कही अनकही दास्ताँ: मैं बोन्साई अपने समय का !



‘मैं बोन्साई अपने समय का’–यह शीर्षक है वरिष्ठ पत्रकार रामशरण जोशी की हालिया प्रकाशित आत्मकथा का। पिछले महीने पुस्तक मेले के दौरान इसका विमोचन हुआ था। कभी हंस में प्रकाशित जोशी जी के संस्मरणों पर बड़ा हंगामा मचा था क्योंकि सच लिखने की ज़िद में उन्होंने तमाम ‘गोपन को ओपन ‘ कर दिया था। बहरहाल, इस आत्मकथा में उन्होंने ऐसे सच को अभिधा की जगह व्यंजना में पेश किया है और कोशिश की है कि उनकी कहानी आज़ादी के बाद बन रहे भारत का प्रामाणिक दस्तावेज़ बन जाए। पत्रकारिता उनके लिए सामाजिक-राजनीतिक काम का ही विस्तार रहा है और इस मोर्चे पर उनके अनुभव नई पीढ़ी के लिए काफ़ी उपयोगी हो सकते हैं। पेश है इस किताब की समीक्षा जिसे मेरठ विश्वविद्यालय के डॉ.विद्यासागर सिंह ने लिखा है-

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कवि या लेखक की प्रतिबद्धता ही उसको जीवन जगत में स्थापित करती है. ’मैं बोन्साई अपने समय का’ जैसी कृति प्रो. रामशरण जोशी की वैचारिक प्रतिब्धता, सामाजिक उत्तरदायित्व, संवेदनात्मक दृष्टि और अनन्यतम भावबोध का प्रकटन है. लेखक गहरी अंतर्वेदना से पीड़ित दीखता है.क्या खोया और क्या पाया की तर्ज़ पर वह समय से मुठभेड़ करता है,वह कालयान के माध्यम से ‘स्व’ का मूल्यांकन करता है.किसी भी लेखक के लिए ‘स्व’ का मूल्यांकन कठिन कर्म होता है,इसमें निजता के हरण की चुनौती हमेशा बनी रहती है.हर आदमी मुखौटा लगाकर जी रहा होता है यदि उसे स्वयं ही अपना मुखौटा हटाना पड़े तो यह निश्चय ही दुष्कर कार्य प्रतीत होता है.परन्तु जोशी जी ने इस अंतरद्वंद्व को  पार कर लिया है.इस कृति में लेखक अपनी गहरी पीड़ा और  सफलता-विफलता के द्वंद्व को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर एक नई गाथा रचता है.प्रो.जोशी की  वैचारिक प्रतिब्धता जहा स्वयं के लिए ठोस भावभूमि तैयार करती है वहीँ लाखों शोषित पीड़ितों और सर्वहारा वर्ग को संबल प्रदान करती है.लेखक के इस जीवन संघर्ष में समतल जमीन भी है और उबड़ खाबड़ टीले भी.

पूरी आत्मकथा में जहाँ एक तरफ प्रो.जोशी एक प्रतिबद्ध वैचारिक कार्यकर्ता के रूप में दीखते हैं जो पार्टी का फुल टाइम वर्कर भी है,जो विचारों से समझौता नहीं करता है और अवसरवादिता की विसंगतियों से अपने को बचाने में सफल हो जाता है, वहीँ  कई स्थलों पर लेखक की मानवीय कमजोरियां उभरकर सामने आती हैं, मध्यवर्गीय संस्कार और लिजलिजापन से लेखक अपना पिंड  नहीं छुड़ा पाता है. इस आत्मकथा को इस मायने में बेहतरीन कहा जा सकता है कि यह एक ऐसे व्यक्ति की जीवन गाथा है,जो सेल्फ मेड है और इसका अहसास लेखक को है. इसलिए बार बार दूसरे की हैसियत बताने वालों से लेखक को सख्त  नफरत है.इसी संदर्भ में एक वाकया याद आता  है जिसका उल्लेख करना मुनासिब होगा. आपातकाल लगने से पहले आदिवासी नक्सलपंथी नेता किस्ता गौड़ और भूमैया को फांसी दी जानेवाली थी.मधु दंडवते,सुरेन्द्र मोहन,प्रकाश करात,जार्ज फ़र्नान्डिस,कामरेड शादीराम औए स्वयं लेखक समेत कई लोग तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन  अली अहमद से मिलने राष्ट्रपति भवन गए. वाद विवाद संवाद  के पश्चात् राष्ट्रपति के यह कहते ही कि उन दोनों नेताओं की कोई सामाजिक हैसियत नहीं है,लेखक उबल पड़ता है और राष्ट्रपति महोदय को अपना शब्द वापस लेने के लिए विवश होना पड़ा था.इतनी साहस उसी में हो सकती है, जिसको खोने का डर बिलकुल न हो. ”मुझे ‘हैसियत’ शब्द से निरंतर चिढ रही है. लोकतंत्र में सामाजिक व पारिवारिक हैसियत के लिए कोई जगह नहीं होना चाहिए. हैसियत सामंती व पूंजीवादी ‘प्रिविलेज’है जो कि मूलतः लोकतंत्र विरोधी होता है.”

प्रो.जोशी अपनी आत्मकथा में जहाँ भी प्रेम प्रसंगों का उल्लेख करतें हैं,वहां वे चूके हुए इंसान लगते हैं. उनका मध्यवर्गीय भावबोध जाग्रत हो उठता है,क्रांतिकारी विचार काफूर हो जाते हैं.प्रेम के मामले में उनका आत्मविश्वास हिल चूका है.इसलिए प्रसंग चाहे सुखदा का हो अथवा एन का, लेखक मध्यवर्गीय उहापोह से निकल नहीं पाता है. अब इसे सामजिक -आर्थिक  स्थिति से जोड़कर देखा जाय तो कुछ बातें स्पष्ट होती है.कहते हैं कि-‘Beggar and debtor should not be chooser’ इसी भावबोध के साथ यदि इसको समझा जाय तो लेखक की जीवन यात्रा संघर्षशील रही. हो सकता है . प्रेम में विफलता अंततः मनुष्य को इहलीला समाप्त करने की ओर धकेल देती है. लेखक भी आत्महत्या के अन्तरद्वन्द्व से जूझता है.’यदि जान ही देनी हो तो कुछ बड़े वर्ग-शत्रुओं का सफाया करके ही अपनी जान दो!इससे समाज का भला होगा’(पृष्ठ संख्या-४२७.) लेखक प्रेम में चोट खाए हुए प्रेमी की तरह भावुकता का शिकार नहीं होता बल्कि विफलता से उत्पन्न विषम परिस्थितियों को भी क्रांति के उद्देश्यों की तरफ  मोड़ देता है.

बसवा से शुरू हुई यात्रा कई मोड़ लेती है.लेखक का बचपन बचपना से अछूता रहा.यह बात लेखक को रह रहकर कचोटती है.१३ साल की उम्र से शुरू हुई संघर्षशील यात्रा अनवरत जारी है.श्रमिक बनने से लेकर राजनीतिक रिपोर्टर तक की यात्रा में लेखक ने कई मोड़ देखे. प्रो.जोशी जहाँ अर्जुन सिंह से गहरी यारी को लेकर हमेशा चर्चा में रहे वहीँ वे १९७१ के भारत पाकिस्तान युद्ध रिपोर्टर के रूप में तथा विभिन्न प्रधानमंत्रियों की राजकीय यात्राओं की रिपोर्टिंग करके भी खूब नाम कमाया.लेकिन जब रोज कुआँ खोदकर पानी पीना पड़े तब उस आदमी की मनःस्थिति क्या हो सकती है इसका उत्तर लेखक की इस आत्मकथा  में ढूंढा जा सकता है.कई ऐसे अवसर आये जब लेखक को अर्थाभाव से मुक्ति मिल सकती थी लेकिन वैचारिक प्रतिब्धता और कम्युनिस्ट पार्टी का होल टाइमर होने के चलते इन अवसरों से वंचित होना पड़ा.बच्चों को श्रम का अर्थ बताकर स्वावलंबी बनाना कोई प्रो.जोशी से सीख सकता है.वास्तव में मार्क्सवाद की व्यवहारिकी को प्रो.जोशी ने जिया है.मार्क्सवाद की आड़ में स्वार्थसिधि करनेवालों की भी लेखक ने जमकर खबर ली है.घर बैठे क्रांति लाने  वालों के लिए यह पुस्तक एक महत्वपूर्ण दस्तावेज हो सकती है. “हम लोग मार्क्सवाद के महासागर में तैरते ब्राहमण, राजपूत, वैश्य, कायस्थ, भोजपुरी, मैथिली,राजस्थानी के तरणतालों में गर्व व अहं के डाइविंग बोर्ड से छलांग लगाने लगते हैं.मध्यरात्रि तक यह सिलसिला जारी रहता है.इसके पश्चात् अतिथि बड़का के सुवचनोंके साथ सत्संग-विसर्जन की घोषणा और हम रस-रंग प्रेमियों का अपने-अपने घरों की ओर प्रस्थान शुरू हो जाता है!अगली सुबह हम फिर से ‘नैनो योनि’ से ‘मेगा योनि’में अवतरित होने की कवायद शुरू कर देते हैं.”(पृष्ठ संख्या-२५८).

हिंदी के लेखको को लेकर प्रो.जोशी सधा हुआ प्रहार करते हैं.जोशी जी हिंदी लेखकों की नाटकीयता और वैचारिकता को लेकर अचंभित हैं. जो स्त्री विमर्श का आंदोलन खडा करनेवाले हैं उनकी स्त्री-पिपासु मानसिकता किसी से छिपी नहीं है,एक महत्वपूर्ण लेखिका  डॉ. प्रभा खेतान को संदर्भित करते हुए लेखक लिखता है कि हंस में छपने के लिए बहुत सज-संवरकर जाना होता था,वरना बैरंग वापसी तय थी. एक महत्वपूर्ण कवि केदारनाथ  सिंह   कुलपति  अशोक वाजपेयी  का इसलिए विरोध नहीं करना चाहते हैं कि उन्होंने  जीवन में पहली बार उन्हें हवाई टिकट उपलब्ध करवाया था. भोपाल से लेकर वर्धा तक की अकादेमिक गतिविधियों को लेकर लेखक की चिंता गौर करने लायक है.जितने मठाधीश हैं उन्होंने अपने पीछे एक ऐसी विकलांग पीढ़ी खड़ी कर दी है जो देश और समाज का भला तो कर नहीं सकते,स्वयं की झोली अवश्य भर सकते हैं.शीर्ष पदों पर एक ही जाति के लोगों का वर्चस्व  भी लेखक का ध्यान आकर्षित करता है.यह सब क्रांति के पटाक्षेप होने का संकेतक है.शुद्ध वैचारिक आयामों की लौ जगाकर ही क्रांति सम्भव है, लेखक इसे भलीभांति समझ रहा है तभी उसको जीवन भर इस बात का मलाल रहता है कि वह क्रांति नहीं ला सका.

 ‘मैं बोन्साई अपने समय का’ जैसी कालजयी आत्मकथा लिखकर प्रो.जोशी ने अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता का परिचय दिया है.जो अन्दर और बाहर से एक है वही समय समाज के साथ न्याय कर सकता है.पुस्तक की भाषा जनसंपर्क की भाषा लगती है जो लोगों को जोडती है और हिंदी वालों को मुंह चिढाती है.जो अपने को हिंदी का ठेकेदार मान बैठे हैं उनके लिए यह एक तरह का सबक भी है और भविष्य के लिए चुनौती भी. भाषा सरल संक्षिप्त और सुग्राह्य होनी चाहिए जो गहरे तक अपना प्रभाव छोड़ सके इस प्रयास में प्रो.जोशी सफल रहे हैं.     

 

डॉ.विद्या सागर सिंह

हिंदी विभाग,चौधरी चरण सिंह विवि.मेरठ

(प्रकाशक:राजकमल प्रकाशन, दिल्ली)