चंद्रभूषण
क्या बीजेपी से डरी कांग्रेस ने खुद हिंदुत्व का दामन थाम लिया है? क्या उसने अपनी धर्म निरपेक्षता को कूड़ेदान में डाल दिया है? ऐसे सवाल इन दिनों लगातार उठ रहे हैं। लेकिन हकीकत यह है कि भारत में मुख्यधारा की राजनीति धर्म-संस्कृति से दूरी बनाकर चलने की आदी कभी नहीं रही। 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद कुछ समय तक उसके नेताओं ने पश्चिमी ढंग की शब्दावली जरूर इस्तेमाल की, लेकिन फिर जल्द ही उन पर देश के पश्चिमी और पूर्वी छोरों से उठे धार्मिक-सांस्कृतिक आंदोलनों का प्रभाव दिखाई पड़ने लगा।
गुजरात से उभरे स्वामी दयानंद सरस्वती (1824-1883) के आर्य समाज आंदोलन का असर हिंदू महासभा के साथ-साथ कांग्रेस के गरमदली नेताओं पर भी था। वी डी सावरकर, मैडम कामा, मदनलाल धींगड़ा और राम प्रसाद बिस्मिल से लेकर लाला लाजपत राय तक इससे प्रभावित थे। सावरकर ने अपनी किताब ‘हिंदुत्व : हू इज हिंदू?’ में धर्म की इस समझ को राजनीतिक शक्ल दी। लेकिन ज्यादातर बड़े नेताओं के लिए राजनीति का मुख्य मंच कांग्रेस ही रही, हिंदुत्व उनकी राजनीतिक विचारधारा नहीं बन पाया।
इसके विपरीत देश के पूर्वी छोर बंगाल से उभरी विवेकानंद (1863-1902) की आध्यात्मिक विचारधारा ने देश के राजनीतिक-अराजनीतिक, हर तरह के मिजाज को प्रभावित किया, साथ ही पश्चिमी दुनिया पर भी इसने उतना ही गहरा असर डाला। विवेकानंद की विचार यात्रा राजा राममोहन राय (1772-1833) द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज की एक शाखा से जुड़कर शुरू हुई थी। जैसा कि हम जानते हैं, यह धारा सनातन धर्म में मौजूद सती प्रथा जैसी कुरीतियों को खारिज करके ही अस्तित्व में आई थी। लिहाजा विवेकानंद की सोच में हिंदू परंपरा पर एकतरफा गर्व करने जैसी कोई बात नहीं थी। उन्हें अपने धर्म में गर्व करने लायक कोई और ही चीज दिखती थी, जिसे खोजने-निखारने में उन्होंने अपना छोटा सा लेकिन भरपूर जीवन समर्पित कर दिया। ईश्वर और मनुष्य के बीच सीधे संवाद की यह पुकार उन्हें बाकी धर्मों में भी मिलती थी, सो उनसे टकराव में जाने की कोई वजह वे नहीं देखते थे।
अन्य धर्मों को पराया मानकर उनसे जूझने वाला सावरकर का हिंदुत्व और सभी धर्मों की एकता पर जोर देने वाला विवेकानंद का दार्शनिक हिंदू धर्म एक ही देश, एक ही समाज में एक साथ रहकर भी स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान काफी समय तक एक-दूसरे से टकराव में नहीं गए तो इसकी वजह शायद यह थी कि राजनीतिक हिंदुत्व का दायरा इसके नेताओं की लाख कोशिशों और ब्रिटिश हुकूमत के नरम रुख के बावजूद उस समय छोटा ही रहा। देश का आम आदमी खुद को गांधी की सोच के ज्यादा करीब पाता था, जिसमें धर्म से जुड़ी भव्यताओं के लिए ज्यादा जगह नहीं थी और जिसका यकीन स्वामी विवेकानंद की ही तरह ‘दरिद्र नारायण’ में था। लेकिन 1920 का दशक बीतने के साथ भारतीय राजनीति का स्वरूप तेजी से बदला और पहली बार देश में बड़े पैमाने का सांप्रदायिक विभाजन देखने को मिला। ऐसे में धार्मिक प्रतीकों का जोर बढ़ा और दार्शनिक हिंदू धर्म का प्रभाव पहली बार राजनीतिक कार्यकर्ताओं में कम होता दिखा।
इस मोड़ पर डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन (1888-1975) की प्रस्थापनाओं ने कांग्रेस के नेताओं को काफी मदद पहुंचाई। दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद, दोनों से प्रभावित लेकिन सनातन परंपराओं में रचे-बसे डॉ. राधाकृष्णन स्वतंत्रता आंदोलन के अंत तक अराजनीतिक बने रहे। उनकी एक अंतरराष्ट्रीय अकेडमिक पहचान थी और पूरी दुनिया में उन्हें हिंदू धर्म पर अपने समय की सबसे बड़ी अथॉरिटी माना जाता था। उन्होंने हिंदू धर्म को आध्यात्मिक समझ की एक विराट पद्धति के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें बिना किसी टकराव के हर तरह की आस्था के लिए जगह मौजूद है। परम तत्व को पूजने वाले, व्यक्तिगत ईश्वर के उपासक, अवतारों में विश्वास रखने वाले, देवी-देवताओं के आराधक, यहां तक कि पूर्वजों और भूत-प्रेतों में आस्था रखने वाले भी इस धर्म में एक हद तक सम्मान के पात्र हैं।
स्वाधीन भारत के कांग्रेस नेतृत्व ने धर्म-दर्शन के मामले में डॉ. राधाकृष्णन की सोच का अनुसरण किया, और आज भी अगर वह राजनीति की कोरी पश्चिमी शब्दावली छोड़कर इस रास्ते पर लौटता है तो इसे उसका अपनी जड़ों से जुड़ना ही कहा जाएगा।
(स्वामी विवेकानंद)
चंद्रभूषण वरिष्ठ पत्रकार हैं, नवभारत टाइम्स से जुड़े हैं।