प्रश्न है कि संविधान में बदलाव के फैसलों को किसी धर्म व जाति विशेष के संदर्भ में देखा जाए या फिर उसे असंवैधानिक संस्कृति का एक ढांचा विकसित करने की योजना के रूप में देखा जाए ? मोदी सरकार ने बहुजनों को बाहर करके गरीबी के नाम पर वर्चस्व रखने वाली जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण का फैसला किया। नागरिकता कानून में फेरबदल को संवैधानिक ठहराने के लिए जैसे तर्क दिए जा रहे हैं वैसे ही वर्चस्व को पोख्ता करने वाले गैर बहुजन आरक्षण के फैसले के दौरान भी दिए गए थे। यह जोर देकर कहा गया कि सामाजिक वर्चस्व वाली और शैक्षणिक अवसरों में बेहतर जातियों को आरक्षण तो दिया जा रहा है लेकिन पिछड़े-दलितों के आरक्षण को कम नहीं किया जा रहा है। जबकि इस फैसले से बहुजनों के लिए आरक्षण की संवैधानिक संस्कृति प्रभावित हुई है। लेकिन बहुजनों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण यह चिंता हैं कि किस फैसले से पूरे संविधान की ही दिशा और दशा को बदलने की कोशिश की जा रही हैं।
संविधान बदलने के तर्क
10 प्रतिशत वाले आरक्षण की तरह ही नागरिकता कानून बदलकर दावा किया जा रहा है कि इससे किसी की नागरिकता नहीं छिनी जा रही है। भारत में नागरिकता के प्रश्न को कितना गहरे स्तर पर इससे प्रभावित किया जा रहा है, इसे तब तक नहीं समझा जा सकता है जबकि इसे संवैधानिकता और उसकी संस्कृति के दायरे में समझने की कोशिश नहीं की जाती है। नागरिकता कानून में संशोधन के बाद भी पुराने किस्म का ही प्रचार किया जा रहा है कि इस संशोधन से उन लोगों को नागरिकता दी जा सकती है जो कि दलित है और हिन्दू होने के कारण सताए गए हैं।
पहली बात तो कितनी छोटी संख्या हैं उन लोगों की जो कि पाकिस्तान और बांग्लादेश से भारत में शरण लेने के लिए बाध्य हुए हैं। क्या यहां वह नागरिक के रूप में दलित नहीं होंगे? वे भारत में तमाम तरह के अत्याचारों के बीच रहने वाले दलित के ही हिस्से होंगे। दूसरा कि 2019 से पहले भी पाकिस्तान, बांग्लादेश से आने वाले हजारों नागरिकों को भारत में नागरिकता दी गई है और उनमें ज्यादातर वे है जिन्हें हिन्दू बताया गया हैं। तब नागरिकता कानून में फेरबदल के क्या मायने हैं?
भारत जैसे देश में नागरिकता के कानून में फेरबदल के पक्ष में समर्थन हासिल करने के लिए जातीय और धार्मिक आधार की क्यों जरूरत पड़ रही है? क्या पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के दलितों को भारत की नागरिकता देने का जो धुंआधार प्रचार किया जा रहा है, उसकी आड़ में पूरे देश के लिए तैयार किए गए संविधान को बदलने और पूरे सामाजिक को छिन्न भिन्न करने और वर्चस्व के सांस्कृतिक ढांचे को तैयार करने की इजाजत दी जा सकती है?
संस्कृति एक ढांचा तैयार करती है और संविधान में यह बदलाव वर्चस्व की संस्कृति का एक ढांचा तैयार करती है। पुना पैक्ट का उद्देश्य दलितों को किसी भी तरह हिन्दू के दायरे रखने का फैसला था। दलित अछूत रहे हैं लेकिन संसदीय व्यवस्था में उनके हिन्दू होने के बिल्ले के साथ ही हिन्दुत्व के शासन की गारंटी की जा सकती थी। अब सवाल यह है कि हिन्दुत्व के हितों को बहुजनों के हित से जोड़ने का नजरिया विकसित किया जाए या फिर संविधान और उसकी संस्कृति से बहुजनों का हित जुड़ा हुआ है।
भाजपा को हिन्दुत्व की विचारधारा पर यकीन रखने वाले राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के मातहत समझा जाता है और संघ के दस्तावेज बताते हैं कि उसे न तो अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन में यकीन रहा है, न उसका इस संविधान में भरोसा रहा है और ना ही स्वतंत्रता के प्रतीक चिन्हों में ही। नागरिकता कानून में बदलाव से सबसे पहले संविधान की उद्देशिका का वह शब्द प्रभावित होता हैं जो कि धर्म निरपेक्षता के रूप में पढ़ने को मिलता है।
यदि नागरिकता कानून में बदलाव का विश्लेषण करें तो हम यह पाते हैं कि किसी भी व्यक्ति को पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के गैर मुस्लिम होने के कारण भारत की नागरिकता दी जाती है। यानी भारत की नागरिकता हासिल करने वाला व्यक्ति गैर मुस्लिम धर्म अथवा हिन्दू है , इस घोषणा के साथ उसे नागरिकता मिलने का प्रावधान किया गया है। दूसरी तरफ भारत के संविधान में अनुच्छेद 14 यह कहता है कि अन्य वर्चस्व के लिए सृजित विभेदों के आधार पर नागरिकों को नहीं देखेगा और ना ही उसके साथ विभेदों के आधार पर राजनीतिक सत्ता को व्यवहार करने की इजाजत होगी। हिन्दू बने रहने की शर्त के साथ यदि किसी व्यक्ति को नागरिकता दी जा रही है तो क्या यह अनुच्छेद 14 को समाप्त नहीं कर देता है ?
दूसरा सवाल अनुच्छेद 25 का है कि नागरिकों का धार्मिक स्वतंत्रता हासिल है। क्या हिन्दू के रूप में किसी को नागरिकता देने के साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जा रहा है कि उसकी नागरिकता की शर्त हिन्दू बने रहना है तो हिन्दू ही बने रहना होगा। क्या सरकार इस हिन्दू की शर्त पर निगरानी रखने के लिए एक मशीनरी तैयार करने का भी अधिकार नहीं हासिल कर लेती है ? पाकिस्तान के दलितों को हिन्दू के रूप में नागरिकता देने का प्रचार उसके हिन्दू में बने रहने की भी तो व्यवस्था कर रहा है? हिन्दुत्व को एक लालच के रूप में प्रचारित कर रहा है।
यह प्रचार लोकप्रिय हो सकता है कि नागरिकता के नये कानून से किसी की नागरिकता नहीं छिनी जा रही है। लेकिन वास्तव में यह नागरिकता की पहचान धर्म के आधार पर करने का एक ढांचा विकसित करता है। जब कोई ढांचा विकसित होता है तो वह देने और छिनने दोनों हथियार की भूमिका में वर्चस्ववादी विचारधारा की सत्ता को ताकत दे देता है। जैसे सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था का फैसला नौकरियों में बहुजनों के लिए आरक्षण को प्रभावित कर रहा है। भर्तियों के लिए निकलने वाले विज्ञापनों में इसे देखा जा सकता है।
भारतीय राजनीति में एक बड़ी समस्या यह हो गई है कि संवैधानिकता और उसकी संस्कृति की नजर से किसी बदलाव को देखने के बजाय बहुजन हितों की राजनीति करने का दावा करने वाली पार्टियां भी उसी नजरिये से संविधान में बदलाव के फैसलों को देख रही है। बहुजन की वैश्विक दृष्टि को संकीर्णता में समेट रही है। लेकिन जिंदा समाज कठपुतलियों जैसा नहीं होता है।