बटाईदार किसानों की सुध कौन लेगा?
अभिषेक रंजन सिंह
पिछले कुछ वर्षों के आम बजट को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि हमारी सरकारें किसानों एवं उनकी मूल समस्याएं समझने में नाक़ाम साबित हुई हैं। उदाहरण के लिए किसानों के लिए एक लोकप्रिय योजना किसान क्रेडिट कार्ड (केसीसी) को लेते हैं, जिसकी शुरूआत वर्ष 1998 में हुई थी। यह काफी फायदेमंद हैं लेकिन इसका फायदा किन किसानों को मिल रहा है यह एक बड़ा सवाल है। जिन किसानों को इसका वास्तविक लाभ मिलना चाहिए दरअसल उन्हें कुछ नहीं मिलता। काफी संख्या में ऐसे किसान जो ख़ुद से खेती नहीं करते और अपनी ज़मीनें बटाई देकर शहरों में रहते हैं। जब उन्हें क्रेडिट कार्ड के तहत बैंकों से पैसा लेना होता है तब ऐसे भू-स्वामी तहसील जाते हैं और राजस्व कर्मचारी से भू-लगान की अद्यतन रसीद कटाकर बैंक से केसीसी लोन लेते हैं।
बीते तीन दशकों में ख़ुद से खेती करने वाले किसानों की संख्या घट गई है। नतीजतन वे अपनी ज़मीनें बटाई पर लगा देते हैं। भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ नहीं होने की वजह से बैंक उन किसानों केसीसी लोन नहीं देते हैं। ऐसे में वे किसान गांव के साहूकारों से ऊंची ब्याज़ दरों पर कर्ज लेते हैं। फ़सल तैयार होने पर आधा बटाई में चला जाता है और काफ़ी हिस्सा कर्ज चुकाने में। अगर खेतों में फ़सल खड़ी है और ओलावृष्टि,तूफान,बेमौसम बारिश होने पर फ़सलें तबाह हो गईं फिर भी ज़िला कृषि विभाग से उन बटाईदार किसानों को कोई मुआवज़ा नहीं मिलेगा। क्योंकि उनके पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ नहीं हैं। फिर शहरों में रहने वाले केसीसी लोन ले चुके वैसे काश्तकार गांव आते हैं। कृषि विभाग में ज़मीन का दस्तावेज़ प्रस्तुत कर मुआवज़ा हासिल कर लेते हैं।
यही किस्सा सरकारी फ़सल ख़रीद योजना की है। इस बार बजट में केंद्रीय वित्त मंत्री अरूण जेटली ने सभी ख़रीफ़ फ़सलों की न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने की घोषणा की लेकिन बटाईदार किसानों को यहां भी कोई राहत नहीं क्योंकि सरकारी फ़सल ख़रीद केंद्रों पर उन्हीं किसानों की फ़सलें ख़रीदी जाती हैं जिनके पास जमीन के कागजात होते हैं। भारत के महाराष्ट्र, तेलंगाना,आंध्र प्रदेश,कर्नाटक, बुंदेलखंड आदि राज्यों में जहां बड़े पैमाने पर किसान आत्महत्या करते हैं। इन इलाक़ों की रिपोर्टिंग में एक खास बात देखने को मिली। यहां भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ ही कलेक्टरों और कृषि विभाग को यह समझाने में सफल होते हैं कि आत्महत्या करने वाला किसान वाकई किसान था। तेलंगाना और मराठवाड़ा के कई कलेक्टरों से इस बाबत सवाल पूछा कि अगर कोई बटाईदार किसान आत्महत्या करता है तो उसके आश्रितों को मुआवज़ा मिलेगा या नहीं? संबंधित ज़िलों के कलेक्टरों ने कहा- नहीं!
सरकार की नज़रों में वे किसान नहीं थे क्योंकि उनके पास भू-स्वामित्व के दस्तावेज़ नहीं थे। आज़ादी के सात दशक बाद भी केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे किसानों को सूचीबद्ध नहीं कर पाई जो दूसरों की ज़मीन पर बटाई करते हैं। सरकारें ऐसे बटाईदार किसानों को सूचीबद्ध इसलिए नहीं कर पाई इतने वर्षों तक कि ऐसा करने की उनमें इच्छाशक्ति का घोर अभाव है। हमारी सरकारें और उनके सलाहकार नौकरशाह भी ऐसी योजनाएं बनाने में नाक़ाम साबित हुए हैं। शायद यही वजह है कि बटाईदार किसानों को केसीसी, सरकारी फ़सल ख़रीद, प्राकृतिक आपदाओं से तबाह हुई फ़सलों का मुआवज़ा और आत्महत्या करने की स्थिति में सरकार की तरफ अनुग्रह राशि आदि का लाभ नहीं मिलता है। ऐसे में सवाल उठता है कि किसानों के हित में शुरू की जाने वाली योजनाओं क्या लाभ जिससे मूल किसानों को ही कोई फ़ायदा न हो?
अब कुछ बात करते हैं सिंचाई की। देश के सभी राज्यों में सिंचाई की अलग-अलग व्यवस्था है। कहीं स्थिति अच्छी है तो कहीं ख़राब। बिहार जैसे कृषि प्रधान राज्य में आज भी किसानों को सिंचाई के लिए डीजल से चलने वाले पंपसेटों पर निर्भर रहना पड़ता है। पहले राज्य सरकार की तरफ से बिजली से चलने वाले राजकीय नलकूप होते थे लेकिन उचित देख-रेख के अभाव में वे बंद हो गए। देश के अधिकांश राज्यों में आज बिजली से चलने वाले सिंचाई उपकरण हैं लेकिन बिहार के किसानों को आज भी डीजल पंपसेटों के सहारे सिंचाई करनी पड़ती है। हमारे गांव एक सरकारी नलकूप यानी स्टेट बोरिंग हुआ करता था। उसके लिए सरकार ने दूबे जी नामक एक शख्स को ऑपरेटर बहाल कर रखा था। दूबे जी जब गांव में आते थे तो बच्चे गमछा-गंजी लेकर स्टेट बोरिंग की तरफ भागते थे। उन दिनों काफ़ी कम बिजली आती थी, लेकिन जितनी आती थी उससे थोड़ी-बहुत सिंचाई हो जाती थी। पहले हमारे गांव के इकलौते स्टेट बोरिंग का मोटर जला। उसके बाद लोगों ने ऑपरेटर के रहने के लिए बनाए गए घर की चौखट-किवाड़ उखाड़ ली। बाद में लोगों ने दीवारों की ईंट निकालकर अपने घरों में लगा ली। अब वहां नौजवान ताश खेलते हैं।
स्टेट बोरिंग की यह हालत सिर्फ़ मेरे गांव की नहीं, बल्कि बिहार के दूसरे गांवों की भी है। गांव में सिर्फ़ हमारे पास बिजली से चलने वाला एक प्रेशर बोरिंग था। उचित रख-रखाव और बिजली की अनियमित आपूर्ति की वजह से अस्सी के दशक में उसका भी वजूद मिट गया। उसमें पीतल का बना तीन फिल्टर था इसलिए हमारे परिवार के सदस्यों ने उसकी क़ीमत समझी और उसे निकालने का फ़ैसला किया। कारीगर आए बोरिंग का पाइप उखाड़ने। पीतल के तीन फिल्टरों में दो ही निकल पाया और एक पाताल में समा गया। निकाले गए उन फिल्टरों की बाज़ार में उन दिनों अच्छी क़ीमत मिली थी। आज पंजाब, आंध्र प्रदेश, राजस्थान आदि राज्यों में बिजली से चलने वाले बोरिंग अधिक हैं लेकिन बिहार में आज भी डीजल पंपसेटों से सिंचाई होती है। यह अलग बात है कि अब डीजल की जगह केरोसिन तेल का भी इस्तेमाल होने लगा है। कहने को बिहार में भी नहरें हैं लेकिन मैंने आज तक बिहार में नहरों से सिंचाई होते नहीं देखा। हां, बिहार के कैमूर जिले में एक निर्माणाधीन दुर्गावती नहर का नाम सुनकर जवान जरूर हुआ जो कुछ साल पूर्व बनकर तैयार हो गया है। नहर से सिंचाई की प्रणाली राज्य में ठीक नहीं है। सिल्ट जमा होने की वजह से नहरों का वजूद मिट रहा है। बाकी कसर लोगों ने नहरों की जमीन का अतिक्रमण कर पूरा कर दिया।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने चुनावी जनसभाओं में किसानों के हित में उठाए गए फैसलों का काफी बखान करते हैं। खासकर प्रधानमंत्री सिंचाई योजना और दूसरा राष्ट्रीय कृषि बाजार (ई-नाम) पर केंद्र सरकार ने करोड़ों रुपये खर्च किए। बेशक बेहतर कार्यान्वयन होने से इन योजनाओं का लाभ देश के किसानों को मिलता लेकिन राज्यों से तालमेल की कमी और उनकी लापरवाही से ये दोनों योजनाओं विफल होने की दिशा में बढ़ रही हैं। प्रधानमंत्री सिंचाई योजना शुरू होने के वक्त केंद्र सरकार ने कहा था कि अगले चार वर्षों में इस बाबत 50,000 करोड़ रुपये ख़र्च किए जाएंगे। राज्यों को केंद्रीय आवंटन भी मिल रहा है लेकिन हर खेत में आज भी पानी नहीं पहुंच सका है।
जहां तक राष्ट्रीय कृषि बाज़ार की मंजूरी का सवाल है तो यह एक क्रांतिकारी कदम है। इसके तहत देश की सभी कृषि मंडियों को कम्प्यूटर नेटवर्किंग से जोड़ने की बात कही गई थी। राष्ट्रीय कृषि बाज़ार के अस्तित्व में आने के बाद यह दावा किया गया था कि इससे किसानों को उनकी उपज का सही क़ीमत मिलेगा। इस ऑनलाइन व्यवस्था से क़षि मंडियों में आढ़तियों पर नकेल कसने में मदद मिलेगी। इस नई व्यवस्था के बाद देश की अनाज मंडिया आपस में जुड़ जाएंगी। लिहाज़ा, किसानों को यह आज़ादी रहेगी कि वे अपनी उपज देश के उन मंडियों में बेचें, जहां उन्हें सबसे ज़्यादा क़ीमत मिलने की संभावना हो। लेकिन तीन वर्ष से अधिक हो गए बिहार के गुलाबबाग मंडी का कोई किसान अपनी उपज हापुड़ मंडी में बेचने में सफल नहीं हो पाया। सवाल है कि फिर इसके नाम पर खर्च किए गए करोड़ों रुपये का क्या हुआ?
अमूमन भारतीय कृषि मानसून पर आधारित रही है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से मानसून बारिश में कमी और अनियमितता देखी जा रही है। पंजाब में जहां 95 प्रतिशत ज़मीन सिंचित है, वहीं महाराष्ट्र में महज़ 16 प्रतिशत भूमि सिंचित हैं जबकि यहां छोटी-बड़ी कई सिंचाई परियोजनाएं हैं लेकिन उनमें पानी नहीं है। इसे इस प्रकार समझें हमारे राजनेता वहां पुल बनाने में ज्यादा दिलचस्पी रखते हैं जहां कोई नदी ही नहीं है। आज़ादी के सात दशक बाद भी देश की 65 फ़ीसद कृषि योग्य ज़मीन पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। अगर केंद्र सरकार की प्रधानमंत्री सिंचाई योजना इतनी कारगर है तो उन्हें अपने इस क्रांतिकारी योजना पर श्वेत पत्र जारी करना चाहिए।
किसानों की एक बड़ी समस्या है ट्रैक्टरों की ऊंची कीमत। आकाश से लेकर अंतरिक्ष तक भारत नित्य नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है लेकिन कम क़ीमत पर ट्रैक्टर निर्माण करने में हमारे विशेषज्ञ नाक़ाम रहे हैं। गांवों में ज़्यादातर किसान निजी फाइनेंस कंपनियों से क़र्ज़ लेकर ट्रैक्टर ख़रीदते हैं। समय पर क़र्ज़ न चुकाने की स्थिति में किसान और उनके परिजनों के साथ अभद्रता की जाती है। उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले में रिकवरी एजेंट द्वारा किसान को कुचला जाना एक हालिया उदाहरण है। आख़िर किसानों को ट्रैक्टर ख़रीदने के लिए निजी वित्तीय कंपनियों से क़र्ज़ क्यों लेना पड़ता है? गांव का कोई काश्तकार जिसके पास दस-पंद्रह बीघा ज़मीन है, उनके पास भू-स्वामित्व के पूरे दस्तावेज़ हैं, भू-लगान की अद्यतन रसीद है, काश्त की भूमि ग़ैर-विवादित, सिंचित व बहु-फ़सली ज़मीन है। उसका सर्किल रेट भी ठीक-ठाक है। फिर भी सरकारी बैंक उस किसान को ट्रैक्टर ख़रीद के लिए लोन देने से हिचकता है। सिर्फ़ ट्रैक्टर नहीं किसानों को थ्रेसर, कल्टीवेटर और ख़ाद-बीज के लिए भी गांवों के महाजनों पर निर्भर रहना पड़ता है।
भारत काफ़ी तरक़्क़ी कर रहा है और इस बात की तस्दीक़ ‘स्टॉकहोम इंटरनेशनल पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट’ (एसआईपीआरआई) के रिपोर्ट से भी होती है कि भारत इज़रायल के हथियारों का दुनिया में सबसे बड़ा ख़रीददार है। दुनिया भर में इज़रायल के कुल निर्यात का 40 फ़ीसद हथियार भारत ख़रीद रहा है। औसतन एक बिलियन डॉलर यानी एक अरब डॉलर मूल्य का हथियार भारत ख़रीद रहा है अकेले इज़रायल से। लेकिन विकासशील भारत और विकसित बनने का स्वप्न देख रहा यह देश किसानों को कम क़ीमत पर ट्रैक्टर बना कर नहीं दे सकता। यह भारत में ही संभव है कि यहां ट्रैक्टरों की कीमत कई प्रकार की कारों से अधिक है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और हिंदी में सुदूर इलाकों से फील्ड रिपोर्टिंग करने वाले बचे-खुचे रिपोर्टरों में एक हैं.