अनिल यादव हिंदी के उन गिने-चुने पत्रकारों में हैं जिन्होंने उत्तर-पूर्व को काफ़ी क़रीब से देखा है। किसी पर्यटक की तरह नहीं, एक यायावर की तरह। कुछ साल पहले उत्तर पूर्व के संस्मरणों पर आधारित उनकी किताब ‘वह भी कोई देस है महाराज’ अपनी अनूठी शैली और पारखी नज़र की वजह से काफ़ी लोकप्रिय हुई थी। पेश है त्रिपुरा के हालिया चुनाव पर उनकी एक बेबाक टिप्पणी-
अनिल यादव
पेड़ को जतन से तराश कर एक पत्ती जितनी सूचना लगातार प्रसारित की जाती है. वह फैलती हुई पूरे माहौल पर छा जाती है. इसी आधार पर जिनके पास भाषा है वे पूरे पेड़ की व्याख्या करने लगते हैं.
त्रिपुरा में वामपंथियों की हार को या तो मुख्यमंत्री मानिक सरकार की गरीबी, सादगी और आदर्शवादिता की हार के रूप में या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भड़कीले व्यक्तित्व के करिश्मे की जीत के रूप में देखा जा रहा है. दोनों सिर्फ योजनाबद्ध ढंग से प्रचारित चेहरे हैं. उनकी पार्टियों का इतिहास और चरित्र कुछ और है. चेहरा चुनावी समीकरणों पर एक सीमा तक असर डाल सकता है लेकिन जमीनी हकीकत को नहीं बदल सकता.
2014 के लोकसभा चुनाव में प्रचार गुजरात मॉडल के विकास का हुआ था लेकिन भाजपा को कामयाबी, गोधरा में ट्रेन जलाने की प्रतिक्रिया से निर्मित हुए मोदी के चेहरे को सामने रखकर गुजरात की ही तरह पूरे देश में मुसलमानों को औकात में रखने के इरादे के ‘अंडरकरेंट’ के कारण मिली थी. वही रणनीति त्रिपुरा में भी आजमाई गई. यहां कहने को मानिक के मुकाबले हीरा (हाईवे-इंटरनेट-रोडवे-एयरवे) था लेकिन त्रिपुरा के रक्तरंजित इतिहास की पृष्ठभूमि में निशाने पर वाम समर्थक बंगाली भद्रलोक था जिसका दबदबा प्रशासन, नौकरी, व्यापार और संस्कृति हर कहीं महसूस किया जा सकता है.
भाजपा ने बंगालियों के खिलाफ अपना अलग राज्य मांग रहे आदिवासियों के पुराने गुस्से को वोट में बदलने में कामयाब रही. भाजपा को दो प्रतिशत से खींचकर पचास प्रतिशत वोट तक लाने वाले इंजन का ईंधन यही गुस्सा था. इस गुस्से को हवा देने के लिए हर तिकड़म अपनाई गई. अवसरवादी तरीके से भारतमाता को भी बदल दिया गया था. चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के मंच पर भारतमाता की चिरपरिचित साड़ी-मुकुट वाली तस्वीर की जगह शेर पर सवार मेखला पहने किसी आदिवासी लड़की को तिरंगा थामे दिखाया जाता था.
हीरा से कहीं अधिक व्यावहारिक नारा “चलो पलटाई” था और भाजपा-आरएसएस की रणनीति का पता देने वाला सूत्र वामपंथियों पर जीत को माता त्रिपुरसुंदरी का आशीर्वाद बताना था.
आदिवासी-बंगाली संबंध को समझना जरूरी है.
त्रिपुरा की लगभग नौ सौ किलोमीटर लंबी सीमा बांग्लादेश से सटी हुई है. आजादी से पहले यहां दो तिहाई आबादी त्रिपुरी, रेयांग, जमातिया, नोआतिया और हलम आदिवासियों की थी जो अब एक तिहाई रह गई है. इसका कारण, 1946 में नोआखाली दंगों और पूर्वी पाकिस्तान के बनने के बाद, साठ के दशक में बांग्लादेश में दंगों के बाद और 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहाने के बाद बंगाली हिंदुओं का बड़े पैमाने पर त्रिपुरा में आना था. शरणार्थियों के आने के साथ ही आदिवासियों का पहला उग्रवादी संगठन सेंग क्राक (बंधी मुट्ठी) बना था जिसकी प्रमुख मांग 1949 (त्रिपुरा के भारत में विलय) के बाद आए बंगालियों को वापस बांग्लादेश भेजना था क्योंकि आदिवासी अपने ही देश में अल्पसंख्यक होते जा रहे थे.
आदिवासियों के पहले उग्रवादी संगठन मिजोरम के लालडेंगा के मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) से ट्रेनिंग पाकर बने थे इसके जवाब में आनंद मार्गियों से प्रेरित ‘आमरा बंगाली’ जैसे कई संगठन बने जिनके बीच खूनी संघर्ष चलता रहा है. कई बड़े नरसंहार भी हुए हैं.
2011 में विधानसभा को आखिरी आदिवासी राजा के उज्जयंत महल से हटाकर अलग बिल्डिंग में ले जाना पड़ा क्योंकि आदिवासियों को यह मंजूर नहीं था. अब उज्जयंत महल में राज्य संग्रहालय है. इसे बंगाली दबदबे के तौर पर ही लिया जाता है कि इस महल का नाम रवींद्रनाथ टैगोर ने रखा था और राजा को डेढ़ लाख रुपयों का लोन बंगाल बैंक से दिलवाया था. स्थानीय काक बोरोक बोली की लिपि बांग्ला है जिसे रोमन बनाने की मांग अरसे से हो रही है. बंगालियों की आमद रोकने के लिए आदिवासी नागालैंड की तरह इनरलाइन परमिट के प्रावधान की मांग भी जमाने से कर रहे हैं.
बंगाली मुख्यतः सीपीएम और कांग्रेस के बीच बंटे रहे हैं. कांग्रेस के वोटर वे बंगाली रहे हैं जिनमें बांग्लादेश से घरबार छीनकर भगाए जाने के कारण मुसलमानों के प्रति पर्याप्त घृणा है. कांग्रेस की पस्त हालत के कारण इस चुनाव में वे स्वाभाविक तौर पर भाजपा के साथ आ गए. भाजपा ने बड़े पैमाने कांग्रेस से आए नेताओं को उम्मीदवार बनाया था. हर सामान्य चुनाव क्षेत्र में भी कम से कम दस प्रतिशत आदिवासी हैं. इस गठजोड़ ने कम्युनिस्टों को चित्त कर दिया जिनके पीछे वे बंगाली थे जो राज्य में नौकरी, व्यापार, प्रशासन, संस्कृति के क्षेत्र में छाए दिखाई देते हैं. उनमें भी कुछ सांप्रदायिक आधार पर टूटन हुई जिस कारण सीपीएम का वोट प्रतिशत नीचे गया.
कम्युनिस्टों ने आदिवासी-बंगाली शत्रुता को दशरथ देब (आदिवासी) को मुख्यमंत्री बनाकर, भूमि सुधार और खाद्य सुरक्षा योजना के जरिए कम करने की कोशिश तो की लेकिन नाकाम रहे क्योंकि त्रिपुरा पर सांस्कृति वर्चस्व किसका होगा यह सवाल हमेशा से यहां की राजनीति के केंद्र में बना रहा. लंबे शासन काल में बंगाली नौकरशाही और पार्टी में बंगालीवाद हावी हो गया था. आदिवासी मानिक सरकार को एक जननेता नहीं एक गरीब, सादगी पसंद बंगाली और सीपीएम को बंगालियों की पार्टी की तरह देखने लगे थे. आदिवासियों को सरकारी दफ्तर के बंगाली बाबुओं को ‘सर’ कहना सबसे अधिक अखर रहा था. दरअसल यह वाम-बंगालीवाद की हार है.
अब आरएसएस का जोर आदिवासियों के हिंदूकरण पर है ताकि भाजपा की इस जीत को स्थायी बनाया जा सके.
(तस्वीर ‘द हिंदू’ से साभार प्रकाशित)