जापान ने “बाल नरेंद्र” को बुलेट ट्रेन से फुसला लिया, लेकिन भारत को चूना लग जाएगा !



अमेरिका, इंग्लैंड, फ्राँस जर्मनी जैसे तमाम विकसित देश बुलेट ट्रेन के विचार से तौबा किए बैठे हैं। चीन ने बना तो ली है,  लेकिन घाटे का सौदा साबित हो रहा है। ऐसे में भारत में बुलेट ट्रेन लाने की ज़िद को बाल-हठ ही कहा जा सकता है। यह ऐसा ही है जैसे कि कोई बालक किसी खिलौने की ज़िद करे और बाप उधार लेकर उसकी ज़िद पूरी करे। भारतीय रेलवे का हाल देखकर कहा जा सकता है कि यह प्रयास वैसा ही है जैसे कि किसी टूटे-फूटे घर की मरम्मत के बजाय ड्राइंग रूम सजाने के लिए क़र्ज़ लिया जाए। बहरहाल, मोदी जी जिस तरह से जापान के सस्ते ब्याज़ दर का ढिंढोरा पीट रहे हैं, उसकी असलियत समझना ज़रूरी है। जापान में लबे समय से बैंकों की ब्याज़दर माइनस में हैं। यानी वहाँ पैसा रखने पर ब्याज़ मिलता नहीं उलटा देना पड़ता है। ऐसे में मनमोहन सरकार के समय से ही भारत को बुलेट ट्रेन थमाने की कोशिश कर रहे जापान का इरादा अपनी अतिरिक्त नक़दी से बेहतर कमाई भी है। क़िस्मत से उसे  एंटायर इकोनॉमिक्स वाले ‘बाल नरेंद्र’ मिल गए । ख़तरा यह भी है कि मोदी जी ने इस परियोजना में भारतीय बैंकों को भी लपेटने का रास्ता खोल दिया है जो उनके लिए भारी पड़ सकता है। इस पूरे प्रकरण पर विस्तार से जानकारी के लिए पढ़िए मुकेश असीम का लेख-

 

चीन और जापान दोनों की अर्थव्यवस्था में मुद्रा की भयंकर अतिरिक्त नक़दी तरलता (surplus liquidity) है| इसकी वजह से जापान की बैंकिंग व्यवस्था को तबाह हुए 20 साल हो चुके| 1990 के दशक में दुनिया के 10 सबसे बड़े बैंकों में 6-7 जापानी होते थे, आज कोई इनका नाम तक नहीं सुनता| जापानी सेन्ट्रल बैंक कई साल से नकारात्मक ब्याज दर पर चल रहा है – जमाराशि पर ब्याज देता नहीं लेता है! लोग किसी तरह कुछ खर्च करें तो माँग बढे, कहीं निवेश हो| जीडीपी में 20 साल में कोई वृद्धि नहीं, उसका शेयर बाजार का इंडेक्स निक्केई 20 साल पहले के स्तर पर वापस जाने की जद्दोजहद में है| इस आर्थिक संकट से निकलने के लिए पूँजीवाद के अंतिम हथियार अर्थात सैन्यीकरण और युद्ध की और ले जाने की नीति उसके वर्तमान प्रधानमंत्री शिंजो अबे की है जबकि पिछले युद्ध की बर्बादी के बाद जापान ने सेना लगभग समाप्त कर दी थी|

चीन ने भी बड़े पैमाने पर निर्यात से भारी विदेशी मुद्रा अर्जित की है| अभी उसके बैंक दुनिया के सबसे बड़े बैंक हैं| शहरों, सडकों, रेल लाइनों, एयरपोर्टों में भारी निवेश के बाद भी यह अतिरिक्त तरलता उसकी अर्थव्यवस्था को संकट में डाल रही है| उसके बनाये कई शानदार शहरों में कोई रहने वाला नहीं है, इन्हें भूतिया शहर कहा जाता है| बुलेट ट्रैन खाली चल रही हैं| बैंक जापान की तरह बर्बादी के कगार पर हैं|

अब ये दोनों प्रतियोगिता में हैं कि एशिया-अफ्रीका के देशों को कर्ज देकर वहाँ बड़े-बड़े प्रोजेक्ट लगाएं, जिसमें इनके उद्योगों का सामान खरीद कर लगाया जाये| चीन ने श्रीलंका के हंबनटोटा में दो ख़रब डॉलर से एयरपोर्ट और बंदरगाह बनाया| इसे अब दुनिया का सबसे बड़ा निर्जन इंटरनेशनल एयरपोर्ट (बिल्कुल खाली, कोई उड़ान नहीं!) कहा जाता है| लेकिन चीन के उद्योगों के माल की बिक्री तो हो गई और कर्ज वापस आता रहेगा| इसी तरह चीन दुनिया में हजारों ख़राब डॉलर के प्रोजेक्ट लगाने के ऐलान कर रहा है, कितना होगा देखना बाकी है|

जापान भी इस दौड़ में है| अब 0.1% ब्याज उसके बैंकों के लिए कोई नुकसान नहीं क्योंकि वहाँ तो और ब्याज देना पड़ता है पैसा रखने के लिए| साथ में कुल लागत के 30% के बराबर की खरीदारी बुलेट ट्रैन के लिए जापान से की जाएगी, उसमें 20-25% मार्जिन लगाइये तो उसका मुनाफा सुनिश्चित है|

लेकिन विदेशी मुद्रा के कर्ज में सिर्फ ब्याज नहीं होता बल्कि एक्सचेंज रेट रिस्क भी होता है जिसे हेज़ (hedge) किया जाता है और उसकी खर्च 5-6% आता है| तो जीरो बन गया 6%! रेलवे ने जो प्रीमियम रेट की गाड़ियाँ चलाई हैं उनमें जगह भर नहीं रही है तो बुलेट ट्रैन का क्या होगा? कुछ अमीर लोगों की सुविधा की लागत आखिर नए टैक्स लगा कर पूरी की जाएगी |

लेकिन एक और पेंच है| जापान इस प्रोजेक्ट के बदले में बाकी एशिया-अफ्रीका के प्रोजेक्ट में भारतीय बैंकों को साझीदार बनाने का समझौता कर रहा है| भारतीय बैंक एक और तो डूबे कर्जों से निपट रहे हैं, साथ ही नए कर्ज नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि अर्थव्यवस्था में माँग के अभाव में नया निवेश नहीं हो रहा है| उद्योगों को बैंक कर्ज की दर पिछले साठ साल में निम्न स्तर पर है| इसी स्थिति में मोदी जी अपने नोटबंदी नामके मास्टरस्ट्रोक से बैंकों में भारी मात्रा में नकदी जमा करा चुके हैं जिस पर उन्हें ब्याज से और हानि हो रही है| खुद रिजर्व बैंक भारी घाटा उठा चुका है और जमा राशि पर ब्याज दरें तेजी से कम की जा रही हैं| अब इस नकदी को कहाँ लगाया जाये?

भारत-जापान मिल कर चीन के वन बेल्ट वन रोड (OBOR) के मुकाबले का कुछ करने का प्रयत्न कर रहे हैं जैसे ईरान में चाबहार पोर्ट| पिछले दिनों दोनों ने मिलकर अहमदाबाद में अफ़्रीकी देशों का सम्मलेन भी किया था जिसमें बीसियों ख़राब डॉलर के कर्ज और निवेश की घोषणाएं हुईं|

इसी किस्म के बड़े कर्ज देने के लिए ही भारत के बैंकों को बड़ा बनाने की जरुरत है जिसके लिए सरकार 27 सरकारी बैंकों का विलय कर सिर्फ 5 या 6 बैंक बना देना चाहती है| पर समस्या ये है कि जापान और चीन ने यह सब तब किया था जब उनकी अर्थव्यवस्था एक हद तक उन्नत हो चुकी थी और उनके बैंक दुनिया में शिखर पर थे| भारतीय पूँजीपति इस रास्ते पर पहले ही इस रास्ते चलने की कोशिश में है क्योंकि विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का गहन संकट उसे निर्यात के द्वारा जापान-चीन की तरह विकसित होने का भी मौका नहीं दे पा रहा है| चीन-जापान के बैंकों में तो संकट इस सबके बाद आया था जबकि भारतीय बैंक तो पहले ही भारी विपत्ति में हैं क्योंकि उनके 15% कर्ज डूबने की स्थिति में हैं|

सबसे बड़ी बात यह कि भारत की ही तरह जिन देशों में ये भुतहा प्रोजेक्ट लगाए जायेंगे वे किस तरह इनका कर्ज चुकाएंगे? अपनी जनता पर भारी तबाही और लूट से भी कैसे यह कर्ज चुकाया जायेगा? तब क्या होगा? युद्ध या क्रांतियाँ? यह शोषित जनता को चुनना होगा|

 

( मुकेश असीम बैंकिंग और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में काम करते हैं। मुंबई में रहते हैं । )