दस दिन बाद दिल्लीः पटरी पर लौटती ज़िंदगी और मसान में भटकती औरत के बीच कुछ कहानियां

अमन कुमार
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


पत्थर के ख़ुदा पत्थर के सनम पत्थर के ही इंसाँ पाए हैं

तुम शहर-ए-मोहब्बत कहते हो हम जान बचा कर आए हैं

बीते दस दिनों से नफ़रत की आग में जल रही दिल्ली के रहवासियों पर सुदर्शन फाक़िर की लिखी इन पंक्तियों से बेहतर शायद ही कोई और टिप्पणी सटीक बैठती हो।

जामुन का पेड़, गली नंबर 4

जब मूंगा नगर की ओर से आने वाली हजारों मुसलमानों की भीड़ और दयालपुर की तरफ से आने वाली हजारों हिन्दुओं की भीड़ एक दूसरे पर पत्थरबाज़ी करते हुए आपस में भिड़ी, तब जामुन का एक पेड़ दंगाइयों के बीच सीमारेखा बन गया था।

दायीं तरफ से मुसलमान और बायीं तरफ से हिन्दू।

दोनों ओर से आए हजारों पत्थर इस पेड़ ने अपने जिस्म पर झेले। ऊपर से फेंके गए पेट्रोल बम और एसिड को भी इसने सोख लिया। इन हमलों में पेड़ का बदन छिल गया। इसकी पत्तियां झुलस गयीं। इसके बावजूद जामुन का पेड़ बिना किसी गिले शिकवे के सबको छांव दे रहा है। दायें से आने वाले हों या बायें से, सबको एक आंख से देख रहा है।

खजूरी खास, गली नम्बर चार के मुहाने पर क़रीब 25 साल पुराना जामुन का एक पेड़ है। अपनी ज़िन्दगी में इसने बहुत कुछ देखा। बच्चों को बड़ा और बड़ों को बूढ़ा होते देखा। कई बसंत देखे। दिल्ली की जमा देने वाली सर्दी देखी। मई-जून में आसमान से बरसता सूरज का ताप देखा। पतझड़ भी देख लिए। लेकिन ऐसा रक्तपात, नफ़रत की ऐसी आग, इतनी लाशें और इतने जनाज़े एक साथ कभी नहीं देखे।

इस हफ्ते जब हम दंगाइयों की सरहद बनकर तकरीबन खेत रहे इस पेड़ के नीचे पहुंचे, तो वहां कई लोग खड़े मिले। सब बीते हफ्ते हुई हिंसा और आगजनी का विश्लेषण कर रहे थे। थोड़ी दूर पर खड़े मलखान की हालत भी इस पेड़ के जैसी है। उन्होंने भी अपनी जिन्दगी में कभी दंगे नहीं देखे थे। उम्र के इस पड़ाव पर आकर सब देख लिया।

मलखान जामुन के पेड़ की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, “पत्थर तो इसने भी बहुत झेले हैं। अगर ये पेड़ न होता तो मरने वालों और घायलों की संख्या कुछ और बढ़ जाती।” पेड़ पर बने घाव देखकर उनकी बात सही लगती है।

मलखान और मोहम्मद

मलखान की ही उम्र के मोहम्मद कहते हैं कि इलाके में हिन्दू और मुसलमानों की संख्या लगभग बराबर है, लेकिन याद नहीं कि इस इलाके में इससे पहले दंगे कब हुए थे। कभी हुए भी हैं या नहीं, ये भी जानने वाली बात है।

“हम लोग सालों से यहीं साथ रहते आए हैं, कभी नहीं लगा कि हमारे हिंदू भाई हमारे साथ ऐसा करेंगे और शायद ही कभी हिंदू भाइयों को ऐसा लगा हो कि मुसलमान ऐसा करेंगे। अब एक दूसरे पर विश्वास कर पाना मुश्किल है। ताउम्र डर के साये में रहेंगे हम। ये काम भले ही भीड़ का हो लेकिन नुकसान हमारे आपसी भरोसे का हुआ है।”

कैमरे पर गंगा-जमुनी एकता

इलाके में घूमते हुए ऐसा लगता है कि जिन्दगी पटरी पर लौटने लगी है। वास्तव में ऐसा है नहीं। हालात सामान्य होने में अब महीनों या सालों लग जाएंगे। एक नासूर था जो बीच में बहकर थम गया है, लेकिन भीतर ही भीतर चुपचाप गैंग्रीन की शक्ल ले रहा है। यहां पसरी चुप्पी एक बड़ी बीमारी के फूटने से पहले का लक्षण दिखती है। दंगा भले थम चुका हो, उसकी आशंका अब भी बरकरार है।

संदीप रेलवे में इंजीनियर हैं। वे बड़े विश्वास के साथ कहते हैं कि अभी एक और दंगा होगा। कब होगा और होगा तो किस बात पर, इसकी का इंतजार है। उनके साथ खड़े कई लोग एक स्वर में कहते हैं− “शायद होली तक या फिर उसके बाद, जब सुरक्षाबल यहां से चले जाएं।”

यहां ज्यादातर लोगों को लगता है कि दिल्ली में हुई हिंसा में आम आदमी पार्टी के काउंसलर ताहिर हुसैन का हाथ है। ताहिर गुरुवार को गिरफ्तार किए गए हैं। लोग ताहिर के बारे में बात करते हुए सोशल मीडिया और टीवी का हवाला देते हैं कि उसके घर में क्या-क्या सामान मिला। नौजवान इसे नहीं मानते। फैजान, अशरफ, जीशान और उनके साथियों का मानना है कि दंगे भड़काने की शुरुआत तो कपिल मिश्रा ने ही की थी।

वे कहते हैं कि हिंसा से पहले दिल्ली में दर्जन भर धरने चल रहे थे जिनमें से अधिकांश को दो महीने हो चले थे, लेकिन कहीं पर भी हिंसा तो क्या, एक छोटी सी झड़प तक की कोई खबर नहीं आयी। और फिर एक दिन कपिल मिश्रा ने कुछ बक दिया और हिंसा भड़क गई, अब इसका जिम्मेदार किसको माना जाए? एक जली हुई बस्ती में सबकी दलील बराबर सही लगती है।

कैमरे के सामने दिखने वाली एकता और भाईचारा अपने भीतर कितनी कड़ुवाहट समेटे हुए है यह कैमरा और माइक्रोफोन बंद हो जाने के बाद देखा जा सकता है। अंदाजा लगाना मुश्किल है कि कौन ज्यादा तीव्र है− ऊपरी तौर पर दिख रही एकता या फिर मौका मिलते ही बदला लेने की बलवती इच्छा। ऐसा लगता है कि मीडिया के सामने क्या बोलना है कितना बोलना है इसको लेकर लोगों के बीच एक अलिखित करार हुआ पड़ा है। दोनों समुदायों के लोग  कैमरे के सामने जब खड़े होते हैं, तो कहते हैं कि बाहरी लोगों ने आकर आगजनी की, दंगा भड़का दिया, हम तो वर्षों से मिलजुलकर रहते आए हैं। इन्हें सुनकर वहां मौजूद दूसरे भी अनमने ढंग से हां में हां मिला देते हैं, गंगा-जमुनी तहजीब की बातें होती हैं।

कैमरा ऑफ, सच साफ़। जब दोनों समुदायों के लोग एक दूसरे के सामने नहीं होते, तब मीडिया और वॉट्सऐप से फैला ज़हर असर दिखाना शुरू करता है। वे दूसरे समुदाय के लिए हिकारत भरे अंदाज में बात करते हैं और दंगे के लिए दूसरे समुदाय को जिम्मेदार ठहरराते हैं।

खजूरी खास की गली नम्बर चार के बगल में एक छोटी-सी गली है। उसी गली में दंगाइयों के हाथों मारे गये आइबी अफसर अंकित शर्मा का घर है। जय बताते हैं कि पूरा मोहल्ला अंकित पर गर्व करता था। मोहल्ले के बच्चे अंकित जैसा बनना चाहते थे, लेकिन मुसलमानों ने उसकी जान ले ली। जय कहते हैं कि अंकित के मारे जाने में ताहिर का हाथ है।

“लोग कपिल मिश्रा को बेकार में बदनाम कर रहे हैं। आप ही बताइए, केवल एक भाषण से इतना बड़ा दंगा भड़क सकता है क्या?”

गली के सामने खड़े लोगों में ज्यादातर हिंदू हैं और अंकित शर्मा की मौत से गुस्से में हैं। उनसे हमने एक एक कर के पूछा कि अंकित कहां, कैसे और कब मारा गया। सबका जवाब अलग अलग मिलता है। इन सवालों पर आपस में सहमति नहीं है कि कहां, कब और कैसे हुआ। कोई ताहिर के घर के सामने बताता है, तो कोई अंकित को घर के सामने से खींचकर ताहिर के घर तक ले जाने की बात कह रहा था।

विधायक जी, कुछ करिए!

यूनानी और आयुर्वेदिक दवाओं के होलसेल कारोबारी फैजान अशर्फी बताते हैं कि 23 फरवरी की शाम दुकान बंद करके रोड के उस पार वे किसी के साथ बैठे हुए थे। तभी किसी ने उनको फोन पर खबर दी कि उनकी दुकान से धुआं निकल रहा है। भागते हुए वे दुकान पर पहुंचे तो देखा कि अभी आग पकड़नी शुरू हुई है। पड़ोस के लोगों ने बाल्टियों से, पाइप से पानी डालकर आग बुझाने की कोशिश की लेकिन ऐसा संभव नहीं था। दुकान में भरा हुआ सामान ऐसा था जो आग तेज़ी से पकड़ता और आग फैलती।

अशर्फी बताते हैं कि जब उनकी दुकान में आग लगी, तब फायर बिग्रेड की एक गाड़ी दुकान के सामने ही खड़ी थी। उनसे कई बार गुजारिश की कि कुछ करिये, लेकिन उन्होंने यह कहकर टाल दिया कि उनके पास कुछ भी करने का आदेश नहीं है।

वे बोले, “आप अधिकारियों से बात करिये। आप चाहें तो भजनपुरा लाल बत्ती से फायर ब्रिगेड की गाड़ियों को बुला सकते हैं।”

अशर्फी कहते हैं कि वे अपनी जलती दुकान को छोड़कर कई बार भजनपुरा लाल बत्ती से फायर बिग्रेड को बुलाने गये, लेकिन किसी ने उनकी नहीं सुनी। उसके बाद उन्होंने दसियों बार फायर बिग्रेड को फोन किया, लेकिन फायर ब्रिगेड आने के बजाय हर बार शिकायत दर्ज होने का मैसेज आया। करीब घंटे भर बाद फायर बिग्रेड की गाड़ी आयी, तब आग बुझानी शुरू की गयी। तब तक पूरी दुकान जल चुकी थी।

वे कहते हैं, “और सब तो ठीक है, लेकिन मुस्तफाबाद से आम आदमी पार्टी के विधायक हाजी यूनिस, मोहल्ले के काउंसलर बीजेपी के मनोज त्यागी उर्फ बॉबी भी यहीं मौके पर थे। देखते रहने के सिवाय उन्होंने कुछ नहीं किया और यहां से हाथ हिलाते हुए निकल गये। उनसे कई बार हाथ जोड़कर विनती की कि विधायक जी, कुछ तो करिये लेकिन उन्होंने भी नहीं सुनी। इसके बाद मेरे या मेरे जैसे किसी के पास अपनी दुकान, मकान और जिन्दगी भर की कमाई को राख होते देखने के सिवाय और कोई चारा नहीं था।”

और नक्शे से मिट गया होता भजनपुरा…

जिस रात चांदबाग की टायर मार्केट को आग के हवाले किया गया, ठीक उसी समय भजनपुरा में इंडियन ऑयल के पेट्रोल पंप को भी फूंक दिया गया था। पेट्रोल पंप में लगायी गयी आग इतनी भयानक थी कि उसके सामने से गुजरने पर अभी तक जलने की गन्ध आ रही है। पंप का सामान, कांच के टुकड़े पूरे परिसर में फैले हुए हैं। पूरा पंप जलकर खाक हो गया। यहां रखी करीब 15 से 20 मोटरसाइकिलें जलकर राख हो गईं। गनीमत ये रही कि आग पंप के रिजर्व भण्डार तक नहीं पहुंची, वरना भजनपुरा का नाम दिल्ली के नक्शे से मिट जाता।

पेट्रोल पंप के मालिक से बात करने की कोशिश की गई, लेकिन उनकी गैर-मौजूदगी के कारण उनसे बात नहीं हो सकी। जले हुए पंप के सामने सुरक्षा के लिहाज से दिल्ली पुलिस के जवानों की दो बसें खड़ी हुई हैं। सब कुछ जलने के बाद वे किसकी सुरक्षा के लिए हैं, ये समझ से परे है।

पेट्रोल पंप से बिल्कुल सटा हुआ एक ई-रिक्शा शोरूम है(था), जो दंगाइयों का शिकार हुआ है। जले हुए शोरूम के बाहर उसके मालिक मुल्ला जी और आस-पड़ोस के कुछ लोग बैठे हुए मिले। हमारा परिचय जानने के बाद मुल्ला जी के भतीजे इन्तज़ार हुसैन हमसे बात करने के लिए तैयार हुए।

इन्तज़ार हुसैन कांपती आवाज में कहते हैं, “हम तो बर्बाद हो गये। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि ये दिन भी देखना पड़ेगा। बल्ब, पंखे, ऑफिस की गद्देदार कुर्सियां तक वे उखाड़ ले गये। जो नहीं ले जा पाये उसको तोड़कर, जलाकर बर्बाद कर दिया। काउंटर में रखा 4 लाख कैश, ऑफिस में लगा एसी और बहुत-सा ऐसा सामान जिसको ढोकर ले जाया जा सकता था, उसको लूटा गया है। और ये सब पुलिस के सामने हुआ है।”

इन्तज़ार कहते हैं, “ये तो नहीं कहूंगा इस लूटपाट में पुलिस शामिल है, लेकिन इतना जरूर कहूंगा कि ये सब पुलिस की शह के बिना संभव नहीं है।” सबूत के तौर वे कुछ वीडियो दिखाते हैं जिसमें पुलिस दंगाइयों के साथ-साथ चलती दिख रही है।

वे कहते हैं कि भीड़ भले ही बाहर से आई हो लेकिन इस हिंसा में मोहल्ले के लोगों का ही हाथ है। बिना जानकारी के इतने भीतर तक जाना और एसी तक को उखाड़ने का समय मिल जाना ऐसे तो संभव नहीं है।

आपको किसी पर शक है या भीड़ में से किसी को पहचान पा रहे हों? इस पर वे कहते हैं कि नहीं, हम ऐसे तो किसी को कुछ नहीं कह सकते और भीड़ में से भी किसी को पहचानना संभव नहीं है लेकिन कुछ लोग हैं जिनका सीधा जुड़ाव इस हिंसा के साथ समझा जा सकता है, भले ही वे इसमें शामिल हों या नहीं।

इन्तज़ार अपने मोबाइल से ढूंढ़कर एक वीडियो क्लिप दिखाते हुए बताते हैं उनके शोरूम से सौ मीटर की दूरी पर मोहन हॉस्पिटल है, जिसकी छत पर कुछ लोग हेलमेट लगाए हुए नीचे रोड पर खड़े लोगों पर पत्थरबाजी और फायरिंग कर रहे हैं। इन्तज़ार के शोरूम में रखे 30 के करीब ई-रिक्शे, उनके पार्ट्स, उनकी दो बाइक और उसके साथ बहुत सारा सामान जल कर खाक हो गया। प्लास्टिक और रबड़ के जलने की गंध अब तक आ रही है।

इंतजार कहते हैं कि जब शोरूम में आग लगी, उस समय खूब पत्थरबाजी हो रही थी। चारों तरफ से पत्थर बरसाये जा रहे थे। जब चारों तरफ से पत्थरबाजी हो रही तो ऐसे में किसी को देख पाना या पहचान पाना बहुत मुश्किल होता है।

भजनपुरा हिंदू बहुल इलाका माना जाता है, जहां पर कुछ मुसलमानों की दुकानें हैं। वे बताते हैं कि दंगाई सीढ़ी लगाकर उनके शोरूम में घुसे, लूट-पाट की, उनकी हिंदू लेबर को डराया और पुलिस खड़े होकर सब कुछ देखती रही। छत पर लेबर के रहने वाली कोठरियों में सारा सामान यहां वहां बिखरा पड़ा है। लूट-पाट के निशान देखे जा सकते हैं।

चांदबाग के बगल से ही एक सड़क जाती है, जिसे करावल नगर रोड के नाम से जाना जाता है। रोड की शुरुआत होते ही एक पुलिस बूथ और मज़ार दस कदम की दूरी पर हैं। अगल-बगल की लगभग सारी चीजें हिंसा और आगजनी का शिकार हुईं, दंगाइयों ने पुलिस बूथ तक नहीं छोड़ा, पूरे पुलिस बूथ से धुएं की गंध अब तक आ रही है, रेस्ट के लिए रखी फोल्डिंग खाट के प्लाइवुड में बीच से सुराख हो चुका है, भीतर एक सुरक्षाकर्मी सुराख के बीच में पैर डालकर बैठे-बैठे पैर हिला रहा है।

दंगाइयों ने पुलिस बूथ के बगल स्थित मज़ार को भी नहीं छोड़ा और यहां भी आग लगा दी। इसकी दीवारों को क्षतिग्रस्त कर दिया। आग के कारण मजार की सभी दीवारें काली होकर काजल की कोठरी में तब्दील हो गई हैं। आसपास के लोग बताते हैं कि इस मज़ार पर हर तबके की श्रद्धा थी, हर कोई इसके सामने सिर झुकाता था, लेकिन अब कोई इसको पूछने वाला नहीं है।

जब हम टूटी हुई मज़ार को देख रहे थे, उसी समय एक आदमी आया जो मज़ार की मरम्मत के लिए चंदा इकट्ठा कर रहा था। तभी वहां मोटरसाइकिल से गुजर रहे लड़के कमेंट करते हैं− देखो माद***दों को, फिर शुरू हो गये। ये साले कभी नहीं सुधर सकते।

इस पार बनाम उस पार

भजनपुरा के सामने और चांदबाग के बगल से दयालपुर की तरफ एक सड़क जाती है। इस पूरी सड़क पर ही दंगे कि निशान यहां-वहां दिख जाते हैं। मेन सड़क पर ही पूरा बाजार लगता है, जिसको करावल नगर मार्केट के नाम से जाना जाता है। इस रोड पर दंगाइयों ने जमकर कहर बरपाया है। प्रभावित होने वालों में हर समुदाय के लोग हैं। यहां तक कि एक दो सिखों की भी दुकानें फूंकी गई हैं। सबसे ज्यादा नुकसान मुसलमानों का हुआ, जिनको चिन्हित करके निशाना बनाया गया।

रोड की शुरुआत में ही भूरे खान का घर है। वहीं पर उनकी फलों की दुकान और उनके भाई एजाज़ की मीट की दुकान है। पास पहुंचने पर फलों के जलने की बदबू नाक में भर जाती है। आदतन फलों को उनकी खुशबू से ही पहचानते रहने वाले अंदाजा भी नहीं लगा सकते कि फलों को जलाने के बाद गंध कैसी होती होगी। हमारी ही तरह भूरे खान के लिये भी यह पहली बार था जब उस गंध को वे महसूस कर रहे थे, जब उनकी दुकान को आग के हवाले किया गया था।

भूरे खान से बात करने की गुजारिश की गई तो वे बोले, “क्या ही बोलूं? घटना वाले दिन से इतनी बार वही बातें दोहरा चुका हूं जो चाहे अनचाहे दर्द देती हैं।” कहते हुए भूरे का चेहरा बिल्कुल सपाट हो जाता है। वे आग्रह करते हैं, “एक बार चारों तरफ नजर घुमा कर देख लीजिए, समझ आ जाएगा कि दंगाई कौन थे और लुटा-पिटा कौन!”

नज़र घुमा कर देखने पर पता चलता है कि रोड के उस पार, जहां हिंदू बहुल दुकानें ज्यादा हैं, वहां खरोंच तक नहीं आयी और इधर की तरफ कुछ भी साबुत नहीं बचा है।

एजाज बताते हैं, “हमारी दुकान (फल और मीट) रोज रात को बारह साढ़े बारह बजे तक खुली रहती थी। ग्राहकों में मुसलमानों से ज्यादा हिन्दू थे। कभी ख्याल भी नहीं आया कि हम मुसलमान हैं और ग्राहक हिंदू और ग्राहकों ने भी कभी एहसास नहीं होने दिया। मगर उस रात के बाद सब बदल गया।”

“दंगाई जब हमारी दुकानों में आग लगा रहे थे तब पुलिस वाले उनके साथ थे। हमने जब आग बुझाने की कोशिश की, तब पुलिस वालों ने अपनी बन्दूकों से छत की तरफ इशारा करके शांत रहने के लिए कहा। ऐसा उन्होंने कई बार किया। इसके बाद हमने आग बुझाने से ज्यादा अपनी जान को बचाना जरूरी समझा। और कर भी क्या सकते थे!”

इस हिंसा में हिंदू और मुसलमानों के अलावा सिखों को भी नुकसान उठाना पड़ा है। भजनपुरा लाल बत्ती से थोड़ी दूर चलने पर तरण खन्ना का ई-रिक्शा शोरूम आता है, जिसको दंगाइयों ने आग के हवाले कर दिया। तरण के बेटे कपिल बताते हैं कि उनकी दुकान में रखे पांच-छह रिक्शे और पन्द्रह लाख का स्पेयर पार्ट और तमाम सामान जलकर राख हो गया।

कपिल इन दंगों और हिंसा के लिये ताहिर हुसैन को जिम्मेदार मानते हैं। उनका कहना है कि न ताहिर गुंडों को अपने यहां बुलाता, न सामान रखने की जगह देता, तो ऐसा कुछ नहीं होता।

मिठाई की दुकान चलाने वाले ज्ञानेन्द्र सड़क के इस पार के अकेले हिंदू दुकानदार हैं। उनकी दुकान पूरी तरह जलकर खाक हो चुकी है। मिठाइयां जलने के बाद भी वैसी की वैसी ही रखी हैं। साफ़ पहचाना जा सकता है कौन सी चीज क्या रही होगी।

ज्ञानेन्द्र बताते हैं कि भीड़ ने दुकानों को चिन्हित करके आग लगायी लेकिन दुकानें अगल-बगल होने के कारण दूसरी दुकानों में भी आग लग गयी।

ज्ञानेंद्र की दुकान भी जलकर खाक हो गयी

वे कहते हैं, “हमारे मोहल्ले में हिन्दू और मुसलमान हमेशा से साथ रहते आए हैं। सबने एक-दूसरे को बचाने की कोशिश की। हमको अपने पड़ोसियों से कोई शिकायत नहीं है। उन्होंने तो हमारी मदद ही की है। आग ज्यादा न फैले, इसलिए दुकान से सामान निकालने वालों में सबसे ज्यादा मदद हमारे मुसलमान भाइयों ने की है। मैं कैसे कह दूं कि मेरी दुकान मुसलमानों ने जलायी है!”

ज्ञानेंद्र जब हमसे बात कर रहे थे, उसी वक्त किसी ने उनके हाथ में सरकार द्वारा दी जाने वाली मुआवजा राशि के फॉर्म पकड़ा दिये। इस पर ज्ञानेन्द्र ने टिप्पणी की, “लीजिए! जब जरूरत थी, तब तो पास तक नहीं आए और मुआवजे देने के लिए कितने उतावले हो रहे हैं।”

मुआवजा राशि के लिए भरा जाने वाला अवेदन पत्र

दिल्ली की सरकार ने हिंसा के पीड़ितों को मुआवजे में 10 लाख तक की सहायता राशि देने की घोषणा की है। इसी में दुकानदारों को भी सहायता की घोषणा की गयी है। इसको लेकर पीड़ित दुकानदारों में नाराजगी है। उनका कहना है कि सरकार कितना मुआवजा देगी, 10 लाख, 15 लाख? इससे पूरे नुकसान की भरपाई हो जाएगी? आर्थिक नुकसान की भरपाई फिर भी हो जाए, लेकिन उस विश्वास का क्या होगा जो एक-दूसरे के प्रति कम हुआ है? मुसलमान हिन्दुओं को और हिन्दू मुसलमान को शक की निगाह से देख रहे हैं। ये जो अविश्वास पैदा हुआ है, वो समाज के भीतर पैदा हुआ है। एक-दूसरे के यहां आने-जाने, खाने-पीने तक का विश्वास करने लायक बनने में सालों खर्च किये हैं और ये आए हैं मुआवजा देने!

दंगाई बाहरी, दंगाई बच्चे?

दंगो के बाद से ही मीडिया में स्थानीय लोगों के इन्टरव्यू चल रहे हैं जिसमें लोगों को कहते हुए सुना जा सकता है कि दंगा करने वाले बाहरी थे। मुख्यमंत्री केजरीवाल ने भी बयान दिया कि दंगाई बाहर से आये थे।

यह अधूरा सच है जिसे स्थानीय लोगों ने आपसी सहमति से गढ़ा है। वे इतना सब खोने के बाद वर्षों चलने वाली पुलिसिया और अदालती प्रक्रिया से बचना चाहते हैं, वे भीड़ के अकेले दुश्मन बनने से अब भी बचे रहना चाहते हैं।

नाम न छापने का आश्वासन देने पर लोग दबी जुबान से यह स्वीकारते हैं कि वे दंगाइयों की भीड़ में शामिल कई चेहरों को पहचानते हैं जो आसपास के ही हैं, कई तो ऐसे भी हैं जो उनकी दुकान पर भी आते थे।

रोड के दोनों ओर जली दुकानें मुस्लिमों की, बची दुकानें हिंदुओं की हैं

दयालपुर RWA से जुड़े हरीश शर्मा कहते हैं, “शाहीन बाग से प्रेरित होकर यहां भी लोग टेन्ट लगाकर बैठ गए, सड़क बन्द कर रहे थे। बच्चों का एक्जाम था। हमारे बच्चे कैसे एक्जाम को जाते? ये क्रिया(प्रोटेस्ट) की प्रतिक्रिया है!”

बातचीत में शामिल एक और व्यक्ति ने कहा, “हमने इन्हें (मुस्लिमों को) पाला, ये हमारे बसाये हुए हैं, अब ये बदमाशी कर रहे हैं! तब जाकर ये समाज निकला है बाहर। गुर्जर समाज है, चौधरी हैं, इस समाज के लोग बेहरपुर, शेरपुर, दयालपुर से निकले हैं बाहर”।

दंगाई भीड़ में शामिल स्कूली बच्चों की बड़ी संख्या ने सबको परेशान कर दिया है। अपराधी भी अपने बच्चों को अपराध से दूर रखने के सारे जतन करते हैं फिर ये किसके बच्चे थे जो दंगाइयों के साथ पत्थर चलाते दिख रहे थे, धार्मिक नारे लगाते दिख रहे थे?

इसे समझने के लिए हमने एक स्कूली बच्चे से बात की। उसने बताया, “कुछ लोकल लोगों ने अपने बच्चों से कहा कि जाओ-जाओ-जाओ, कुछ बच्चे ऐसे भी थे जो परिवार के किसी बड़े के साथ चले आये थे।”

मसान में रोती एक औरत

मुस्तफ़ाबाद में शरणार्थी

हिंसा में सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ है शिव विहार। यहां इतनी तोड़फोड़ और आगजनी का ऐसा तांडव पसरा पड़ा है कि एक भी दुकान सलामत नहीं बची है। शिव विहार तिराहे पर दोनों तरफ के दंगाइयों का कहर टूटा है। यहां हुई आगजनी से प्रभावित अधिकांश लोगों ने सटे हुए मुस्तफ़ाबाद में शरण ली हुई है। मुस्तफाबाद के लोग इन शरणार्थियों के चलते एक अदृश्य डर के साये में जी रहे हैं। शरणार्थियों की वजह से ये इलाका आसानी से दंगाइयों के निशाने पर आ सकता है, इसलिये वे हर एहतियात बरत रहे हैं।

कासगंज की रहने वाली सकीना इन्हीं शरणार्थियों में से एक हैं। हमसे बात करते हुए सकीना बताती हैं कि जिस दिन हिंसा शुरू हुई, वे अपने घर में कुछ काम कर रही थीं। तभी अचानक शोर हुआ, फिर भगदड़ मच गई। जिसको जहां जगह मिल सकती थी, उसने वहां जाकर अपनी जान बचाई। सकीना शिव विहार में अपने चार बच्चों के साथ रहती थीं।

वे बताती हैं, ‘हम लोग मेहनत-मजदूरी करने वाले लोग हैं। हमारे पांच बच्चे हैं। तीन लड़कियां, दो लड़के हैं। एक बेटी की शादी कर दी है, बाकी दो बेटियां हमारे साथ रहती हैं। दंगे वाली रात मैंने जैसे-तैसे जान बचाई। उसके बाद से हम यहां हैं और दो बेटियों को बड़ी बेटी के घर भेज दिया है। कम से कम वे तो सुरक्षित रहेंगी। 10 दिन हो गये, हम घर नहीं गए और पता भी नहीं कि घर बचा भी है या नहीं।”

सकीना जैसी हालत में करीब 500 परिवार मुस्तफाबाद में शरण लिए हुए हैं। इन सबके रहने-खाने का इंतजाम पड़ोसियों द्वारा किया जा रहा है। इसमें मदद करने वाले हिंदू और मुसलमान दोनों ही समुदाय के लोग हैं। शिव विहार से आयी आबिया बताती हैं कि उनके घरों के रसोई गैस सिलेन्डर से उनके घरों में आग लगाई गयी है। यह पूछने पर कि क्या आस-पास के जान पहचान वाले हिन्दू लोगों ने कोई मदद नहीं की? आबिया सुबक पड़ती हैं।

वे कहती हैं, “अगर उन्हें मदद करनी ही होती तो अगर हमारे घर में भी आकर दो हिन्दू बैठ जाते तो हमारा घर भले लुट जाता लेकिन जलने से तो बच जाता। यही बहुत बड़ी मदद होती, लेकिन कोई नहीं आया”।

हमें इतनी देर घूमते हुए रात हो चली थी। शिव विहार में चारों तरफ घुप्प अंधेरा हो चुका था। सड़कों पर कोई स्ट्रीट लाइट नहीं, पूरे इलाके में लग रहा था जैसे रातोरात श्मशान उभर आया हो। रास्ते में सुरक्षा बलों के अलावा एक कुत्ता कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा था। एक बार मन किया कि यहां से लौट चला जाए, कल आते हैं। हम कुछ सोच पाते, तभी एक महिला रोती हुई आयी।

उसके रोने की आवाज से अचानक भंग हो गयी थी वहां की मुर्दा शांति। हमने थोड़ी दूर तक उस रोती हुई महिला का पीछा किया कि शायद वो कुछ बोले या बताए। हमने उससे रोने का सबब पूछा। वो रोती रही। उसने कुछ भी बताना जरूरी नहीं समझा। क्या जाने वह कहां से जान बचाकर आयी हो। क्या जाने कितनी जानें गंवाकर वो यहां आयी हो। कुछ भी हो सकता था।

दिल्ली-2020 की सारी कहानियां अभी नहीं कही गयी हैं। कुछ कहानियां कभी नहीं कही जाएंगी।


अमन कुमार मीडियाविजिल के सीनियर रिपोर्टर हैं