मुकेश असीम
कुछ बातें हालांकि पूरी तरह जाहिर हैं पर फिर भी बार बार कहनी पड़ती हैं। हिंदू, मुस्लिम, ब्राह्मण, दलित, पिछड़े, बंगाली, तमिल वगैरह सब विभिन्न समूहों की अलग पहचान को स्थापित करते हैं। इन पहचानों की अस्मिता हमेशा खुद को सबसे अलग कर किसी दूसरी पहचान की अस्मिता से टकराव के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है, इसलिए अलग पहचान और उसकी अस्मिता के आधार पर होने वाली राजनीति से विभिन्न पहचानों में एकता की उम्मीद रखना ही सबसे बड़ी मृगमरीचिका है। ऐसी एकता अस्मिता की राजनीति के लिए खुदकुशी का रास्ता ही बन सकती है, मजबूती का नहीं। इसलिए कभी-कभी तात्कालिक रणकौशल के लिए किसी दूसरे समूह से एकता की बात करने पर भी अस्मितावादी राजनीति का सारा अफसाना बाकी सब के मुकाबले खुद को नाइंसाफी का शिकार दिखाने पर ही केंद्रित होता है। यह बात सिर्फ उन समुदायों के बारे में ही सच नहीं जो इतिहास में वास्तव में ही अन्याय का शिकार रहे हैं बल्कि शासक आभिजात्य के अंग रहे ब्राह्मण, क्षत्रिय जैसे समूह भी खुद को असली-नकली अन्यायों का शिकार दर्शा कर ही खुद को संगठित करते हैं। संघ की पूरी फासीवादी राजनीति का आधार भी तो यही अस्मितावादी विचार है – हजार साल तक वास्तविक-काल्पनिक अत्याचार झेलनेवाली हिंदू अस्मिता का उत्थान!
यही वजह है कि ब्राह्मणवादी पुरातनपंथी विचारों को अपना एक वैचारिक आधार बनाने वाली फासिस्ट ताकतों के विभिन्न तरह के पीड़ित समूह – मुस्लिम, दलित, पिछड़े, ईसाई, आदि भी कितनी ही कोशिश क्यों न करें, इन पहचानों के आधार पर एकता न बना पाए हैं, न ही कभी बना पाएंगे। वैसे भी ये अस्मिता समूह खुद में कोई समरूप समुदाय नहीं, ये खुद लगभग असंख्य अस्मिताओं में बंटे हैं जिनमें परंपरागत रूप से शिकवों-कड़वाहट ही नहीं सीधे टकरावों का लम्बा इतिहास है। उदाहरण के लिए अशराफ जमींदारों से धनी किसान बन चुके मुस्लिम समूहों से दलित खेत मजदूरों की एकता किस आधार पर मुमकिन है? इसी तरह पिछड़ी जातियों के धनी भूपति किसान ही आज ग्रामीण जीवन में दलित-पिछड़ी जातियों के कृषि-गैरकृषि मजदूरों के सीधे शोषक हैं, ये किस आधार पर संघी राजनीति के खिलाफ एक हों?
ऐसे भी हर समूह की अस्मिता की राजनीति का नेतृत्व उस समुदाय के संपत्ति मालिक हिस्से ही करते हैं। इससे कोई कितना भी इंकार क्यों न करे, सच यही है कि हर अस्मिता समूह में एक संपत्ति शाली तबका मौजूद है – सवर्ण हिंदू/अशराफ़ मुस्लिम जातियों में यह तुलनात्मक रूप से बड़ा हिस्सा है, पिछड़ी जातियों में थोड़ा कम और दलितों-आदिवासियों में और भी न्यून है,पर मौजूद है, और वही अस्मितावादी राजनीति को संचालित करता है। लेकिन इनके आपसी टकराव मात्र वर्तमान व्यवस्था के शीर्ष पर समायोजन और बहुसंख्यक मेहनतकशों द्वारा उत्पादित अधिशेष में बेहतर हिस्सा पाने की सौदेबाजी का हिस्सा हैं, अन्यथा इनके वर्ग हित समान हैं। इसीलिए एक दूसरे के खिलाफ आग उगलने के बावजूद असली मौकों पर पर हम इन सबको एक साथ ही खड़े पाते हैं। इनका मिला जुला स्वार्थ है – मेहनतकशों की एकता को तोड़ना, उनकी एकता तो इनके लिए जहर भरी पुड़िया है। इसलिए चाहे-अनचाहे, जानबूझकर या अनजाने, कभी इस्तेमाल होकर तो कभी बिककर, अस्मिता की राजनीति हमेशा शासक वर्ग द्वारा अपने हित में प्रयोग कर ली जाती है।
समाज में किसी भी तबके में एकता स्थापित करने के लिए उनके बीच समान हितों की समझ होना जरुरी है। अगर ऐसा हो तो जाति-धर्म के आगे जाकर उनके बीच एकता स्थापित हो सकती है। इसके बग़ैर जैसे हिंदू मुस्लिम सिक्ख ईसाई आपस में सब भाई भाई की बात एक वक़्त गांधी, आजाद, नेहरू जैसे व्यक्तित्वों के नेतृत्व के बावजूद निरर्थक प्रचार से आगे नहीं बढ़ पाई, और नतीजा लाखों का क़त्ल हुआ;वैसे ही आज की दलित पिछड़े मुस्लिम एकता की बात भी कतई बेमतलब ही रहेगी।
फासीवादियों के खिलाफ वास्तव में एकता चाहिए तो धर्म-जाति की पहचान व अस्मिता के आधार पर नहीं बल्कि बहुसंख्यक जनता के सेकुलर सवालों – जाति- धर्म-लिंग भेद रहित सभी के लिए समानता और मर्यादापूर्ण जीवन जीने के जनवादी अधिकारों, सभी के लिए शिक्षा-रोजगार-स्वास्थ्य-आवास के अधिकारों, आदि के आधार पर खड़े किये जाने वाले आंदोलनों-संगठनों की ही आवश्यकता है, उन्हीं को स्थापित करनी होगी। दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों में ही वह सबसे बड़ी मजलूम तादाद है जिन्हें इन अधिकारों की जरुरत है। उन्हें ही अपने धार्मिक और अन्य विश्वासों को निजी वैयक्तिक दायरे में रखकर इन सामूहिक आंदोलनों में शामिल होना होगा; इसी दायरे में वह फासीवादी तत्वों के अत्याचार से लड़ सकते हैं, अपनी स्वतंत्र पहचानों-अस्मिताओं की एकता के आधार पर तो कभी नहीं। उदाहरण के तौर पर मुसलमान अगर चाहें कि वे समाज के सामूहिक अन्याय विरोधी संघर्ष में शामिल हुए बग़ैर कुछ सवर्ण हिंदू विरोधी जातियों की हमदर्दी के आधार पर महफूज रह पाएंगे तो यह गलतफहमी होगी।