई। इससे संतुलन उनके पक्ष में चला गया। कल्पना करें, अगर चुनाव आयोग ने साईकिल जब्त कर ली होती तो सपा के दोनों धड़े अलग-अलग बिखरे और कमजोर होते। ऐसे में दोनों पक्ष का मनोबल गिरा होता और चरम बर्बादी के सिवाय कुछ न मिलता। तब आज जो लोग इन्हें सुविचारित या स्क्रिप्टेड कहकर लहालोट हैं, वही लोग इसे मूर्खतापूर्ण अहंकार बताकर कोसते।”
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)