किसी भी लोकतांत्रिक देश में इस ख़बर से तूफ़ान मच जाना चाहिए था, लेकिन 24 घंटे कहर बरपाने वाला मीडिया चूँ बोलने की हैसियत में नहीं है। न खाऊँगा और न खाने दूँगा का ‘भरोसेमंद’ उद्घोष करने वाले 56 इंच महामना मोदी जी का यूँ खाने-खिलाने के पक्ष में झंडा बुलंद करना उसे दिखाई ही नहीं दे रहा है। हद तो ये है कि जिस काँग्रेस पर रात-दिन हमला करना, उसके एजेंडे में रहा है, उस पर भी वह उँगली नहीं उठा पा रहा है जबकि इस अपराध में वह बराबर की शरीक है।
ऐसा खुलेआम डाका संसदीय इतिहास में शायद ही कभी पड़ा हो। याद होगा कि दिल्ली हाईकोर्ट ने बीजेपी और कांग्रेस, दोनों को विदेशी चंदा बटोरने के मामले में दोषी पाया था। हाईकोर्ट ने गृहमंत्रालय को आदेश दिया था कि दोनों पार्टियों के ख़िलाफ़ कार्वाई करे। लेकिन हुआ ये कि मोदी सरकार एक ऐसा संशोधन क़ानून ले आई जिससे कि दोनों ही पार्टियों के सारे गुनाह माफ़ हो गए। भविष्य में पार्टियों को मिलने वाले कॉरपोरेट चंदे की जानकारी जनता को न मिल पाए, इसका इंतज़ाम भी वह कर चुकी है।
दरअसल, राजनीतिक दलों के विदेशी चंदे से सम्बंधित कानून में संशोधन को लोकसभा ने बिना किसी चर्चा के पारित कर दिया है। बीते बुधवार को विपक्षी दलों के शोर-शराबे के बीच वित्त विधेयक 2018 में 21 संशोधनों को मंजूरी दे दी। उनमें से एक संशोधन विदेशी चंदा नियमन कानून, 2010 से संबंधित था। इस कानून के मुताबिक राजनीतिक दल विदेश से चंदा नहीं ले सकते। जन प्रतिनिधित्व कानून, जिसमें राजनीतिक दलों और चुनाव सम्बन्धी नियम बनाए गए हैं राजनीतिक दलों को विदेश से चंदा लेने पर रोक लगाता है।
सरकार ने पहले वित्त विधेयक 2016 के जरिए एफसीआरए में संशोधन किया जिससे दलों के लिए विदेशी चंदा लेना आसान हो गया, और अब 1976 के बाद मिले सभी प्रकार के विदेशी चंदे की जांच से सम्बंधित कानून मे परिवर्तन कर दिया। अब 1976 के बाद लिए गए विदेशी चंदे की जांच संभव नहीं है। सरकार द्वारा किये गए संशोधन के अनुसार, ‘‘वित्त अधिनियम, 2016 की धारा 236 के पहले पैराग्राफ में 26 सितंबर 2010 के शब्दों और आंकड़ों की जगह पर 5 अगस्त 1976 शब्द और आंकड़े पढ़े जाएंगे.’’
एफसीआरए कानून में संशोधन के बाद 2014 के दिल्ली हाईकोर्ट के उस फैसले से भाजपा और कांग्रेस को बचने में मदद मिलेगी, जिसमें उन्हें एफसीआरए कानून के उल्लंघन का दोषी पाया गया था।
बीजेपी सरकार ने वित्त अधिनियम 2016 के जरिए विदेशी कंपनी की परिभाषा में भी बदलाव किया। इसमें कहा गया कि अगर किसी कंपनी में 50 फीसदी से कम शेयर पूंजी विदेशी इकाई के पास है तो वह विदेशी कंपनी नहीं कही जाएगी। इस संशोधन को भी सितंबर 2010 से लागू किया गया.
यानी, भारत की दोनों ही बड़ी पार्टियों ने तय कर दिया है कि वे विदेशों से जमकर चंदा लेंगी, लेकिन उसकी जानकारी जनता को नहीं हो पाएगी। यानी मसला सिर्फ़ देश की बड़ी कॉारपोरेट कंपनियों का हित साधने का नहीं है, अब दुनिया भर की कंपनियों के हित साधने को दोनों पार्टियाँ तैयार हैं। यह संयोग नहीं कि स्वदेशी का झंडा बुलंद करने वाला आरएसएस इस पर चुप है। सेठों और कॉरपोरेट दुनिया की सेवा उसके ‘राष्ट्रवाद’ में अंतर्निहित है।
और जो लोग राहुल गाँधी के भाषण पर लहालोट हैं, उन्हें भी यह बात समझनी चाहिए कि पूँजी के लिए काँग्रेस भी कॉरपोरेट पर निर्भर है। यह संयोग नहीं कि मोदी सरकार को पानी पी-पी कर कोसने वाले राहुल गाँधी आर्थिक नीतियों पर कोई सवाल नहीं उठाते।