सत्ता के ‘बजरंगी’ को बेल, बाक़ी सबको जेल !


कोई तो वजह होगी कि वक़ील होने के बावजूद महात्मा गाँधी ने आवाम को न्याय दिलाने के लिए कभी भी अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाया?




अजित साही

कल सुप्रीम कोर्ट ने बाबू बजरंगी को ज़मानत दे दी. इस फ़ैसले ने एक बार फिर ये यक़ीन दिला दिया है कि भारतीय न्यायपालिक से इंसाफ़ की उम्मीद करना बेकार है. जैसाकि आप कल से पढ़ रहे हैं, सन् 2002 में हुए गुजरात दंगों में 97 लोगों की सामूहिक हत्या के आरोपी बजरंगी को 21 साल की सज़ा मिली हुई है. ऐसे दर्जनों मुसलमानों को मैं जानता हूँ जिनको सज़ा मिलना तो दूर महज़ आरोपी होने के बावजूद कई-कई साल बीत जाने पर भी ज़मानत नहीं मिली है और जो सालों से देशभर की जेलों में सड़ रहे हैं. जिन मुसलमानों को सज़ा मिल चुकी है उनको तो सपने में भी बेल नहीं मिलती है. यही हाल छत्तीसगढ़ में सैंकड़ों आदिवासियों का है. दूसरी ओर आरएसएस-भाजपा-विहिप-बजरंग दल से जुड़े तमाम लोगों को फटाफट बेल ही नहीं मिलती है बल्कि मुक़दमा शुरू होने से पहले ही बग़ैर कारण बताए बरी कर दिया जाता है, जिसका सबसे प्रमुख उदाहरण अमित शाह हैं. भारत की अदालतों में ये चलन आम हो चुका है.

याद कीजिए कोई पाँच साल पहले उस वक़्त के सुप्रीम कोर्ट चीफ़ जस्टिस केजी बालकृष्णन ने एक बार साफ़ कहा था कि न्यायपालिका सरकारी तंत्र का हिस्सा मात्र है. सच्चाई यही है. आश्चर्य नहीं होगा यदि भारतीय न्यायपालिका के फ़ैसलों के आकलन से ये मालूम पड़े कि सौ में निन्यानबे मामलों में अदालत सरकार के साथ खड़ी हो जाती है. हाल के मामलों पर नज़र डालने से भी यही दिखता है— जज लोया, राफ़ेल सौदा, सवर्ण आरक्षण, भीमा कोरेगाँव — या फिर सीबीआई निदेशक की नियुक्ति का ही मुद्दा हो, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने भले ही आलोक वर्मा को हटाए जाने के ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया लेकिन उस आदेश के अमल से अंतत: सरकार को ही फ़ायदा हुआ. इसके पहले आधार को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने पिछले तीन-चार सालों के ख़ुद के फ़ैसले ऐसे पलटे कि सरकारी इच्छानुसार तमाम सुविधाओं के लिए आधार अनिवार्य हो गया.

दरअसल अदालत का ये चेहरा कोई नया नहीं है और सिर्फ़ भारत में ही नहीं है. तारीख़ गवाह है कि किसी भी समाज में इंक़लाब कभी भी अदालत से नहीं आया है. अमेरिका जैसे मुल्क में आज भी जब गोरे पुलिसवाले कालों को गोली मार देते हैं तो आमतौर पर वहाँ की अदालतें पुलिसवालों के पक्ष में ही फ़ैसले सुना डालती हैं. अमेरिका के लंबे इतिहास में अदालत ने पहले दासप्रथा को सही ठहराया था. भारत में भी आज़ादी आने तक सुप्रीम कोर्ट ब्रिटिश सरकार का मुखौटा भर थी. आज़ादी के बाद कुछ साल तक गाँधीवाद के दौर में अदालतें थोड़ा उदार अवश्य हुई थीं. लेकिन पिछले तीस-चालीस सालों में जबसे प्रतिक्रियावादी राजनीति चरम पर पहुँची है, इक्का-दुक्का उदाहरण छोड़ कर भारत की सुप्रीम कोर्ट ने शायद ही ऐसे ऐतिहासिक फ़ैसले दिए हैं जो सियासी स्वार्थ या सवर्ण मानसिकता को जड़ से हिला कर सर्वहारा के हित के रहे हों.

मुसलमान हों, आदिवासी हों, दलित हों, ईसाई हों, सिख हों— किसी भी अल्पसंख्यक समाज को अदालत से इंसाफ़ नहीं मिलता है. ये कितनी अजीब बात है कि कि 1984 के दंगों में खुल कर सिखों का नरसंहार करने वाले कांग्रेसी आज तक बचे हुए हैं. कहाँ तो कमलनाथ पर मुक़दमा चलना चाहिए था और उनको जेल में होना चाहिए था. कहाँ वो मुख्यमंत्री बने हुए हैं. इससे भी ज़्यादा अफ़सोस की बात ये है कि 2002 में गुजरात के दंगों और उसके बाद वहाँ चार साल तक चले “फ़ेक एन्काउंटर” के लिए नरेंद्र मोदी और अमित शाह पर मुक़दमा चलाने के बजाए अदालत दंगों के आरोपियों और फ़ेक एन्काउंटर के लिए ज़िम्मेदार पुलिसवालों को छोड़ने में लगी हुई है. यदि Teesta Setalvad ने जान पर खेल कर बार बार गुजरात जाकर, वहशी संघी गुंडों के बीच अदालत में खड़े होकर वो सारे मुक़दमे न लड़े होते तो जो 170 अभियुक्त उन दंगों के लिए जेल गए हैं उनका दसवाँ हिस्सा भी जेल न पहुँचे होते.

जहाँ लाखों लोगों ने खुलेआम बाबरीमस्जिद पर हमला करके उसे ध्वंस किया था, आज तक एक व्यक्ति उस अपराध के लिए जेल नहीं गया है. उस अपराध को संज्ञान में लेना तो दूर, सुप्रीम कोर्ट अब संघी लाइन पकड़ कर कह रही है कि अयोध्या का मामला आस्था का है ज़मीन के विवाद का नहीं. जब कन्हैया कुमार पर हमला करने वाले वक़ीलों पर मुक़दमा चलाने के लिए सुप्रीम कोर्ट में पेटीशन लाई गई तो जजों ने ये कह कर मना कर दिया कि अब पुरानी बात हो गई है. जबकि कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का फ़र्ज़ी मुक़दमा बदस्तूर जारी है.

ऐसा सैंकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं जो साबित करते हैं कि अदालत से इंसाफ़ मिलने की संभावना न के बराबर है.

तो उपाय क्या है? पिछले दस सालों से मुझे जिन भी जनसभाओं में तक़रीर के लिए बुलाया जाता है मैं एक ही बात कहता हूँ — अदालत से उम्मीद छोड़ दीजिए. अदालत से इंसाफ़ नहीं मिलेगा. अदालत का रास्ता छोड़ कर सड़क पर उतरना होगा और अहिंसक तरीक़े से हक़ की और इंसाफ़ की लड़ाई सड़क पर ही लड़नी होगी.

कोई तो वजह होगी कि वक़ील होने के बावजूद महात्मा गाँधी ने आवाम को न्याय दिलाने के लिए कभी भी अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाया?

राफ़ेल, जज लोया, सीबीआई, संघी गुंडागर्दी, मोदी-शाह के अपराध, आधार — इनमें से किसी भी लड़ाई में अदालत से जीत नहीं मिलेगी. जनसंघर्ष और जनसंग्राम ही अकेला रास्ता होगा.

(अजित साही देश के जाने माने पत्रकार हैं। अपनी स्वतंत्र ज़मीनी रपटों के लिए ख़ासतौर पर चर्चित। )