हनीप्रीत कवरेज : ‘मुर्दा’ दर्शक और कुत्सा का कारोबार करता क्रूर मीडिया !



आशुतोष तिवारी

 

हनीप्रीत पर हुई पत्रकारिता दर्शक पर सवाल उठाती है 

हनीप्रीत से जुडी हर किस्म की बातें हर माध्यम पर लिखी जा चुकी हैं। सोशल मीडिया से लेकर मुख्य धारा के मीडिया ने इस मसले पर कमाल की सक्रियता दिखाई है | ऐसी पड़ताल परक पत्रकारिता हमने खुद राम रहीम के रेप से जुड़े मामले में भी नहीं देखी थी जैसा फॉलोअप हनीप्रीत से जुडी खबरों या सुनी सुनाई बातों का किया गया है | इस विवेक विहीन कवरेज ने कुछ सवाल पैदा किये हैं | इस लेख में उन्ही सवालों का जवाब तलाशने की कोशिश की गयी है |

मीडिया ने हनीप्रीत को किस तरह दिखाया  है   

37 दिन गायब रहने के बाद अचानक प्रियंका तनेजा मीडिया के सामने आ गयीं हैं | चैनलों ने अपनी पड़ताल की पीठ थपथपाते हुए बताया है कि कैसे उन्होंने पुलिस से पहले हनीप्रीत को खोज लिया | हनीप्रीत ने मीडिया को दिए अपने साक्षात्कार में मीडिया पर कुछ सवाल उठाये हैं | वह कहती हैं कि मीडिया ने उन्हें इस तरह से प्रजेंट किया है कि उन्हें खुद से ही डर लगने लगा है | एक इन्सान के तौर पर मेरे लिए यह एक परेशान करने वाली बात है | आपके लिए भी होनी चाहिए | हनीप्रीत अपराधी हो सकती हैं लेकिन उसके पहले वह एक इन्सान हैं जिसकी अपनी एक जिंदगी होती है | हनीप्रीत के मामले में मीडिया ने उनकी निजी जिंदगी बातें चटकारे ले कर सडक तक पहुंचा दी हैं | देखिये हनीप्रीत पर टीवी चैनलों पर चले प्रोग्रामों में किस तरह की हेड लाइन्स इस्तेमाल की गयी हैं  –

  • हनीप्रीत की ‘शहद’ वाली सहेली
  • होटल में हनीप्रीत की ‘लीला’ !
  • बुर्के में बाबा की बेबी
  • हनीप्रीत की बेवफाई का डबल गेम!
  • बाबा और हनीप्रीत का डर्टी नाटक!
  • हाथ से फिसल गई हनीप्रीत
  • जेल में बाबा को चाहिए सिर्फ हनीप्रीत
  • बाबा हनी की मिड-नाइट पार्टी
  • हनीप्रीत का हनीट्रैप
  • राम रहीम का दर्द-ए-हनीप्रीत
  • हनीप्रीत की सीक्रेट लव स्टोरी

हम ने इन कार्यक्रमों पर अपने कई घंटे खर्च किये हैं | पत्रकारों ने भी अपनी रचनात्मकता का अच्छा –खासा  हिस्सा इस पर खर्च किया होगा | एक समाज के तौर पर इस तरह की पत्रकारिता से हमने क्या  हासिल किया ? एक दर्शक के तौर पर आपके कौन से सरोकार इस तरह की पत्रकारिता से मैच करते हैं |

चैनल इस तरह की खबरों को ज्यादा तवज्जों क्यूँ देते हैं 

मीडिया में अमूमन खबरों की उम्र कम होती है। ख़ास तौर पर समय की कमी के चलते इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में तो और भी कम | इसके बावजूद हनीप्रीत से जुडी वाहियात से वाहियात बेआधार बातें 8-8 घंटे खबर की तरह चलाई गयीं | इसकी कई वजहें हैं | यह इस तरह का पहला वाकया नहीं है | शीना बोरा हत्याकांड और आरुशी तलवार के मामले में भी मीडिया कवरेज पर इसी तरह के सवाल उठाये गये थे | दरअसर हमारे समय के मीडिया का सारा ध्यान सरोकार से ज्यादा आमदनी पर केन्द्रित है | आमदनी का सीधा सम्बन्ध टीआरपी से है | जितना TRP उतना पैसा | सेक्स और अंधविश्वास भारतीय समाज का सबसे बिकाऊ प्रोडक्ट है | मीडिया को एक पिछड़े समाज का मनोविज्ञान पता है | वह जानता है कि इस देश में एलियन को दूध पिलाने वाली पत्रकारिता भी अच्छी खासी लोकप्रियता हासिल कर सकती है | लोगों द्वारा देखी और पसंद की जा सकती है | होना तो यह चाहिए था कि मीडिया समाज में परिवर्तन का जिम्मेवार बने | एक ऐसा माध्यम बने जिसे आधुनिक समाज का वाहक कहा जा सके | लेकिन पूंजी की असीमित जरूरतों के चलते हमारे समय का मीडिया इस सिद्धांत से काफी दूर है | उनके मुताबिक प्रतिस्पर्धा और बिना रुकावट आमदनी की चाहत में मसाला बेचना पड़ता है |

क्या मीडिया महिलाओं के प्रति क्रूर है ?

‘राजनीति की किताब’ में प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी का एक साक्षात्कार है | एक सवाल के जवाब में वह कहते हैं कि भारत में सबसे ज्यादा खराब नजरिया महिलाओं के प्रति है | यह साढ़े तीन दशक पहले का साक्षात्कार है | हैरानी की बात है कि यह खराब नजरिया अभी तक वहीँ का वहीँ टिका हुआ है | इस नजरिये में यदि अब तक बदलाव नहीं हुआ है तो क्या इसमें मीडिया दोषी नहीं है या मीडिया खुद इस नजरिये में शामिल है |

हनीप्रीत से जुड़े कवरेज पर उठाया गया यह सबसे जरूरी सवाल है | एक औरत यदि किसी की हत्या कर दे ,तो उसे सामाजिक तौर पर बख्शा जा सकता है लेकिन यदि किसी औरत के सम्बन्ध अपने पति के आलावा किसी और से हों , तो यह समाज उसे कभी माफ़ नहीं कर सकता | यह समाज का औरतों के प्रति क्रूर नजरिया दिखाता है और मीडिया भी इसी क्रूर नजरिये का शिकार है | हनीप्रीत की निजी जिंदगी के बारे में जिस तरह से चटकारे ले ले कर फूहड़ कहनियाँ सुनायीं गयी हैं, किसी को भी एक इंसान के तौर पर हनीप्रीत से सहानुभूति हो सकती है |

एक दर्शक के तौर पर आपको खुद की पड़ताल करने का वक्त है 

हनीप्रीत से जुड़े मसले पर हर तरह की घटिया और अश्लील भाषा का प्रयोग किया गया है | हम दर्शक के तौर पर जिस तरह की भाषा को बिना किसी रुकावट हजम कर रहे हैं, वह हमारे भीतर की संजीदगी का मीटर है |यह हम दर्शकों के लिए खुद की पड़ताल का वक्त है | मीडिया चैनल अपना पल्ला यह कह कर झाड़ सकते  है कि आपको यही देखना सुनना पसंद है | आप खुद से भी सवाल कीजिये कि आपको किस तरह का देखना –सुनना पसंद है | सोचिए, यदि हनी प्रीत की जगह कल आपके परिवार के किसी सदस्य या आप की निजी जिंदगी के पहलुओं को मनोरम कहानियों की तरह पेश किया जाये तो आप कैसा महसूस करेंगे | हनीप्रीत खुद भी डिप्रेशन में आ चुकी हैं | खुद से पूछिये, क्या हम एक मुर्दा दर्शक है या मिडिया ने हमे चलता फिरता जोम्बी बना दिया है। यदि ऐसा नही है तो हमारे भीतर के दर्शक को खबरों की दुनिया की भी खबर लेते रहनी चाहिए।



 ( लेखक आशुतोष तिवारी, भारतीय जन संचार संस्थान से हाल ही में पास होकर निकले युवा पत्रकार हैं। )