दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिये नामांकन की आखिरी तारीख बीतने के साथ चुनावी प्रक्रिया का एक चरण पूरा हो गया। नामांकन का आखिरी दिन चुनावी माहौल के हिसाब से खूब गर्म रहा। कारण था दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को नामांकन के लिये घंटों इन्तजार करना पड़ा।
हुआ ये कि केजरीवाल जब नामांकन करने पहुंचे तो उनसे पहले 34 प्रत्याशी और थे जिनका नम्बर केजरीवाल से पहले था। नामांकन में हो रही देरी के लिये आप और भाजपा के बीच जमकर आरोप प्रत्यारोप का दौर चला। आप की तरफ से केजरीवाल के अलावा सतेन्द्र जैन, दिलीप पांडेय सहित अन्य नेताओं ने भी नामांकन पत्र दाखिल किया। सतेन्द्र जैन शकूर बस्ती और दिलीप पांडेय तिमारपुर से मैदान में हैं। आप के अलावा अंतिम दिन भाजपा और कांग्रेस के भी कई प्रत्याशियों ने भी पर्चा दाखिल किया जिनमें नई दिल्ली विधानसभा से केजरीवाल के खिलाफ मैदान में उतरे सुनील यादव और कांग्रेस के रोमेश सभरवाल ने भी परचा दाखिल किया।
नामांकन के आखिरी दिन आधी रात डेढ़ बजे बीजेपी ने और दिन में कांग्रेस ने बची हुई सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा की। कांग्रेस आरजेडी के साथ और भाजपा जेडीयू तथा लोजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। भाजपा शिरोमणि अकाली दल के साथ भी गठबंधन के लिये बात कर रही थी लेकिन सीएए और एनपीआर पर अकाली के रुख के कारण आखिरी समय में बात नहीं बनी और अकाली गठबंधन से बाहर हो गया, हालांकि संसद मे सीएए पर वोटिंग के दौरान अकाली ने मतभेद जाहिर नहीं किया था।
इसी बात ने जेडीयू के भीतर घमासान मचा दिया है और संगम विहार व बुराड़ी जैसी पूर्वांचली वोटरों के वर्चस्व वाली सीट को लेकर विचारधारा की जंग छिड़ गयी है। ध्यान देने वाली बात है कि संगम विहार औए बुराड़ी पूर्ण रूप से पूर्वांचलियों के प्रभाव वाली सीटें मानी जाती हैं। ऐसे में हर पार्टी कोशिश करती है कि यहां से किसी पूर्वांचली ही प्रत्याशी के तौर पर उतारे। इस बार भी ऐसा ही हुआ है। दोनों ही सीटों पर लड़ाई पूर्वांचली बनाम पूर्वांचली की है।
आम आदमी पार्टी ने दोनों ही सीटों पर अपने वर्तमान विधायकों को टिकट दिया है। संगम बिहार से दिल्ली जल बोर्ड के चेयरमैन दिनेश मोहनिया और बुराड़ी से संजीव झा आप के उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने संगम विहार से पूर्व क्रिकेटर और प्रचार समिति के अध्यक्ष कीर्ति झा आजाद की पत्नी पूनम झा आजाद को और बुराड़ी से कांग्रेस की सहयोगी आरजेडी ने प्रमोद त्यागी को अपना उम्मीदवार बनाया है। मामला भाजपा के लिए फंस गया है क्योंकि भाजपा ने ये दोनों सीटें अपनी सहयोगी जेडीयू के लिए छोड़ दी थीं। कल तक की स्थिति यह है कि संगम बिहार से जेडीयू के एससीएल गुप्ता और बुराडी से शैलेन्द्र कुमार भाजपा समर्थित उम्मीदवार होंगे।
इस बीच हालांकि एक दिलचस्प घटनाक्रम में जेडीयू के नेता पवन वर्मा ने पार्टी के अध्यक्ष नीतीश कुमार से दिल्ली चुनाव के संदर्भ में अपनी विचारधारा स्पष्ट करने के लिए कहते हुए एक लंबा पत्र लिख मारा। वर्मा का कहना है कि “एक से अधिक अवसरों पर आपने भाजपा-आरएसएस गठबंधन को लेकर चिंताएं जाहिर की हैं। अगर ये आपके वास्तविक विचार हैं तो मैं समझ नहीं पाया कि जेडीयू कैसे बिहार के बाहर भाजपा से गठबंधन कर रहा है जबकि अकाली दल जैसे भाजपा के पुराने सहयोगियों ने ऐसा करने से इनकार कर दिया।”
भाजपा के एक नेता नाम गोपनीय रखे जाने की शर्त पर कहते हैं संगम बिहार और बुराड़ी की सीटों पर भाजपा से टिकट के लिये खूब मारामारी हो रही थी लेकिन कोई ढंग का उम्मीदवार नहीं मिल रहा था। इसीलिए ये सीटें अंत समय में जेडीयू को दे दी गईं। अब पूर्वांचली चेहरे के ऊपर विचारधारा का सवाल खड़ा हो गया है, तो गठबंधन को लेकर जेडीयू के भीतर बवाल मचा हुआ है।
पूर्वांचली वोटरों ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान दिल्ली की राजनीति को निर्णायक तरीके से बदला है। रोजी-रोटी की तलाश में देश के कोने-कोने से लोग दशकों से दिल्ली आ रहे हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश इनमें दो एसे राज्य हैं जो दिल्ली की डेमोग्राफी में बड़ा स्थान रखते हैं और यहां की अर्थव्यवस्था में भारी योगदान देते हैं। स्थानीय लोगों की गालियों और तमाम जिल्लत झेलने के बावजूद अपना गांव-घर छोड़ कर इनका राजधानी आना और यहां बस जाना नहीं रुका। आज हालात ये हो गये हैं कि बिना इनके न दिल्ली की कल्पना की जा सकती है, न दिल्ली के राजनीतिक समीकरणों की। उत्तर प्रदेश-बिहार के लोगों की तादाद यहां इतनी है कि बिना इनके दिल्ली में किसी पार्टी की सरकार नहीं बन सकती।
विभाजन के साथ मिली आजादी ने दिल्ली की डेमोग्राफी में बेतहाशा बदलाव किया। डेमोग्राफी के इस बदलाव के साथ राजनीति की धुरी भी बदल गई। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए लोगों का दिल्ली की राजनीति पर वर्चस्व हो गया। उसके बाद दशकों तक दिल्ली में यही हालात रहे जिसका फायदा कांग्रेस और जनसंघ दोनों ही दलों ने उठाया। अस्सी के दशक में जब उत्तर भारत के राज्य रोजगार और कृषि संकट से गुजर रहे थे, उसी समय दिल्ली विकास के कामों को आगे बढ़ा रही थी। इसको गति मिली 1982 में आयोजित होने वाले एशियाड खेलों से जब दिल्ली में इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिये सस्ते मजदूरों की जरूरत पड़ी।
इसका फायदा उठाया उत्तर प्रदेश और बिहार के कामगार वर्ग ने, जो बेहतर और ज्यादा मजदूरी की आस में दिल्ली आया। उस समय मजदूर के तौर पर आए लोगों ने यहां छोटे-मोटे काम-धंधे शुरू कर दिये और अपने जीने के लिये बेहतर संसाधन जुटाए। कमाई बढ़ी तो इन्होंने जमीन खरीद कर दिल्ली को घर बनाया और यहीं रहकर अपने अधिकारों का प्रयोग करने लगा। अस्सी के दशक से शुरू हुआ यह सिलसिला 1991 में हुए उदारीकरण के बाद और तेजी से बढ़ा।
दिल्ली के सामाजिक आधार को देखा जाए, तो लगभग 35 प्रतिशत आबादी के साथ पंजाबी समुदाय पहले नम्बर पर है। लगभग 25 प्रतिशत के साथ दूसरे नम्बर पर है पूर्वांचली आबादी। वहीं 15 प्रतिशत आबादी के करीब जाट-गुर्जर हैं। आबादी के लिहाज से दूसरा सबसे बड़ा समुदाय होने के कारण पूर्वांचली सभी पार्टियों को ललचाते रहे हैं।
इस बात को सारे दल बराबरी से समझते हैं और बरतते हैं, लेकिन जिस तरीके से पिछले पांच वर्षों के दौरान भाजपा विरोधी राजनीति पर ध्रुवीकरण हुआ है, ऐसे में इस साल दिल्ली में पूर्वांचली बहुल सीटों पर घमासान होना तय माना जा रहा था। खासकर लोकप्रिय गायक मनोज तिवारी के दिल्ली भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद कुछ लोग यह मानकर चल रहे थे कि अगला मुख्यमंत्री का चेहरा वही होंगे और पूर्वाचल का दिल्ली पर कब्ज़ा मुकम्मल हो जाएगा, लेकिन सीएए पारित होने और उसके बाद देश भर में उठी विरोध की लहर के मद्देनज़र दिल्ली के सबसे बड़े मतदान समूह यानी पूर्वांचलियों के बीच सियासी दरारें साफ़ उभर कर आ गयी हैं।
कुल 70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में करीब 30 सीटें ऐसी हैं, जहां पूर्वांचली वोटर हार जीत तय करता है। इसमें संगम विहार, विकासपुरी, नांगलोई, किराडी, बदरपुर जैसे इलाके शामिल हैं, जहां पूर्वांचली वोटरों की भरमार है। इन 30 सीटों में बाहरी दिल्ली की करीब 10 सीटें ऐसी हैं, जहां पूर्वांचली वोटरों की संख्या करीब 50 प्रतिशत है, जो किसी भी पार्टी को एकतरफा बढ़त दिला सकता है। बाकी बची सीटों में से कोई भी ऐसी नहीं है, जहां पूर्वांचली 20 प्रतिशत से कम हों।
पूर्वांचली वोटर को अपने पाले में करने लिये कोई भी पार्टी पीछे नहीं रहना चाहती, इसके लिये उन्हें भले ही स्थानीय नेताओं को नाराज करना पड़े। पूर्वांचलियों की ताकत का अंदाजा पार्टियों के टिकट वितरण से लगाया जा सकता है। आम आदमी पार्टी ने लगभग 12 पूर्वांचलियों को टिकट दिया है, जबकि पिछली बार 14 पूर्वांचली दिल्ली विधानसभा पहुंचे थे। वहीं भाजपा ने आठ, कांग्रेस ने पांच पूर्वांचली प्रत्याशियों को टिकट दिया है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने संजय सिंह को राज्यसभा, दिल्ली इकाई के पूर्व अध्यक्ष दिलीप पांडेय और दिल्ली सरकार में शामिल गोपाल राय के सहारे पूर्वांचलियों पर दांव लगाया है। दिल्ली के लालू कहे जाने वाले कांग्रेस के पुराने नेता महाबल मिश्र के बेटे विनय मित्र को चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी ने अपने यहां से टिकट दे डाला।
भाजपा और आम आदमी पार्टी ने तो दिल्ली इकाई का अध्यक्ष ही पूर्वांचली को बनाया है। भाजपा की कमान मनोज तिवारी और आप की कमान गोपाल राय के हाथ में है। मनोज तिवारी को अध्यक्ष बनाए जाने पर दिल्ली भाजपा के एक खेमे में लंबे समय से नाराजगी है। नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक नेता का कहना है कि “पार्टी ने मनोज तिवारी को अध्यक्ष बनाकर ठीक नहीं किया है, तिवारी को दिल्ली का अध्यक्ष बने हुए तीन साल से ज्यादा हो गये, लेकिन वे कुछ खास नहीं कर सके।” 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा की सभी सीटों पर जीत को लेकर उनका कहना है कि वे तो मोदी जी के कारण है, इसमें मनोज तिवारी का कोई योगदान नहीं है।
वहीं कांग्रेस ने भी पूर्व क्रिकेटर और तीन बार के सांसद कीर्ति आजाद को अपनी प्रचार समिति का अध्यक्ष और उनकी पत्नी पूनम झा आजाद को संगम विहार इलाके से मैदान में उतारा है। महाबल मिश्र को कांग्रेस ने इस बार टिकट नहीं दिया है। पूर्वांचलियों पर अच्छी पकड़ रखने वाले महाबल मिश्र टिकट कटने से नाराज चल रहे हैं और इसी सिलसिले में उन्होंने अपने बेटे विनय को आम आदमी पार्टी से टिकट दिला दिया। अब चर्चा है कि महाबल भी कुछ दिनों में पार्टी छोड़ देंगे। महाबल के पार्टी छोड़ने की अटकलों पर कांग्रेस के प्रवक्ता मुकेश शर्मा का कहना है कि महाबल जी कांग्रेस के बडे नेता हैं, उम्मीद है कि जल्द ही उनको मना लिया जाएगा।
इस सियासी उठापटक में पूर्वांचली वोटर आखिर इस चुनाव को लेकर क्या सोच रहे हैं, इसका पता लोगों से बात करने पर लगता है। छपरा, बिहार के मूल निवासी गुलाब सिंह बताते हैं कि दिल्ली में रहते हुए उनकी उम्र गुजर गई। जाने कितनी सरकारें आईं और गईं, लेकिन केजरीवाल सरकार जैसा काम किसी ने नहीं किया। केजरीवाल द्वारा कराए गये कामों के बारे में पूछ्ने पर वे बताते हैं कि जब से सरकार आई है तब से लेकर अभी तक एक भी बार पानी का बिल नहीं देना पड़ा। बिजली का बिल जीरो है। अब इससे ज्यादा और क्या चाहिये। वे पूछते हैं, “केजरीवाल आकर हाथ से रोटी तो खिला नहीं जाएगा?”
सहरसा बिहार से आए मुकेश दिल्ली में रहकर मजदूरी करते हैं। केजरीवाल के फ्री बिजली, पानी के प्रचार पर मुकेश कुमार का कहना है कि सब बकवास है। तीन महीने से लाइट का बिल जीरो आ रहा है लेकिन उसके पहले क्यों जीरो बिल नहीं किया? सस्ती दरों पर बिजली पानी का वादा तो सरकार बनते ही किया था न फिर इतनी देर क्यों? वे कहते हैं कि केजरीवाल ने दिल्ली में सीसीटीवी कैमरे लगाने का काम किया लेकिन वास्तविकता ये है कि दिल्ली में लगाये गये अधिकांश कैमरे पिछले तीन महीनों में लगे हैं।
दिल्ली में बड़े हुए और बिहार से ताल्लुक रखने वाले दीपक का कहना है कि उन्हें पता नहीं कि उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति कैसी है लेकिन उन्होंने दिल्ली की राजनीति को करीब से देखा है। वे बताते हैं कि उन्होंने 2013 में पहली बार आम आदमी पार्टी को वोट दिया था। कारण बताते हैं कि अन्ना आन्दोलन में शामिल रहे अरविंद केजरीवाल एक ईमानदार नेता के तौर पर उभरकर सामने आए थे। उनकी राजनीति का मॉडल भी नया था इसलिये उनको वोट देने में कोई हिचक नहीं हुई। दीपक का कहना है कि इस बार वे आम आदमी पार्टी को वोट नहीं देंगे। कारण पूछने पर वे कहते हैं, “केजरीवाल अब पहले वाले केजरीवाल नहीं रहे। सत्ता में बने रहने के लिए वे भी वही सब कर रहे हैं जो बाकी पार्टियां करती हैं।”
मोतिहारी के सुरेश का कहना है कि वे बीजेपी को वोट करेंगे। उनसे जब कारण जानने की कोशिश की गई तो बोले कि नरेंद्र मोदी बढ़िया काम कर रहे हैं। वे कहते हैं कि सालों से अटके पड़े राम मंदिर, अनुच्छेद 370 जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर फैसला लेकर सरकार ने बहुत अच्छा काम किया है।
गोरखपुर के रहने वाले वासुदेव पिछले 25 साल से दिल्ली में हैं और बीस साल से यहां वोट दे रहे हैं। उनका कहना है कि वे हर बार बीजेपी को वोट देते हैं। कारण पूछने पर कहते हैं कि उन्हें शुरुआत से ही भाजपा पसंद रही है। उनका कहना है कि बीजेपी ने मनोज तिवारी को दिल्ली की कमान देकर ठीक नहीं किया, मनोज पूर्वांचली के नाम पर केवल अपनी राजनीति चमका रहा है और कुछ नहीं।
दिल्ली में आम आदमी पार्टी की दो बार बनी सरकार का मुख्य कारण ही पूर्वांचलियों का समर्थन रहा है। आम आदमी पार्टी और केजरीवाल के चुनावी मैदान में आने से पहले पूर्वांचली कांग्रेस के वोटर माने जाते थे। इसका कारण कांग्रेस की लोकप्रियता से ज्यादा शीला दीक्षित को माना जाता है, जिन्होंने अपनी खुद की पहचान एक पूर्वांचली के तौर पर विकसित की थी। मूलतः पंजाबी मूल की शीला दीक्षित की शादी उत्तर प्रदेश के दिग्गज नेता उमाशंकर दीक्षित के बेटे से हुई थी। इस कारण शीला अपने आप को पूर्वांचली कहती रहीं। दिल्ली की राजनीति में शीला दीक्षित और कांग्रेस पार्टी को दोहरा फायदा मिला।
यों कहा जाए कि दिल्ली में सरकार की चाबी इन पूर्वांचलियों के पास है, तो गलत नहीं होगा हालांकि इस बार सीएए का मुद्दा चुनावी धुरी बन जाने के बाद राजनीतिक विचारधारा को लेकर मतभेद भी सतह पर आ गए हैं जिसके चलते पूर्वाचली वोटर एकवट होकर वोट नहीं करेगा। यह इस पर निर्भर करेगा कि उसका प्रत्याशी सीएए को लेकर क्या रुख़ रखता है। यही वह फैक्टर है जो पूर्वांचल प्रभावित सीटों पर हार या जीत को शक्ल देगा।
वैसे अभी तो नामांकन वापस लेने में भी दो दिन का वक्त है, इसलिए असली सूरत 25 जनवरी के बाद ही साफ़ हो सकेगी कि पूर्वांचली वोटरों का पलड़ा किधर झुकता है- केजरीवाल के विकास की ओर या उसके खिलाफ़। अपना आदमी दोनों तरफ़ है, इसलिए चुनाव इस बार थाेड़ा मुश्किल है।
अमन कुमार मीडियाविजिल के सीनियर रिपोर्टर हैं। पिछला लोकसभा चुनाव और यूपी चुनाव कवर कर चुके हैं। बुंदेलखंड के जानकार हैं।