‘गौ-रक्षा इकॉनमी’ में पहलू और रकबर ख़ान का क़त्ल तय है!



विकास नारायण राय

 

 

विश्वास प्रस्ताव पर संसद में मोदी सरकार देश में विकास के आंकड़े गिना रही थी और पड़ोसी गुडगाँव में आयोजित धर्म संसद में भाजपा के भगवा संत, देश के हालात को बहुसंख्यक हिन्दुओं के लिए चिंताजनक बता रहे थे। हिंदुत्व की राजनीति में ऐसी विडम्बना नयी नहीं है। लेकिन इसी टक्कर की न्यायिक विडम्बना भी देखने को मिली जब सुप्रीम कोर्ट के मॉब लिंचिंग रोकने के सख्त निर्देश के समानांतर पड़ोस के ही एक दूसरे शहर अलवर में रकबर खान की मॉब लिंचिंग होने दी गयी।

लगता है, अविश्वास प्रस्ताव पर खोखली बहस करती संसद की तरह, सुप्रीम कोर्ट भी लोकतान्त्रिक आशंकाओं को संतुष्ट नहीं कर सकेगी। हिंदुत्व के खाँटी पैरोकारों से अधिक कौन इसे जानेगा! उपरोक्त लिंचिंग परिघटना को गौ- राजनीति की सफलता और गौ-इकॉनमी की विफलता की मिली-जुली बानगी कहना गलत नहीं होगा। इस सन्दर्भ में योगी की टिप्पणी ने उक्त सफलता को ही रेखांकित किया,- ‘गाय का महत्व मनुष्य जितना’; जबकि इन्द्रेश कुमार के वक्तव्य में उक्त विफलता की झलक है,-‘बीफ खाना छोड़ो तो लिंचिंग रुक जायेगी।’

हुआ यह है कि हिंदुत्व के एजेंडे पर गौ रक्षा की राजनीति तो जड़ जमा चुकी है लेकिन इसे व्यापक आधार देने में सक्षम गौ-इकॉनमी नहीं बनायी जा सकी। लिहाजा, गौ-इकॉनमी की जगह गौ-रक्षा इकॉनमी अपनी तरह से पाँव पसारने में लगी हुयी दिखेगी। परिणामस्वरूप, गाय का नाम लेकर मोदी राज में मॉब लिंचिंग की करीब सौ घटनाएं हो चुकी हैं। यहाँ तक कि, कुछ में गैर मुस्लिम भी शिकार बने हैं।

क्या अचरज भरा नहीं लगता, कितनी आसानी से राजस्थान सरकार ने मान लिया है कि रकबर की नृशंस मौत उसकी पुलिस की हिरासत में हुयी है! पहले  डीजीपी ने और फिर स्वयं गृह मंत्री ने इसे स्वीकार किया। अमूमन ऐसा होता नहीं है, तुरंत तो शायद ही कोई सरकार इस तरह से अपनी पुलिस की करतूत स्वीकारने आगे आती हो। अलवर के लिंच मॉब संरक्षक कहे जाने वाले भाजपा विधायक ज्ञानदेव आहूजा ने भी पुलिस को कोसने का सरकारी नजरिया अपनाया। निश्चित ही उन्हें अपने गौ-रक्षकों के आर्थिक हितों की फिक्र है।

नहीं, इसमें सुप्रीम कोर्ट के मॉब लिंचिंग को लेकर राज्य सरकारों को जारी दिशा निर्देश का असर देखना, गौ-रक्षक इकॉनमी के असर को कम करके आँकना होगा। दरअसल, गौ रक्षक घटना स्थल पर रकबर को पीट कर और पुलिस उसे एक गौ तस्कर के रूप में थाने ले जाकर अपनी समझ में रूटीन भूमिका ही निभा रहे थे। वह मर जाएगा, इससे बेखबर। मौके पर पुलिस दल का नेतृत्व कर रहे पुलिस एएसआई के ‘पश्चाताप’ का यही मतलब तो रहा होगा जब उसने माना कि ‘गलती हो गयी’|

सफल राजनीति को भी असफल इकॉनमी ज्यादा दूर तक नहीं ढो सकती।अलवर क्षेत्र में किसी सड़क पर निकल जाइए,गाँव या कस्बे की ही नहीं शहर की भी, आवारा गौ वंश मस्ती करते मिलेंगे। जगह-जगह गौशालाओं के बोर्ड होंगे। यह सरकारी संरक्षण में पनपी गौ रक्षा इकॉनमी का साक्षात मॉडल है। इसकी सफलता में एक अपेक्षाकृत कम चर्चित आयाम का भी बड़ा हाथ है- यह है, पशु और दीगर माल ढुलाई से होने वाली आय पर कब्जा जमाने का।

अलवर में खेतों को काँटों की बाड़ से घेरने का रिवाज यूं ही नहीं चल पड़ा है। स्वयं योगी के पूर्वी उत्तर प्रदेश का किसान छुट्टे गौ वंश से अपनी फसलों को बचाने की चिंता करता मिल जायेगा। यहाँ पशुओं को पहले पशु व्यापारी गाँव-गाँव जाकर इकट्ठा करते थे; अब हिन्दू किसान स्वयं मुस्लिम व्यापारियों के हवाले कर आते हैं। बीएसएफ के आंकड़े ताईद करेंगे कि लाख कड़े कानून बनाने के बावजूद, इन्द्रेश के राज्य हरियाणा से भी पशुओं का पहले की ही भांति बांग्लादेश सीमा पर पहुँचाया जाना कम नहीं हुआ है|

‘गौ इकॉनमी’ और ‘गौ रक्षा इकॉनमी’ में स्पष्ट अंतर है। गौ इकॉनमी, जो गाय की उत्पादकता से जुड़ी है, का स्वाभाविक नियम होगा कि दूध के लिए उपयोगी गाय को बेचते हैं, मारते नहीं। गौ रक्षा इकॉनमी की सेहत के लिए गाय की उपयोगिता का उसकी उत्पादकता से सम्बन्ध जरूरी नहीं। सफल ‘गौ इकॉनमी’ में मेवात के पहलू खान और रकबर खान की अलवर में लिंचिंग नहीं हुयी होती; जबकि ‘गौ रक्षा इकॉनमी’ को सफल रखने के क्रम में दोनों क़त्ल कर दिए गये|

उत्तर भारत के भाजपा शासित राज्यों में गौशालायें, गौ रक्षा इकॉनमी का केंद्र बनी हुयी हैं। प्रति पशु सरकारी अनुदान के अलावा, काला धन और धौंस से उगाही भी इनकी आय के स्रोत हैं। यह एक विशुद्ध परजीवी इकॉनमी है, जिसमें अधिकांश गौशालायें घोर आर्थिक कुप्रबंधन का शिकार मिलेंगी। इनका संचालन सत्ताधारी दबंगों की मुफ्तखोरी के अड्डे के रूप में हो रहा है। इनमें बड़े पैमाने पर पशुओं की मृत्यु और ग़बन के आरोप आम बात हैं। जाहिर है, अकेले दम ये गौशालायें अनंत मुफ्तखोरी का स्रोत नहीं हो सकतीं।

यहाँ, अवसर अनुसार, ट्रांसपोर्ट से कमाई का आयाम, गौ रक्षा इकॉनमी से एक और संजीवनी के रूप में जुड़ जाता है। अलवर-मेवात क्षेत्र को ही लें तो इसके पड़ोस में चारों तरफ कितने ही नये औद्योगिक केंद्र मिलेंगे जहाँ ढोने के लिए माल की कमी नहीं, खेती और मंडी की पारंपरिक ढुलाई की मांग तो यहाँ है ही। फिलहाल,जोखिम भरी गौ वंश की ढुलाई ऊंचे रेट देती है|

ताजातरीन रकबर काण्ड से हफ्ता भर पहले पड़ोसी कस्बे तावडू की कंपनी का माल ला रहे एक मुस्लिम ट्रक ड्राइवर को अलवर में ही गौ-तस्कर बताकर जम कर पीटा गया था। दरअसल, तथाकथित गौ रक्षकों ने छोटे-बड़े माल ढोने के वाहन रखे हुए हैं जिनका मनचाहा किराया वसूलने के लिए वे प्रतिद्वंद्वी को मार-पीट से डराते रहते हैं। मौजूदा माहौल में, गौ तस्करी का सहज बहाना भी उन्हें मिला हुआ है|

कमजोर सिंचाई और शिक्षा में पिछड़े होने के कारण मेवात-अलवर क्षेत्र के मुस्लिम समुदाय के लिए पशु पालन के अलावा ड्राइविंग कौशल और ट्रांसपोर्ट, रोजगार का खासा जरिया रहे हैं। उन्हें गौ तस्करी के निशाने पर लेकर प्रतिद्वंद्विता से बाहर करने में आसानी रहती है। पहलू खान के कत्ल के एक साल में पशु ट्रांसपोर्ट का समीकरण यह हो चुका है कि खरीदी गाय को ले जाने में न तो रकबर अपना लाया वाहन इस्तेमाल कर सकता था और न ‘गौ रक्षक’ संचालित वाहन का किराया बर्दाश्त कर सकता था। वह रात के अँधेरे में पैदल गाय लेकर चला और मारा गया।

इन परिस्थितियों को ध्यान में लिए बिना यदि सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों की पालना में गठित मोदी सरकार की हाई पॉवर समिति की कवायद से मॉब लिंचिंग रोकने का कोई कानून बना भी तो न वह गौ राजनीति पर और न गौ रक्षक इकॉनमी पर असरदार साबित होगा। यानी रकबर को अंतिम गौ लिंचिंग मानना अतिशय आशावादिता होगी।

प्रधानमन्त्री मोदी अपनी ताबड़तोड़ विदेश यात्राओं में सतही भाव-भंगिमाओं के लिए जाने जाते हैं। फिलहाल वे, रुआंडा जैसे गौ इकॉनमी वाले देश की गायों के बीच फोटो का समय निकाल सके हैं। हालाँकि, क्या वे सीखेंगे कि भारत में भी गौ इकॉनमी को धर्म का ‘परजीवी’ नहीं व्यवसाय का ‘स्वावलंबी’ आधार देने की जरूरत है?

 

(अवकाश प्राप्त आईपीएस विकास नारायण राय, हरियाणा के डीजीपी और नेशनल पुलिस अकादमी, हैदराबाद के निदेशक रह चुके हैं।)

 

#मूल चित्र NewsClick से साभार।