ग्राउंड रिपोर्ट : छत्तीसगढ़ में राजघराने की रवायतें रोक सकतीं हैं कांग्रेस का विजय रथ



पिछले 15 सालों से दोनों बड़े दलों के बीच की यह जुगलबंदी वास्तव में आज की राजनैतिक हकीक़त है जहां दोनों दलों के असल आका एक ही हैं। नयी अर्थव्यवस्था के तहत छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों की कार्पोरेटी लूट को अलग-अलग राजनैतिक दलों की केंद्र व राज्य सरकार ने मिलकर अंजाम तक पहुंचाया उसमें दलगत भेदभाव कभी आड़े नहीं आए


सत्यम श्रीवास्तव / छत्तीसगढ़ से लौटकर

राजनीति कला है या विज्ञान? तर्क सहित व्याख्या करें। यह सवाल राजनीति शास्त्र के विद्यार्थियों से परंपरागत ढंग से पूछा जाता रहा है। इधर जब से मीडिया अति सक्रिय हुई है और लोगों का मानस बनाने में सक्षम हो गयी है तब से एक नयी धारणा भी अपनी पैठ बना चुकी है कि राजनीति कला या विज्ञान है यह मुकम्मल न भी हो तब भी यह धारणाओं का शास्त्र ज़रूर बन गयी है।

छत्तीसगढ़ में पहली राजनैतिक धारणा जो एक तथ्य की तरह स्थापित हो चुकी है कि यहाँ मुक़ाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही है। वामपंथी राजनैतिक दल अपनी मौजूदगी सड़कों पर ज़रूर दिखाते रहते हैं पर चुनावी समर के लिए यथेष्ठ औज़ार उनके पास नहीं हैं। इन दोनों मुख्य पार्टियों को लेकर इस बार भी धारणाओं का बाजार गरम है। छत्तीसगढ़ के बारे में लोग कहते आए हैं कि यहाँ भारतीय जनता पार्टी तब तक सत्ता में पुनर्वापसी करती रहेगी जब तक कांग्रेस ऐसा चाहेगी। भाजपा ने डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में यहाँ लगातार तीन बार सरकार बनाई है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में भी यह कहा जाता रहा कि प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह की उदारवादी अर्थव्यवस्था को लागू करने में डॉ. रमन सिंह अन्य कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की तुलना में कहीं आगे रहे हैं और निर्विवाद रूप से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी की पहली पसंद भी। तब के गृहमंत्री पी. चिदम्बरम  भी डॉ. रमन सिंह की भरसक सराहना करते रहे हैं। छत्तीसगढ़ कांग्रेस के दिवंगत नेता और सलवा जुड़ुम जैसे हिंसक ऑपरेशन के प्रणेता महेंद्र कर्मा, रमन सिंह के नेतृत्व में काम करते रहे हैं।

कांग्रेस ने सत्ता में वापसी के कई मौके छोड़े हैं जिसे लेकर भाजपा सरकार से मोह भंग करे बैठी जनता भी हैरान होती रही है। एक मौका था जब 25 मई 2013 में चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के शीर्ष प्रदेश नेतृत्व को जीरम घाटी में एक साथ नक्सल हमले में खो देना पड़ा और तब जनता की सहानुभूति कांग्रेस के साथ थी लेकिन कांग्रेस इस अवसर को भुना नहीं पाई बल्कि किसी तरह चुनाव लड़ने की औपचारिकता ही पूरी की।

इसके अलावा 2014 में अनतागढ़ विधानसभा उपचुनाव में ऐसा भी शर्मनाक अवसर कांग्रेस के लिए आया जब उसके प्रत्याशी मंतू राम पवार ने अपना नामांकन वापस ले लिया। इसमें लेन-देन की अटकलें लगाईं गईं पर कुल मिलाकर यह दोस्ताना रिश्तों पर मुहर लगाने वाली घटना तो रही ही।

पिछले 15 सालों से दोनों बड़े दलों के बीच की यह जुगलबंदी वास्तव में आज की राजनैतिक हकीक़त है जहां दोनों दलों के असल आका एक ही हैं। नयी अर्थव्यवस्था के तहत छत्तीसगढ़ में प्राकृतिक संसाधनों की कार्पोरेटी लूट को अलग-अलग राजनैतिक दलों की केंद्र व राज्य सरकार ने मिलकर अंजाम तक पहुंचाया उसमें दलगत भेदभाव कभी आड़े नहीं आए।

यह भी कहा जाता रहा कि कांग्रेस की तरफ से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी भाजपा को प्रदेश में ‘वाक ओवर’ दिलाते रहे हैं और कांग्रेस की हार से ज़्यादा भाजपा की जीत में उनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। इस निष्कर्ष तक ठोस रूप से पहुँचने में हालांकि कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व को ज़्यादा समय लगा और अंतत: जून 2016 में अजीत जोगी की विदाई कांग्रेस से हुई। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की पत्नी रेणु जोगी जी अब भी कांग्रेस में हैं।

अजीत जोगी अनुभवी नेता हैं और हाल ही में बसपा की शर्तों पर उसके साथ गठबंधन किया है वह हालांकि उनके लिए कुछ पाने से ज़्यादा कुछ नहीं खोने के व्यावहारिक सिद्धान्त के अनुकूल ज़्यादा है पर इतना निश्चित है कि इस कवायद से कांग्रेस के वापिसी के अवसरों पर गहरा प्रहार हुआ है। अब सूत्रों के हवालों से खबर यह भी आ रही है गोंडवाना गणतन्त्र पार्टी भी आज कल में इस गठबंधन का अभिन्न हिस्सा होने जा रही है। ऐसे में यह गठबंधन जितना खुद के जीतने के लिए लड़ेगा उससे ज़्यादा बड़ा लक्ष्य कांग्रेस को चित्त करना होगा। भाजपा स्वाभाविक रूप से इस बड़े खेल का एक हिस्सा है जो परिधि में खेल रही है।

सत्ता विरोधी लहर इस बार भी प्रदेश में है और कांग्रेस पिछले तीन चार सालों से यहाँ एक मजबूत विपक्ष बनने की कोशिश करती दिखाई दी है। जनहित से जुड़े मुद्दों पर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल विधानसभा और सड़क पर जुझारू ढंग से संघर्ष करते हुए भी दिखाई दिये। मुद्दा चाहे लघुवनोपज से जुड़े ‘महुआ नीति’ का हो या पंचायतों को उनके मूलभूत दायित्वों को पूरा करने के लिए मुहैया कराये गए चौदहवें वित्त आयोग के धन को मोबाइल कंपनी के टावर खड़े करने के लिए राज्य कैबिनेट द्वारा आबंटित कर दिये जाने का हो या महिला कर्मचारियों को वैतनिक प्रसव व बच्चे की परवरिश के लिए दिये जाने वाले मातृत्व अवकाश का हो यहाँ तक कि राज्य सरकार की आबकारी नीति के मामले में भी भूपेश बघेल ने अपने तेवरों से यह संकेत दिये कि इस बार कांग्रेस ने कमर कस ली है और वह भाजपा को विस्थापित करेगी। भूपेश बघेल की गिरफ्तारी ने और उनके द्वारा जमानत न लेकर जेल जाने के चयन से उनका जुझारूपन फिर साबित हुआ है। भूपेश के इस कदम ने भाजपा सरकार को असहज ज़रूर किया है पर पूरे मैदान पर चल रहे खेल में यह कदम एक ऐसे क्षण में सिमट गया है जिस पर ज़रूरी नहीं कि दर्शकों का ध्यान गया ही हो।

बीते छ: महीने में कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व और राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जिस तरह से अपने तेवर पैदा किए उससे यह आश्वस्ति कांग्रेस के कार्यकर्ताओं और प्रदेश की जनता को मिली कि अब छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस के दिन फिरेंगे और बीते चार साल में प्रदेश कांग्रेस ने इस दिशा में मुखर ढंग से विपक्ष की भूमिका निभाई। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जिस स्पष्टता व दृढ़ता के साथ कार्पोरेट्स को बीते महीनों में निशाना बनाया उससे यह बात पुष्ट होने लगी कि इस बार उद्योगपतियों के लिए जन्नत बन चुके छत्तीसगढ़ में जनता की नुमाइंदगी करने के लिए सबसे पुरानी पार्टी नए अवतार में आ रही है।

राहुल गांधी के बदले तेवरों का संज्ञान पूरे देश में लिया जा रहा है और इससे ‘सत्ता के अंतरंगी पूंजीवाद’ (क्रोनी कैपिटलिज्म) का रहस्य खुलता जा रहा है। ऐसे में यह नयी बदली हुई कांग्रेस स्वाभाविक रूप से छत्तीसगढ़ की पीड़ित जनता की पहली पसंद होने की सलाईयतें पैदा कर सकी है। सत्ता विरोधी लहर तो खैर पिछले दो विधानसभा चुनावों से मौजूद ही है।

हाल में घटी कुछ घटनाओं और नेता प्रतिपक्ष के बयानों ने छत्तीसगढ़ में फिर उसी धारणा को पुष्ट करने की शुरूआत कर दी है कि कांग्रेस की तरफ से इस दफा फिर भाजपा की सरकार ही निर्वाचित कराई जाएगी। यह दो महत्वपूर्ण मौके रहे जब नेता प्रतिपक्ष श्री त्रिभुवनेश्वर सरन सिंह (टी.एस. बाबा) ने विधानसभा के अंदर (जुलाई 2018) गौतम अडानी से अपनी मित्रता का इज़हार किया और दूसरा मौका जो दो-तीन दिन पहले (18 सितंबर) को आया जब उन्होंने जशपुर जिले के कुनकुरी में एक वक्तव्य में कहा कि– दिलीप सिंह जूदेव के परिवार से अगर कोई चुनाव लड़ता है तो वो उसके खिलाफ प्रचार नहीं करेंगे क्योंकि जू देव के उन पर बहुत एहसान हैं और आज अगर वो विधायक हैं तो उन्हीं की वजह से। उनके लिए व्यवहार और संबंध राजनीति से ऊपर हैं’।

यह देखना बहुत दिलचस्प है कि टी.एस. बाबा के इस वक्तव्य के जवाब में दिलीप सिंह जू देव के वारिस युद्दवीर सिंह ने उन्हें न केवल आभार दिया बल्कि यह भी कहा कि– ‘दादा आप बेहतरीन सीएम साबित होंगे’। आम तौर पर चुनावी माहौल में इस तरह के बयानों पर राजनैतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व से सफाई या टीका टिप्पणियाँ आती हैं पर आज 3-4 दिन बीत जाने के बाद भी दोनों ही दलों से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी है।

बीते 18 सितंबर को बिलासपुर में मंत्री अमर अग्रवाल के घर के बाहर प्रदर्शन कर रहे कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर पुलिस ने बर्बरतापूर्ण कार्रवाई की और कांग्रेस भवन के अंदर से कांग्रेसियों को खींच कर पीटा उससे एक त्वरित निष्कर्ष यह निकाला जा रहा है कि इस बार भाजपा को वरदहस्त राजघरानों से मिल चुका है और सरकार बेखौफ ढंग से कांग्रेस की मिट्टी पलीद करने में लग गयी है।

आज जिस स्थिति में आदिवासी बहुल सरगुजा को पहुंचा दिया गया है वहाँ कांग्रेस स्वाभाविक रूप से यहाँ की जनता की पहली पसंद है। बेतहाशा खनन, सड़क दुर्घटनाएँ, कुपोषण, वन संपदा को आदिवासी समाज से बलात हड़पकर चुनिन्दा उद्योगपतियों को देने का सिलसिला जिस गति से जारी है उसमें यह एक बहुत बड़ा अवसर है जब खुद नेता प्रतिपक्ष कांग्रेस की ज़मीन तैयार कर सकते हैं पर यह चुनी हुई उदासीनता कई अन्य संकेत देते हैं।

पाँचवीं अनुसूची के बेजाँ कृत्य/व्याख्या की खिलाफत करते समय नेता प्रतिपक्ष श्री टी.एस.बाबा शायद  यह भूल गए कि खुद उनके विधानसभा क्षेत्र और उनके अपने शहर अंबिकापुर में पिछले तीन चार सालों से धारा 144 थोपी गयी है।

इसकी एक वजह यह बताई जाती है कि इस इलाके में अडानी द्वारा संचालित कोयला खदानों से कोयले का परिवहन गैर कानूनी ढंग से बड़ी मात्रा में सड़क मार्ग से होता है और लगभग हर रोज़ बेतहाशा भागते ओवेरलोडेड ट्रकों से दुर्घटनाएँ हो रही हैं जिसके विरोध में ग्रामीणों द्वारा सतत आंदोलन किए जाते हैं। इन आंदोलनों को दबाने के लिए धारा 144 आरोपित की गयी है, लेकिन इस मामले पर नेता प्रतिपक्ष की उदासीनता कई और अटकलों की तरफ इशारा करती हैं।

कांग्रेस के लिए चुनाव के ठीक पहले की यह स्थिति बहुत प्रतिकूल दिशा में जा रही है। हो सकता यह पार्टी का चयन हो पर कुल मिलाकर यह ‘दोस्ताना’ प्रदेश की जनता के लिए ठीक नहीं है। एक प्रमुख राजनैतिक दल का बदलाव के लिए बेचैन जनता की नुमाइंदगी करने से बचना और राजघराने के आपसी संबंध निभाना अंतत: लोकतन्त्र के लिए ठीक नहीं है।