जस्टिस दलबीर भंडारी का दोबारा इंटरनेशन कोर्ट ऑफ जस्टिस में चुना जाना वाक़ई ख़ुशी की बात है, लेकिन मीडिया ने इस ख़बर को इस अंदाज़ में पेश किया है जैसे यह कोई पहली घटना है। मोदी सरकार के लिए रात दिन अहो रूपम-अहो ध्वनि वाले अंदाज़ में वंदना कर रहे मीडिया ने यह नहीं बताया कि भारत के जज पहले भी यह पद संभाल चुके हैं। राज्यसभा टीवी के पूर्व सीईओ गुरदीप सिंह सप्पल ने इस मोतियाबिंद पर एक ज़रूरी टिप्पणी की है, पढ़ें–
क्योंकि भारत का इतिहास सिर्फ़ तीन साल पुराना नहीं है …..
आजकल मीडिया बहुत देशभक्त है। गर्व करता है देश पर। भारत की हर सफलता पर पद्मावती के घूमर नाच कि तर्ज़ पर ऐसे झूमता हैं कि मज़ा आ जाता है। सीना फूल जाता है।
लेकिन कभी कभी थोड़ा सा शक भी होता है। मालूम नहीं ये देशप्रेम भारत की धरती माँ से है या फिर सिर्फ़ 2014 के बाद के भारत के सरकारी स्वरूप से है।
सवाल आज मन में यूँ उठा कि तीन दिन हो गए, हल्ला थमता ही नहीं कि जस्टिस दिलवीर भंडारी International Court of Justice (ICJ) में दोबारा जज चुने गए हैं।
अच्छी बात है, बधाई लायक है। लेकिन ये क्या प्रचार है कि पहली बार हुआ है, विश्व पटल पर भारत ने आख़िर दस्तक दे ही है, भारत को अब कोई नज़रअन्दाज़ नहीं कर सकता।
‘हम जहाँ खड़े हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है’ के तर्ज़ पर नेता लोग सोचें तो सोचें, आप तो देशभक्त भारतीय है। आप तो भारत की सरज़मीं से वफ़ा कीजिए।
बताइए न देश को कि भारत के बेनेगल नरसिंह राउ 1952 में ही ICJ के जज बन गए । ये वही बेनेगल हैं जिन्होंने भारत के संविधान का पहला ड्राफ़्ट तैयार किया था और फिर बाबा साहेब अम्बेडकर के साथ संविधान का फ़ाइनल प्रारूप लिखा था। मशहूर फ़िल्मकार श्याम बेनेगल इन्हीं के भतीजे हैं।
बताइए कि भारत का दबदबा आधुनिक विश्व में 1950 से बनने लगा था।
बताइए कि नागेन्द्र सिंह एक दो साल नहीं, पूरे पंद्रह साल, 1973-1988 तक ICJ में जज थे। यही नहीं, वो तीन साल तक ICJ के प्रेज़िडेंट भी थे, पूरे ICJ के अध्यक्ष!
बताइए कि जस्टिस रघुनन्दन स्वरूप पाठक, जो भारत के चीफ़ जस्टिस भी रहे, 1989 में ICJ में जज चुने गए थे।
बताइए भारत की असली गौरवगाथा, पूरी गौरवगाथा, क्यूँकि 1952, 1973, 1989 में भी भारत हमारी और आपकी ही मातृभूमि थी। वो भारत भी हमारा ही भारत था।
अगर उस वक़्त के भारत को आप अपना देश स्वीकार नहीं करेंगे, तो आपकी देशभक्ति पर प्रश्नचिन्ह लगने ही लगेंगे।
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