सैब बिलावल
पिछले महीने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में योगी आदित्यनाथ के चयन ने भले ही देश भर के विश्वविद्यालयों में बैठे टिप्पणीकारों समेत दिल्ली और नोएडा के न्यूज़रूमों में मौजूद पत्रकारों को हतप्रभ किया हो, लेकिन ऐसा लगता है कि बीजेपी के अंदरखाने इस चुनाव पर कम से कम आश्चर्य जैसी कोई बात नहीं रही है। यह बात अलग है कि अंतिम फैसला होने से पहले उनकी संभावनाओं पर अलग-अलग राय देखने को ज़रूर मिल रही थी।
राजनीतिक रूप से खुद को सही रखने की धारणा के चलते मुख्यधारा का मीडिया यह उम्मीद कर के चल रहा था कि मुख्यमंत्री के पद पर किसी ”उदार” चेहरे को लाया जाएगा। यह उम्मीद दरअसल इस कोशिश पर टिकी थी कि बीजेपी को ”विकास-केंद्रित” राज करने वाली पार्टी के रूप में दर्शाया जा सके- ऐसे राजनेताओं की पार्टी के रूप में जिसकी छवि बिलकुल साफ़ है। ज़ाहिर है, इसकी शुरुआत प्रधानमंत्री के छवि-निर्माण से हुई थी। इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि चुनाव के बाद ”छवि निर्माण” की यह कवायद पूरी नहीं हो सकी। सियासी सैलाब जब करवट लेता है तो एक वृहद् छवि आदमकद पुतले में भी तब्दील हो जा सकती है। इस लेख की बुनियादी दलील यही है कि बीजेपी अब अपने काम पर लग गई है- सांप्रदायिक, जातिगत और प्रोपगंडा के माध्यम से वह अपने आधार को व्यापक और मज़बूत करने में जुट गई है जिसके रास्ते उसे एक आदर्श भारत के हिंदुत्ववादी संस्करण को लागू करना है। और हां, जिस तरह अटकलबाजि़यों का दौर जा चुका है, वैसे ही ”उदार” चेहरे को लेकर सारा अनुमान भी कल की बात हो चुका है। दरअसल, बीजेपी में उदार राजनेता कभी रहे ही नहीं हैं, न ही वे उसके पूर्ववर्ती जनसंघ में रहे या फिर हिंदू महासभा में। हम आगे इस पर बात करेंगे।
चालीस और पचास के दशक में अधिकतर मध्यमार्गी कांग्रेस में हुआ करते थे जो उत्तर-औपनिवेशिक यथास्थिति का प्रतीक थी। कांग्रेस में दक्षिणपंथी तत्वों का एक बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक मसलों, हिंदू कोड बिल, गोरक्षा और हिंदी आदि के मुद्दे पर हिंदू महासभा के साथ सहमति में था, भले ही कांग्रेस के दक्षिणपंथियों को इन मतभेदों के चलते अपनी पार्टी को त्यागना स्वीकार न था। न ही उन्हें किसी हिंदू राष्ट्र की स्थापना में विश्वास था जब तक कि उस पर व्यापक सहमति न बन जाए। ऐसा लगता है कि कांग्रेस के भीतर मौजूद कट्टर दक्षिणपंथियों ने अपना पक्ष कुछ उदार कर लिया था लेकिन महासभा के भीतर ऐसे उदार चेहरे मौजूद नहीं थे।
इसके अलावा एक बात और थी कि अकेले जनसंघ या महासभा ही कांग्रेस का विकल्प नहीं थे, इसीलिए उदार तत्वों ने इन दलों की सदस्यता नहीं ली। उस समय तमाम समाजवादी धड़े हुआ करते थे, किसान केंद्रित पार्टियां थीं और साथ ही एक स्वतंत्र पार्टी भी अस्तित्व में आ चुकी थी (ज़ाहिर है ऐसे उदार तत्व कम्युनिस्ट पार्टी में जाने का सोच भी नहीं सकते थे)।
साठ के दशक के अंत तक हालांकि जनसंघ ने राज्य सरकारों में तमाम दूसरी पार्टियों के साथ साझा काम करना शुरू कर दिया था। जनसंघ और आरएसएस के भीतर एक बहस चालू हो गई कि केवल राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के उद्देश्य से दूसरे दलों के साथ गठजोड़ करने की कवायद कितनी सही या गलत है अगर हिंदुत्व का वृहद् लक्ष्य ही इन दलों के एजेंडे में नहीं है।
मीडिया ने सत्तर के दशक में जनता पार्टी की राजनीति के दौर में बलराध मधोक को वाजपेयी व नानाजी देशमुख (”उदार”) के मुकाबले ”हिंदू हार्डलाइनर” के रूप में पेश किया, जो इसी बात पर आधारित था कि वे दूसरे दलों के साथ आखिर कितनी दूरी तय कर सकते हैं। इस बात को मैं दुहराना चाहूंगा- यह फ़र्क विचारधारात्मक नहीं था।
इस मसले पर अंतर पीढि़यों का था। जनसंघ के अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय और सरसंघचालक एमएस गोलवलकर दलीय गठजोड़ को निरर्थक राजनीतिक स्टंट से ज्यादा कुछ नहीं मानते थे। उपाध्याय 1968 में रेल की पटरी पर मरे हुए पाए गए और गोलवलकर बीमारी से 1973 में गुज़र गए। देवरस इसके बाद नए सरसंघचालक बने और वाजपेयी जनसंघ के मुख्य संदेशवाहक हो गए। 1977 की जनता पार्टी सरकार में सबसे बड़ा घटक होने के बावजूद जनसंघ को प्रधानमंत्री पद के लिहाज से अछूत माना जाता रहा।
आरएसएस/जनसंघ अतीत में व्यापक संदर्भों में अच्छे ”नैतिक मूल्यों” का प्रचार करता था। जब समता और सामाजिक न्याय जैसे वास्तविक राजनीतिक मुद्दों की बात आती तो वे पीछे हट जाते थे, लेकिन जब कट्टर हिंदू मुद्दों की बात होती तो वे सामने आ जाते थे। संक्षेप में कहें तो वे लोग संत का चोला ओढ़कर कट्टरपंथी ही बने रहे, भले ही राज्यों के स्तर पर गठबंधन सरकारों में उन्होंने जैसी भी अनिर्णयकारी भूमिका अदा की हो।
लंबी दौड़ में बीजेपी की ”उदार प्रकृति” इस बात पर निर्भर रही है कि उसके ऊपर आरएसएस का कितना प्रत्यक्ष नियंत्रण रहा है (सत्तर के दशक में जनसंघ के वक्त संघ का नियंत्रण नहीं था) और छोटी दौड़ में यह प्रकृति केंद्र और राज्यों के स्तर पर गठबंधन की राजनीति पर निर्भर रहती आई है।
नब्बे के दशक से ”कट्टरपंथी” की मुहर बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद पर लग गई। मुहावरा बदल चुका था। अयोध्या और मंडल के बाद समाज ध्रुवीकृत हो गया और समूची राजनीति ने दाहिनी ओर करवट ले ली। ऐसा कोई सवाल ही नहीं बचा था कि आडवाणी के मुकाबले वाजपेयी उदार हैं या मोदी के मुकाबले आडवाणी उदार- सब के सब ”उदार” ही दिखते थे जब तक कि 2002 की घटना ने देश को नहीं हिला दिया- और याद रहे कि आडवाणी को गृहमंत्री बनाया गया था।
विचारधारा पहले की ही तरह अपनी जगह कायम रही। गठबंधन राजनीति के संदर्भ में कुछ सदस्य सियासी नतीजों को लेकर कहीं ज्यादा सतर्क थे। शीर्ष नेतृत्व लगातार एक सवाल खड़ा कर रहा था कि केवल सत्ता में बने रहने या सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए आखिर कितनी दूर तक समझौता करते रहा जाए। इनकी रणनीति में व्यक्तियों को ”उदार” बनाकर पेश करना उतना अहम नहीं था जितना यह था कि दांत घिसते हुए ही सही सत्ता पर पकड़ ढीली न होने दी जाए।
दक्षिणपंथ की अपनी एकरेखीय समझ के आधार पर आज अधिकतर सियासी पंडित कह रहे हैं कि योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाना दरअसल प्रधानमंत्री को ”उदार” बनाकर पेश करने की कवायद है (जैसा आडवाणी के बरअक्स वाजपेयी को, मोदी के बरअक्स आडवाणी को किया गया- यह मूर्खतापूर्ण पत्रकारिता के अलावा और कुछ नहीं है)। इस नुस्खे से असहमत होने को जी करता हे। छवि निर्माण और स्वांग जैसी बातें परीकथा हैं जिनका एक न एक दिन अंत होना है (उदार बनाकर पेश करने के पीछे नीयत नहीं दिखती) और आखिरकार राजनीतिक ऐक्शन का आग़ाज़ होना है। पत्रकारों को इस हकीकत की ओर अपनी आंखें खोलनी ही होंगी बजाय इसके कि वे इस या उस कदम से अर्जित अल्पकालिक सियासी नफा-नुकसान के आकलन में उलझे रहें। बीजेपी पहली बार अपने बहुमत के आधार पर सत्ता में है। कोई गठबंधन सहयोगी नहीं है जिसको उसे खुश रखना है। बीजेपी में ”उदार” नाम का कोई तत्व नहीं है- उन दलबदलुओं को छोड़ दें जो अभी-अभी पार्टी में आए हैं। वे पार्टी की परिभाषा को न तय करते हैं न ही उनसे उम्मीद की जाती है कि उनकी वैचारिक मामलों में कोई सुनवाई होगी (और ऐसा पहली बार हो रहा है कि तमाम अवसरवादी मध्यमार्गी बड़े पैमाने पर बीजेपी में आ रहे हैं और ऐसे लोग हमेशा सिर ही हिलाते हैं)। यहां तक कि पुराने लोग जिनमें कुछ खिंचे-खिंचे से हैं और मौजूदा बीजेपी के आलोचक भी- जैसे अरुण शौरी, जसवन्त सिंह और राम जेठमलानी- वे भी बीजेपी के कोर एजेंडे से असहमत नहीं हैं (कोर एजेंडा मने हिंदुत्व, जाति, नवउदारवाद)। इन लोगों की मौजूदा निज़ाम से केवल एक शिकायत है कि उसके काम करने की शैली तानाशाही है।
एजेंडा पहले की तरह अब भी वही है। जो लोग सुर्खियों से बाहर रहते हैं, वे कम मुखर होने या अपने काम से काम रखने के चलते मीडिया को ”उदार” दिखने लग जाते हैं। यह मीडिया का दृष्टिदोष है। बीजेपी खुद को उदार दिखाना चाह रही है- यह और कुछ नहीं बल्कि मीडिया की कोरी कल्पना है। जबरन चीजों को खोद कर मनमाफिक अर्थ निकालना सनसनी पैदा करने की गुंजाइश बनाने के अलावा और कुछ नहीं है।
लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर हिस्टॉरिकल स्टडीज़ में आधुनिक और समकालीन इतिहास के शोधार्थी हैं। यह लेख फर्स्टपोस्ट पर 2 अप्रैल 2017 को प्रकाशित हुआ है और वहां से साभार यहां छापा जा रहा है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव का है।