आख़िरकार गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ.राजीव मिश्र और उनकी पत्नी डा.पूर्णिमा को गिरफ़्तार करके 31 अगस्त को अदालत में पेश किया गया जहाँ से उन्हें 14 दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया।
डा. राजीव मिश्र को शासन प्रशासन की तमाम जाँचों में बच्चों की मौत के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया है। उन्हें लखनऊ एसटीएफ़ ने कानपुर के एक वक़ील के घर से बीते मंगलवार को गिरफ्तार किया गया था जहाँ वे अपने बचाव के लिए क़ानूनी रास्ता ढूँढने गए थे। यूपी के चिकित्सा शिक्षा महानिदेशक ने 23 अगस्त को डा़ राजीव मिश्रा व उनकी पत्नी समेत कुल 9 लोगों के खिलाफ आक्सीजन काण्ड मामले में विभिन्न गम्भीर धाराओं में मुकदमा दर्ज कराया था।
बहरहाल, कथित राष्ट्रीय मीडिया ने इस ख़बर को ख़ास तवज्जो नहीं दी। कहीं छोटी सी ख़बर छपी है, कहीं वह भी नहीं। कई बड़े अख़बारों की भाषा काफ़ी सहानुभूति भरी है। वे बताने में जुटे हैं कि कैसे गिरफ़्तार डॉक्टर दंम्पति गुमसुम हैं। वे रोए, उन्होंने खाना नहीं खाया,वगैरह.वगैरह। चैनलों ने नीचे पट्टी में ख़बर चलाकर छुट्टी पा ली। शायद ही किसी ने इनके चेहरे पर लाल गोला लगाकर चीखा हो- ‘ग़ौर से देखिए इन डाक्टरों को जो इंसान के भेष में दरअस्ल हैवान हैं…!’
अब ज़रा, इस कवरेज की तुलना डॉ.कफ़ील को लेकर हुई कवरेज से कीजिए। 10 अगस्त की रात डॉ.कफ़ील ने काफ़ी भागदौड़ की थी और बाहर से ऑक्सीजन का इंतज़ाम कराया था। ज़ाहिर है, पहले दिन अख़बारों में उनकी तारीफ़ में बहुत कुछ छपा। लेकिन देखते-ही देखते माहौल बदल गया। पता चला कि मुख्यमंत्री योगी कफ़ील से काफ़ी नाराज हैं। अस्पताल दौरे पर उन्होंने डॉ.कफ़ील को ‘हीरो’ बनने के लिए भी झाड़ लगाई । बस, मीडिया ने डॉ.कफ़ील को लापरवाह बताना शुरू कर दिया। उनकी प्राइवेट प्रैक्टिस वगैरह के सवाल उछाले गए और सोशल मीडिया ने तो उन्हें देखते ही देखते ‘दरिंदा’ ही साबित कर दिया। यहाँ तक कहा गया कि वे अस्पताल के सिलेंडर बाहर ले जाकर बेचते हैं या अपने क्लीनिक में इस्तेमाल करते हैं, इसी वजह से एक रात में 23 बच्चों की मौत हुई।
डॉ.कफ़ील की इस तरह से घेरेबंदी हुई कि लोग प्राचार्य डा.मिश्र और अस्पताल में अलग ही, मगर बेज़ा धाक रखने वाली उनकी पत्नी डॉ.पूर्णिमा को भूल ही गए। जबकि डॉ.कफ़ील ना तो आक्सीजन के लिए ज़िम्मेदार थे और ना अपने विभाग के अध्यक्ष थे, लेकिन मीडिया ने उन्हें असल विलेन बना दिया। सोशल मीडिया कैंपेन में तो यहां तक कहा गया कि वे हिंदू हृदय सम्राट योगी आदित्यनाथ को बदनाम करने की साज़िश रच रहे थे। जबकि इस सिलसिले में हुई एफआईआर में सबसे हल्के आरोप डॉ.कफ़ील पर ही हैं।
तो क्या यह सब इसलिए हुआ कि डॉ.कफ़ील मुसलमान हैं। भगवाधारी मुख्यमंत्री कैसे बच्चों की मौत का ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता था ! हिंदू-मुस्लिम डिस्कोर्स को एक मुसलमान चाहिए था, जो उसे मिल गया। गोरखपुर के डीएम की जाँच में भी डॉ.कफ़ील को दोषी नहीं पाया गया। हद तो है मुख्य सचिव की जाँच रिपोर्ट जिसमें आक्सीजन की कमी की बात स्वीकार ही नहीं की गई। अगर यह बात सच है तो फिर किसी तरह का आरोप बनता ही नहीं है।
बहरहाल, यहां सवाल मीडिया के रुख का है। डॉ.कफ़ील से नफ़रत और डा.राजीव मिश्र के प्रति उदारता के पीछे क्या उसकी कोई सामाजिक अवस्थिति भी है। यह कारोबारी मीडिया नहीं जानता कि वह कैसे देश की बड़ी आबादी से अपनापन गँवा रहा है।
.बर्बरीक