पिछले दिनों खबर आई कि दिल्ली की एक अदालत ने आतंकियों के साथ रिश्ते होने के आरोप में इरशाद अली नाम के एक शख्स को बरी कर दिया । करीब 11 साल तक आतंकी होने की तोहमत के साथ जी रहे इरशाद को अदालत ने बेदाग करार दिया । इस बीच उसकी ज़िंदगी जेल और ज़मानत के बीच झूलती रही। तकरीबन चार साल उसने सलाखों के पीछे गुज़ारे।
इस पूरे मामले में अहम बात ये रही कि केंद्र सरकार के मातहत काम करने वाली दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने इरशाद को झूठे केस में गिरफ्तार किया, जबकि केंद्र सरकार के ही मातहत काम करने वाली सीबीआई ने उन्हें इंसाफ दिलाया।
ऐसा नहीं है कि इरशाद ऐसे पहले शख्स हैं जिन्हें किसी सुरक्षा एजेंसी ने फर्जी मामले में गिरफ्तार किया और बाद में अदालत ने बरी कर दिया । अगर मीडिया में आने वाली खबरों पर गौर करें, तो आपको अक्सर ऐसे मामले नजर आ जाएंगे ।
जब भी ऐसी खबरें आती हैं कि किसी आरोपी को अदालत ने बेगुनाह करार दिया तो कई लोग कुछ देर के लिए ये सोचते हैं कि उस शख्स के साथ नाइंसाफी हुई, न जाने उसका कितना कीमती वक्त बर्बाद हुआ वगैरह-वगैरह ।
इस नाइंसाफी के लिए अमूमन लोग पुलिस और अदालत को कोसते हैं । लेकिन पुलिस और अदालतों को कोसते वक्त एक अहम पहलू पर विचार करना भूल जाते हैं । वो है मीडिया को कोसना । मीडिया को जवाबदेह बनाना ।
आपने गौर किया होगा कि जब भी किसी को आतंकवादी, उग्रवादी या अपराधी बताकर गिरफ्तार किया जाता है, तो अक्सर देखा जाता है कि पुलिस और सीबीआई जैसी सुरक्षा एजेंसियों का पक्ष तो सामने आता है, लेकिन गिरफ्तार किए गए लोगों का पक्ष कभी-कभार ही ठीक से रखा जाता है ।
ऐसा होने का प्रमुख कारण ये है कि खबर देने वाला रिपोर्टर सुरक्षा एजेंसियों के अधिकारियों की बातों को ही ‘सच’ मानकर खबरें देता है । गिरफ्तार किए गए शख्स को कभी “मास्टरमाइंड” कहा जाता है तो कभी “किंगपिन” कहा जाता है । ऐसा करते वक्त क्राइम रिपोर्टर कहीं न कहां पुलिस और अन्य सुरक्षा एजेंसियों का ‘प्रोपेगेंडा टूल’ बन जाता है ।
गाहे-बगाहे न्यूज चैनलों पर खबर चली रही होती है — “दिल्ली में चार आतंकवादी गिरफ्तार”, “हैदराबाद में आईएसआईएस के दो आतंकवादी गिरफ्तार”, “रायपुर में चार नक्सली गिरफ्तार”….और न जाने क्या क्या ।
ऐसी खबरें देते वक्त शायद ही कभी बताया जाता है कि गिरफ्तार किए गए लोगों को पुलिस आतंकवादी बता रही है, रिपोर्टर या न्यूज चैनल नहीं । गिरफ्तार किए गए लोगों को पुलिस नक्सली बता रही है, रिपोर्टर या न्यूज चैनल नहीं । हालांकि, कुछ अखबारों और न्यूज एजेंसी की खबरें चैनलों और न्यूज पोर्टलों के मुकाबले ज्यादा तथ्यपरक होती हैं ।
फिर सवाल पैदा होता है कि क्या रिपोर्टर या मीडिया हाउस अपने पूर्वाग्रहों के कारण ऐसा करते हैं । या वजह कुछ और होती है ?
मेरी राय में दोनों वजहें हैं । मीडिया हाउसेस और रिपोर्टर के कुछ अपने पूर्वाग्रह भी होते हैं जो अक्सर खबरों में दिख जाते हैं । लेकिन असल वजह है रिपोर्टर की कुछ मजबूरियां ।
हर मीडिया हाउस में रिपोर्टरों की बीट तय होती है यानी वो कौन से विभाग की रिपोर्टिंग करेंगे, ये तय होता है ।
बीट वाली व्यवस्था की सबसे बडी चुनौती ये है कि रिपोर्टर को अंदर की खबरें निकालने के लिए संपर्क की जरूरत पडती है । क्राइम रिपोर्टरों का संपर्क आला पुलिस अधिकारियों से भी होता है और कांस्टेबल स्तर के पुलिस कर्मियों से भी होता है । लेकिन संवेदनशील और बडे मामलों पर आला पुलिस अधिकारियों को ही मीडिया से बात करने की जिम्मेदारी सौंपी जाती है ।
ऐसे में जब इरशाद अली जैसे किसी शख्स को आतंकवादियों से रिश्ते रखने के आरोप में गिरफ्तार किया जाता है तो आला पुलिस अधिकारी को यह सुनिश्चित करना होता है कि पुलिस का पक्ष ही प्रमुखता से मीडिया में दिखाया और छापा जाए । अगर आरोपी के पक्ष पर मीडिया जोर देगा और मामले का झोल (यदि कोई झोल नजर आता है) सामने लाकर रख देगा तो पुलिस का केस कमजोर पड सकता है ।
यहीं रिपोर्टरों की असल चुनौती शुरू होती है । एक तरफ तो उसे पत्रकार होने के नाते मामले का सच सामने लाना होता है । लेकिन दूसरी तरफ इस बात का खतरा रहता है कि सच लिख और बोल देने से कहीं पुलिस में उसका संपर्क सूत्र न टूट जाए । पुलिस अधिकारी नाराज न हो जाएं । पुलिस के आला अधिकारियों तक उसकी पहुंच में कटौती न हो जाए । अगर रिपोर्टर की अपने संपर्क सूत्र तक पहुंच कमजोर पड गई, तो फिर वो खबर कहां से लाकर देगा ? अगर खबर नहीं लाकर देगा, तो उसे तरक्की कैसे मिलेगी ? नौकरी कैसे बचेगी ?
इसके अलावा, एक सच ये भी है कि कई मीडिया हाउस रोजाना इतने ‘गुनाह’ कर रहे होते हैं कि उनके मालिकों को पुलिस से अच्छे रिश्ते बनाकर रखने होते हैं । ताकि मुश्किल वक्त में पुलिस के आला अधिकारी मीडिया मालिकों और संपादकों की मदद के लिए आगे आएं । इसलिए ऐसे मीडिया हाउसेस को अपनी खबरों में अमूमन पुलिस का पक्ष प्रमुखता से प्रकाशित-प्रसारित करना पडता है, भले ही खबर में पूरी सच्चाई न हो ।
लेकिन सवाल पैदा होता है कि क्या किसी रिपोर्टर या मीडिया हाउस को हक है कि वो आतंकवादी या नक्सली बताकर गिरफ्तार किए गए किसी शख्स की जिंदगी बर्बाद करने में पुलिस की मदद करे ?
क्या रिपोर्टरों को ये एहसास नहीं होता कि किसी को इंसाफ दिलाने में जितनी भूमिका पुलिस और अदालत की होती है, उतनी ही भूमिका मीडिया की भी होती है ?
क्या रिपोर्टरों को ये नहीं पता कि मीडिया में आने वाली खबरों से भी अदालत प्रभावित होती है ? क्या उन्हें ये नहीं पता कि अगर वो सच बताएंगे तो अदालत को पूरा मामला समझने में सहूलियत होगी ?
अगर रिपोर्टरों के जरिए सभी मीडिया हाउसेस ने दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की थियरी के झोल गिनाए होते, तो क्या इरशाद को 11 साल जेल में बिताने पडते ?
अगर मीडिया हाउसेस ने सच दिखाया होता तो क्या इरशाद पर “आतंकवादी” होने का धब्बा कभी लगता ?
इन सवालों पर सोचने की जरूरत है । सिर्फ ये दलील देकर इस गंभीर पहलू को नजरंदाज नहीं किया जा सकता कि रिपोर्टर की भी कुछ मजबूरियां होती हैं !
( लेखक युवा पत्रकार हैं )