प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के इस दावे के बीच कि देश में सबकुछ अच्छा चल रहा है, ग्रामीण भारत के रोजगार और आर्थिक पक्ष से आने वाली खबरें चिंतित करती हैं। पांच ट्रिलियन की इकोनाॅमी बनाए जानेे के दावों के बीच डूब रही अर्थव्यवस्था पर ध्यान देने के बजाए जब केन्द्र सरकार गाय और गोबर में राष्ट्रीय गौरव और भारत के स्वर्णिम अतीत की तलाश कर रही है- तब समाज के उस तबके की बात करना बहुत जरूरी हो जाता है जिसे मंदी में डूबती अर्थव्यवस्था के सबसे ज्यादा दुष्परिणाम झेलने पड़ रहे हैं। मोदी सरकार के दावों के ठीक उलट आज ग्रामीण भारत अभूतपूर्व संकट से जूझ रहा है। पिछले छह सालों में ग्रामीण अर्थव्यवस्था की उपेक्षा के घातक दुष्परिणाम हमारे सामने है।
सबसे निराशाजनक यह है कि सरकार ऐसे किसी संकट को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। संकट के समाधान की दिशा में बढ़ना तो बहुत दूर की बात है। ऐसा लगता है कि विपक्ष के पास भी इस संकट को सुनने-समझने और उठाने का समय नहीं है।
गौरतलब है कि अर्थव्यवस्था में गहराती मंदी के बीच ग्रामीण भारत, जो इस देश की सत्तर फीसद आबादी वाला विशाल उपभोक्ता क्षेत्र और अर्थव्यवस्था की रीढ़ है- उदारीकरण के बाद अपने सबसे संकटपूर्ण दौर में है। आज आम श्रमिक और किसान के पास खर्च करने के लिए जरूरी नकदी तक नहीं है। इस संकट का प्रभाव अर्थव्यवस्था में इस कदर दिखायी दे रहा है कि दो रुपए का शैंपू और बिस्किट के पैकेट की बिक्री तक गिर गयी है।
दरअसल ग्रामीण क्षेत्र की जमा पूंजी नोटबंदी के नाम पर बैंकों में तो पहुंच गयी लेकिन सरकार ग्रामीण क्षेत्र को नए सिरे से ’परचेजिंग’ पाॅवर दे पाने में असफल रही। खेती में विकास दर ऋणात्मक है। कृषि में महंगी उत्पादन लागत से किसानों की कमर टूट चुकी है। खेती किसानों को क्रय शक्ति नहीं दे पा रही है। किसानों के सामने दूसरा संकट यह है कि खेती में साल के कुछ महीने ही रोजगार होता है। जब खेती में काम नहीं है तब किसान के पास नकदी के लिए कोई रोजगार नहीं है। मनरेगा का बजट खत्म हो चुका है और सरकार के पास इसे देने के लिए और ज्यादा पैसा नहीं है। मनरेगा में मिलने वाली मजदूरी इतनी कम होती है कि आसमान छूती मंहगाई में किसानों के पास कुछ खास पैसा नहीं बचता।
बात यहीं तक सीमित नहीं है। ग्रामीण भारत की एक बड़ी आबादी असंगठित क्षेत्र में रोजगार की तलाश करती है। महानगरों और बड़े शहरों में मजदूरों का प्रवास ग्रामीण इलाकों से इसीलिए होता है ताकि ग्रामीण इलाकों में ’नकद’ रुपया पहुंच सके। उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल, बिहार और झारखंड का ग्रामीण समुदाय बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र में काम करता है। इन श्रमिकों के काम करने का मुख्य क्षेत्र सड़क बनाना, विनिर्माण क्षेत्र में दिहाड़ी करना, ईंट भट्ठों पर काम करना, पल्लेदारी आदि है। इन क्षेत्रों में हालात बहुत खराब हैं और श्रमिकों का नियोजन बहुत घट गया है। अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग चार करोड़ असंगठित श्रमिक हैं। इस संख्या का लगभग आधा केवल दिहाड़ी करके जीवन यापन करता है। मतलब यह है कि इन श्रमिकों के पास कोई परमानेंट नौकरी नहीं होती और ज्यादातर को पूरे माह काम नहीं मिलता है। हाल ही में मैं उत्तर प्रदेश और झारखंड में असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले कई श्रमिकों से मिला। ज्यदातर मुंबई, नोएडा, भोपाल और बंगलौर से हाल ही में सिर्फ इसलिए वापस लौट आए थे क्योंकि उनके पास शहरों में काम नहीं था। वह इतना नहीं कमा पा रहे थे कि अपने गांव में प्रतिमाह पांच हजार रूपए तक की बचत करके भेज सकें। दिहाड़ी मिलने के दिन इतने कम होते थे कि एक शहर में रुक कर एक माह तक खुद को ’सर्वाइव’ करने भर का पैसा मजदूर नहीं बचा सकते। कई श्रमिकों ने मुझे था बताया कि उन्हें शहरों में एक माह में 15 दिन का भी काम नहीं मिल सका। उस पर भी संकट यह था कि मजदूरी बढ़ने की जगह घट गयी थी।
असल में आज जाॅब मार्केट में श्रम की मांग नहीं है। ईंट भट्ठे के कामगार श्रमिक बताते हैं कि उनकी मजदूरी तीन साल से स्थिर है जबकि मंहगाई लगातार बढ़ी है। कई ईंट भट्ठे अपनी पूरी क्षमता पर काम नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि बाजार में ईंटों की मांग नहीं बढ़ रही है। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को रियल इस्टेट में सबसे ज्यादा रोजगार मिलता है लेकिन कर्ज में दबा यह सेक्टर ढहने के कगार पर है।
मजदूरी में बढोत्तरी नहीं होने और काम मिलने के संकट ने ग्रामीण भारत से नकदी गायब कर दी है। इससे इन क्षेत्रों की क्रय शक्ति संकटग्रस्त स्थिति तक पहुंच गयी है। यह संकट इस हद तक गंभीर हो चुका है कि रोजमर्रा के सामान मसलन दाल, चावल और आटे, तेल, बेसन की खपत में तीस प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है। अब यह तो नहीं है कि लोगों को भूख नहीं लगती होगी बल्कि उनके पास अनाज खरीदने को पैसे नहीं हैं। यह बहुत ताजुब की बात है कि सब्जियों और खाने पीने के सामानों में तेजी तब देखी जा रही है जबकि बाजार से ग्राहक नदारद हैं। घटती क्रय शक्ति के कारण ग्रामीण भारत गंभीर कुपोषण की चेपट में है। नोटबंदी के बाद भारत में असंगठित क्षेत्र के तीन करोड़ रोजगार खत्म हुए और इन नौकरियों पर आश्रित परिवारों को सरकार ने कोई वैकल्पिक मदद नहीं दी है। सरकार के पास श्रमिक समुदाय और उनकी समस्याओं के लिए समय नहीं है क्योंकि न्यू इंडिया में गांव, किसान, श्रमिक आबादी के लिए कोई जगह नहीं है।
कुल मिलाकर, ग्रामीण भारत और उसकी आबादी अपने अस्तित्व संकट से जूझ रही है। सत्ता ने विपक्ष के सभी एजेंडे को न केवल खत्म कर दिया है बल्कि उसे ऐसे सवालों में उलझा दिया है कि वह उससे निकलने का रास्ता ही नहीं पा रहा है। जिस न्यू इंडिया का सपना मोदी सरकार अपने पालतू मीडिया के मार्फत बांट रही है वह झूठा है। जब सत्ता के पास गौ रक्षा, गोबर और हिन्दुत्व के नेशनल सिलेबस के आगे किसी वास्तविक संकट पर बात करने का समय और दृष्टि नहीं है तब विपक्ष का कमजोर होना कोढ़ की खाज बन चुका है। अगर समय रहते इन सवालों पर बात नहीं की गई तब हालात और भयानक हो जाएंगे और उससे देश को जो नुकसान होगा उसके लिए मोदी सरकार के साथ विपक्ष भी ’गुनहगार’ होगा।