एनकाउंटर प्रदेश: जहां तीन माह पुराने NHRC के नोटिस पर लदते जा रहे हैं लाशों के ढेर!



अभी फरवरी चल रही है। योगी आदित्‍यनाथ के उत्‍तर प्रदेश का मुख्‍यमंत्री बनने के बाद 20 मार्च 2017 से लेकर 31 जनवरी 2018 तक उत्‍तर प्रदेश पुलिस ने कुल 1142 मुठभेड़ यानी एनकाउंटर किए हैं। यह सामान्‍य जानकारी है कि जिसे पुलिस की भाषा में मुठभेड़ कहते हैं वह विरले ही स्‍वयं स्‍फूर्त होता हो। सचेतन हत्याओं से लेकर हिरासत में मौतें और किस्‍म-किस्‍म के मानवाधिकार उल्‍लंघनों को एनकाउंटर का नाम दे दिया जाता है। पुलिस के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक बीते दस माह में हुई इन मुठभेड़ों में कुल 38 लोग मारे जा चुके हैं। पुलिस इन सभी को गुंडा या बदमाश कहती है। यूपी में अपराधियों को ‘लिक्विडेट’ करने के लिए पहली बार नीति कल्‍याण सिंह के काल में बनी थी जब एसटीएफ को गठित किया गया। उसक बाद राजनाथ सिंह जब मुख्‍यमंत्री बने तो उन्‍होंने इसे जारी रखते हुए ‘एक के बदले दस मारने’ की बात कही। दलित और पिछड़ा पृष्‍ठभूमि से होने के बावजूद यूपी में मायावती और मुलायम सिंह की सरकारों के कार्यकाल में मुठभेड़ की नीति नहीं बदली। रिहाई मंच के नेता शाहनवाज़ आलम ने पिछले दिनों नवभारत टाइम्‍स में लिखा था कि राष्‍ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2002 से 2013 के बीच देश में हुई कुल 1788 मुठभेड़ हत्‍याओं में 743 अकेले यूपी में हुईं जिनमें समाजवादी सरकार के खाते में 431 और मायावती सरकार के खाते में 261 हत्‍याएं हैं।

इस व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य में देखें तो एनकाउंटर में हो रही हत्‍याओं को केवल पुलिस-प्रशासन का मामला नहीं माना जा सकता बल्कि यह स्‍टेट की एक सायास और सचेत ‘नीति’ है। य‍ह कानून व्‍यवस्‍था का मामला नहीं है बल्कि एक राजनीतिक और विचारधारात्‍मक मसला है। कुछ मीडिया प्रतिष्‍ठान इस संकट उसके मूल में न समझ कर अपने एजेंडे के मुताबिक इसे मज़हबी रंग देने में लगे हुए हैं। हाल में वेबसाइट दि वायर पर नेहा दीक्षित ने मुठभेड़ों में मारे गए 14 लोगों के परिवारों से मुलाकात कर के एक स्‍टोरी लिखी है। इन 14 में से 13 मुसलमान हैं जिससे ऐसा लगता है कि योगी सरकार में ज्‍यादातर मुसलमान मारे जा रहे हैं, जबकि यह बात आंशिक सच है। पिछड़ा, दलित से लेकर राजपूत तक हत्‍याएं सबकी हो रही हैं। आंकड़ों पर जाएं तो मुसलमानों के मुकाबले ज्‍यादा हिंदुओं की हत्‍या हुई् है। सच यह है कि एनकाउंटर मौतों का मुद्दा बुनियादी मानवाधिकार का मुद्दा है। सीमा आज़ाद का यह लेख मानवाधिकार के नजरिये से इस मसले को देखने की एक कोशिश है।

(संपादक)


सीमा आज़ाद

 

इस साल की शुरूआत में ही इस खबर ने देश भर के मानवाधिकार कर्मियों को विचलित कर दिया कि उत्तर प्रदेश में नई सरकार के बनने के बाद 20 मार्च 2017 से 10 माह के भीतर कुल 921 मुठभेड़ें हो चुकी हैं, जिसमें 33 मौतें हुई हैं। ये मुठभेड़ें उत्तर प्रदेश पुलिस और कथित अपराधियों के बीच हुई हैं, जिसमें कथित तौर पर अपराधी मारे गये हैं। इन मुठभेड़ों के लिए 2017 के 22 नवम्बर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी किया, जिसमें उसने पिछले  छः महीनों में सरकार द्वारा मुठभेड़ में मारे गये 19 लोगों के बारे में जवाब मांगा। इसके बावजूद नये साल की शुरूआत तक मुठभेड़ में हुई मौतों के आंकड़े 29 तक पहुंच गये। फरवरी मध्य तक ये आंकड़े न सिर्फ 40 तक पहुुंच गये, बल्कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने 15 फरवरी को विधान परिषद में यह घोषणा कर दी कि उप्र में इन्काउण्टर जारी रहेंगे। यह न सिर्फ मानवाधिकार कर्मियों के लिए बल्कि समूचे समाज के लिए बेहद चिन्ताजनक है। यह इस बात की घोषणा है कि उत्तर प्रदेश में कानून का राज समाप्त हो चुका है और आदिम बर्बर राज लौट आया है।

प्रत्येक सभ्य और लोकतान्त्रिक देश में अपराध और अपराधियों से निपटने के लिए कानून बनाये गये हैं। अपराधियों से निपटने के लिए तथा अपराधों को रोकने के लिए पुलिस प्रशासन से यह अपेक्षा की जाती है कि वह संविधान की रोशनी में बनाये गये कानूनों के अर्न्तगत ही अपराधियों से निपटेगी, इससे इतर नहीं। यदि वह अपराधियों को पकड़ने में कानून का उल्लंघन करती है, तो उसे खुद अपराधी माना जायेगा, तथा इसके लिए उसके खिलाफ कार्यवाही की जायेेगी। इसे यूं कहना अधिक ठीक है कि समाज या देश के कानूनों का उल्लंघन करने वाले अपराधी हैं, लेकिन उन्होंने कानून का उल्लंघन किया है या नहीं, या यह उल्लंघन किस स्तर का है, इसके लिए अदालत में उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उचित सजा दिलायी जा सकती है। सरकार का यह फर्ज है कि वह राज्य में कानून के इस राज को बनाये रखने का काम करे। लेकिन उत्तर प्रदेश की मौजूदा सरकार इस मायने में खुद अपराधी की भूमिका में आ गयी है कि वह न सिर्फ गैरकानूनी तरीकों से तथाकथित अपराधियों से निपट रही है, बल्कि मानवाधिकार आयोग की नोटिस और विपक्ष के विरोध के बावजूद संविधान की शपथ लेने वाले सदन के अंदर यह घोषणा कर रही है कि ‘अब तक 1200 एनकाउण्टर राज्य में हो चुके हैं, जिनमें 40 लोग मारे जा चुके हैं और यह सिलसिला आगे भी जारी रहेगा।’ इतना ही नहीं, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने इन गैरकानूनी हत्याओं को स्वीकार करते हुए आगे यह भी कहा है कि ‘इन इनकाउण्टरों ने मारे गये अपराधियों का समर्थन करने वाले और इन इनकाउण्टरों का विरोध करने वाले लोग लोकतन्त्र के लिए खतरनाक हैं।’

वाट्सएप पर प्राप्त तस्वीर

मुख्यमंत्री का यह बयान बेहद आपत्तिजनक, हिंसक, आपराधिक और गैरकानूनी है। उन्होंने अपने बयान में बिना मुकदमा खुद न्यायाधीश बनकर लोगों को अपराधी बना दिया और मौत की सजा भी दे दी, यदि ये सचमुच अपराधी हैं तो भी संविधान और कानून कहता है कि ‘किसी भी व्यक्ति का जीवन सिर्फ कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया से ही छीना जा सकता, उसके अलावा नहीं।’ लेकिन मुख्यमंत्री ने न केवल कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन किया, बल्कि आगे भी इस गैरकानूनी काम को करने के लिए पुलिस वालों को खुली छूट दे दी। इसके साथ ही इसके खिलाफ बोलने वाले लोगों को ‘लोकतन्त्र के लिए खतरा’ बता कर उनके प्रति भी अपनी मंशा जाहिर कर दी, यानि ये लोग भी ‘लोकतन्त्र विरोधी’ होने के आरोप में कभी भी मारे जा सकते हैं या जेलों में ठूंसे जा सकते हैं। तर्क यह भी दिया जा रहा है कि मारे गये लोगों पर कई मुकदमे दर्ज थे। यदि यह सच भी है, तो किसी पर मुकदमें दर्ज होने भर से ही वह अपराधी नहीं हो जाता, अदालत में उसका दोष भी साबित होना होता है। यदि किसी पर मुकदमा दर्ज होने भर से कोई व्यक्ति मृत्युदण्ड पाने लायक अपराधी हो जाता है, तो खुद मुख्यमंत्री आदित्यनाथ पर ही सैकड़ों मुकदमे दर्ज हैं। सत्ता में आने के पहले ही साल में उन्होंने खुद पर लगे मुकदमों को वापस लेकर एक नया अपराध भी कर डाला।

उल्लेखनीय है कि इन मुठभेड़ों में कई मुठभेड़ें ऐसी है, जिसकी विश्वसनीयता पर गंभीर सन्देह है यानि ये एनकाउण्टर वास्तविक न होकर पुलिस द्वारा ठण्डे दिमाग से की गयी हत्या है। जनवरी में नोएडा के एक जिम ट्रेनर को ऐसे ही कथित मुठभेड़ में दरोगा द्वारा गोली मारने की सच्चाई यानि मुठभेड़ के फर्जी होने की बात जब सामने आयी तो बाकी मुठभेड़ों पर भी सवाल खड़े हुए। वायर ने  भी मारे गये लोगों के बारे में छान-बीन कर इन मुठभेड़ों को झूठा बताया है। समाचार पत्र ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ के 12 जनवरी के अंक में  उस समय तक 921 मुठभेड़ों में मारे गये 30 लोगों का ब्यौरा दिया गया है, जिसे पढ़ने से मुख्य तौर पर तीन बातें स्पष्ट होती हैं-

1- मुठभेड़ के इन सभी मामलों में पुलिस जांच में मुठभेड़ में शामिल लोगों को क्लीन चिट दी जा चुकी है, लेकिन सभी मुठभेड़ों में न्यायिक जांच अभी भी लम्बित है। जिसमें सरकार की कोई रुचि नहीं है। लेकिन इन रिपोर्टाे के आ जाने के बाद, उसके आधार पर ही इन्हें मुठभेड़ माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। यानि सभी मामले संदिग्ध हैं।

2- मारे गये सभी 30 लोगों पर अनेक मुकदमें दर्ज थे, जिनमें अधिकतर लूट के हैं, कुछ हत्या के भी। इनमें से अधिकांश मामले यदि अदालत में लाये जाते तो किसी में भी कानूनन सजा मृत्युदण्ड नहीं होती। लेकिन मुख्यमंत्री ने इन सभी लोगों को गध्गैरकानूनी तरीके से मृत्युदण्ड देने वाले पुलिसकर्मियों की पीठ ठोंकते हुए कहा है कि ‘इनकाउण्टर होते रहेंगे और इन हत्याओं का विरोध करने वाले लोग लोकतन्त्र के लिए खतरा हैं।

3- इन मुठभेड़ों में की गयी हत्याओं के लिए पुलिस वालों को 5000 से लेकर 1 लाख तक की राशि सरकार की ओर से देकर पुरस्कृत किया गया है। वास्तव में न्यायेतर हत्या के लिए पुलिसकर्मियों को पुरस्कृत करना लोकतन्त्र के लिए खतरा है। वास्तव में पुरस्कार तो उन पुलिसकर्मियों को दिया जाना चाहिए, जो शातिर अपराधियों को गिरफ्तार कर कोर्ट से सजा दिलवायें, न कि उन्हें अदालत ले जाने के पहले ही मार दें। इन हत्याओं के लिए तो पुलिसवालों पर मुकदमा दर्ज होना चाहिए, जैसा कि मुठभेड़ों के मामलों में सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी है।

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वास्तव में किसी भी हत्या का जश्न मनाना लोकतन्त्र के लिए खतरा है। यह बर्बर होते समाज की पहचान है और यदि कोई सरकार ऐसा करती है, वह भी पहले से मौजूद कानून का उल्लंघन करके, तो यह और अधिक खतरनाक है। यह फासीवाद है, जहां लोकतन्त्र की सभी संस्थायें, सारे स्तंभ एक व्यक्ति या व्यक्तियों के एक समूह में केन्द्रित हो जाते हैं। इन गैरकानूनी हत्याओं और मुठभेड़ों के खिलाफ बोलने वालों को मुख्यमंत्री अपराधियों का समर्थक बताकर बदनाम करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि वे ऐसा प्रचार कर अपने अपराध को छुपाने का ही नहीं, बल्कि उसे महिमामण्डित करने का भी प्रयास कर रहे हैं। यह इस सरकार की खास कार्यशैली है कि वह अपने आपराधिक कृत्यों को बहादुराना कृत्य के रूप में प्रस्तुत करती हैं।

इसके पहले भी मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ‘गोली की भाषा समझने वालों का जवाब गोली से देने’ का ऐलान कर चुके हैं। उनसे आगे बढ़कर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ‘एक के बदले दस मारने’ की खुली छूट दे चुके हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा के पहले शासनकाल में कल्याण सिंह भी ऐसी ही असंवैधानिक घोषणा कर आज संवैधानिक पद पर विराजमान हैं। यह सरकारी तंत्र में बैठे लोगों की संवैधानिक भाषा नहीं है, बल्कि यह तो सामंती समाज के सवर्ण गुण्डों की असंवैधानिक भाषा है। यदि पूरा समाज इसी डगर पर चल पड़ा, तो बचा-खुचा लोकतन्त्र का खत्म होना अवश्यंभावी है, इसलिए अब जबकि उत्तर प्रदेश ‘इनकाउण्टर प्रदेश’ में बदल चुका है, यह सोचना और समझना बहुत जरूरी है कि लोकतन्त्र के लिए क्या खतरनाक है, क्या नहीं।


सीमा आजाद इलाहाबाद से दस्तक पत्रिका निकालती हैं और मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.