अभिषेक श्रीवास्तव
बिहार के डिप्टी सीएम तेजस्वी यादव के सुरक्षाकर्मियों द्वारा पत्रकारों की पिटाई की जो तस्वीर मीडिया में चल रही है, वह अधूरा सच है। मीडिया ने अपने हिस्से का सच दिखाया है। घटना के सुर्खियों में आने के एक दिन बाद तेजस्वी यादव ने पूरा सच दिखा दिया। मीडिया में दिखाया गया एक पत्रकार की पिटाई का वीडियो संपादित था। उससे पहले क्या हो रहा था, उसका विवरण तेजस्वी यादव द्वारा जारी वीडियो में है। आइए, दोनों वीडियो को मिलाकर कहानी पूरी करते हैं।
तेजस्वी यादव द्वारा जारी वीडियो में जो दिख रहा है वह कुछ यों है-
See, how Lalu's son spreading Gundagardi in Bihar? pic.twitter.com/mTrcKQLwBK
— Tejashwi Yadav (@yadavtejashwi) July 13, 2017
कहानी कुछ यूं बनती है कि तेजस्वी कैबिनेट की बैठक से बाहर आए। मीडिया का जमावड़ा था। तेजस्वी कैमरामैनों की भीड़ के बीच घिरे हुए थे। वे उन्हें बार-बार एक जगह बैठ जाने को कह रहे थे। कोई मानने को तैयार नहीं था। भेडि़याधसान जैसी स्थिति थी। पत्रकारों और सुरक्षाकर्मियों में धक्का-मुक्की चल रही थी। कई बार वीडियो में कुछ आवाज़ें सुनी जा सकती हैं- ”आप बाहर वेट करिए”, ”चलिए छोडि़ए…”, ”अरे, आराम से माइक लगाओ न…”, ”धक्का मत दीजिए…”, ”आराम से बैठ जाओ…”। इसी बीच एएनआइ की माइक पीछे से तेजस्वी के सिर पर लगती है। माइक, माइक की आवाज़ आती है। तेजस्वी अपने सिर पर हाथ ले जाते हैं और पलट कर पीछे देखते हैं। किसी की आवाज़ आती है, ”धक्का क्यों देता है”। इसके बाद दृश्य बदलता है और भीड़ बाहर दिखती है। करीब दो दर्जन कैमरों ने तेजस्वी को घेर रखा है। इसी बीच फिर से दृश्य बदलता है और एक तरफ एक कैमरामैन व सुरक्षाकर्मी के बीच झड़प दिखाई देती है। सफारी सूट पहने सुरक्षाकर्मी के चेहरे पर टीशर्ट पहना कैमरामैन कैमरे से वार करता है।
मीडिया ने जो वीडियो ‘हमले’ का जारी किया है, वह इसके बाद शुरू होता है-
बाकी की कहानी यूं है कि कैमरे से हमला करने वाले कैमरामैन को सुरक्षाकर्मी पकड़ कर नीचे ले आते हैं और मारापीटी करते हैं। इसी को मीडिया अपने ऊपर हमले के रूप में प्रचारित कर रहा है। यह हिस्सा तेजस्वी यादव द्वारा जारी वीडियो में भी है।
मीडिया को तेजस्वी यादव की बाइट चाहिए थी। बाइट लेना टीवी रिपोर्टर की नौकरी का सबसे अहम हिस्सा है। इस नौकरी में प्रतिस्पर्धा का भी तत्व है क्योंकि जो सबसे पहले बाइट लाएगा, वह सबसे पहले चलाएगा और ‘एक्सक्लूसिव’ कहलाएगा। इस मामले में रिपब्लिक टीवी ‘एक्सक्लूसिव’ का तमगा पाने में सफल हुआ है जो ऊपर दिए वीडियो में दावा करता है कि पिछले कुछ दिनों से यह चैनल लगातार लालू प्रसाद यादव के पीछे पड़ा हुआ है और उनसे जुड़े उद्घाटन कर रहा है (आजकल यह कहना पत्रकारिता में शर्म-लाज की बात नहीं रह गई है वरना कोई मीडिया किसी के पीछे लगातार पड़ा हो, ऐसा खुद उसी का दावा अपने आप उसे संदेहास्पद बना देता है)।
बहरहाल, रिपोर्टरों और कैमरामैनों के बीच दिख रही मारामारी अस्वाभाविक नहीं, पेशेवर थी। इस बीच सुरक्षाकर्मी अपना काम कर रहे थे जिनका कर्तव्य तेजस्वी यादव की सुरक्षा करना था। तेजस्वी यादव मीडिया से एक जगह बैठ जाने को कह रहे थे। हर कोई अपना-अपना काम कर रहा था लेकिन कोई किसी दूसरे को उसका काम नहीं करने दे रहा था। मसलन, मीडियाकर्मी किसी की नहीं सुन रहे थे। उन्हें अपनी बाइट की फिक्र थी और सबसे पहले बाइट लेने के चक्कर में सुरक्षाकर्मियों से वे धक्कामुक्की कर रहे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि एक पत्रकार पिट गया।
ऊपर से देखने में यह घटना सामान्य लगती है। सबने अपना-अपना काम किया और जिसके काम में दखल पड़ा उसने प्रतिक्रिया दे दी। पहले पत्रकारों के काम में दखल पड़ रहा था तो उन्होंने प्रतिक्रिया दी। बाद में सुरक्षाकर्मियों ने प्रतिक्रिया दी। दूसरी प्रतिक्रिया का फुटेज दिखाकर इसे पत्रकारों पर हमला कहा जा रहा है। पत्रकारों पर हमला कहने वाला मीडिया प्रकारांतर से तेजस्वी यादव के खिलाफ़ पार्टी बन चुका है। तेजस्वी यादव के खिलाफ हेडलाइनें चल रही हैं। उनके सुरक्षाकर्मियों को गुंडा बताया जा रहा है। यह एक पक्ष है।
दूसरा पक्ष भी सोचिए। अतीत में आपने किस नेता के साथ बाइट लेने की ऐसी जबरदस्ती करते हुए मीडिया को देखा है? सहज सवाल है कि कौन नहीं ऐसे घेराव से आजिज़ आ जाएगा? कौन सुरक्षाकर्मी ऐसा होगा जो इतना सब होने के बावजूद अपने नेता की सुरक्षा की जगह पत्रकारों की उद्दण्डता को प्रश्रय देगा? तेजस्वी यादव की जगह और कौन नेता आपके दिमाग में आता है जो इस तरह आखेट किए जाने की स्थिति में भी संयम बनाए रखता और खुद दो-चार हाथ न छोड़ देता?
सवाल उठता है कि बाइट लेने के लिए जो दृश्य दिख रहा है, उसे पत्रकारिता कहा जाए या भेड़ियाधसान? दूसरा सवाल यह है कि जो पत्रकार पिटा है, क्या उसे पत्रकारिता पर हमला माना जाए या सुरक्षाकर्मियों की मजबूरी में दी गई प्रतिक्रिया?
तेजस्वी यादव केवल लालू प्रसाद यादव के बेटे नहीं, उपमुख्यमंत्री भी हैं। दिक्कत ये है कि मीडिया उन्हें ‘लालू का लाडला’ ही समझता है। यही वो फ़र्क है जो मीडिया को उनके साथ इतनी छूट लेने देता है। अगर तेजस्वी यादव की जगह यूपी के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य या दिनेश शर्मा होते, क्या तब भी इसी तरह मुंह में माइक डालकर और सिर पर गनमाइक मारकर मीडिया अपनी नौकरी बजाता? यह सवाल उठाना ज़रूरी है क्योंकि जिस मीडिया पर हमले की बात की जा रही है, उसी को हमने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने सवाल पूछते वक्त घिघियाते हुए और दिवाली मिलन समारोहों में चिचियाते हुए देखा है।
अभिव्यक्ति की आज़ादी के पक्ष में खड़ा होना एक बात है और अभिव्यक्ति के नाम पर हो रहे किसी के सामूहिक आखेट की प्रतिक्रिया पर समर्थन देना दूसरी बात। पत्रकारिता का मतलब अगर अपने ‘सब्जेक्ट’ का आखेट करना है तो मैं खुद को इसके विरोध में खड़ा पाता हूं। तेजस्वी यादव के मामले में मीडिया के बरताव और नज़रिये को समझने के लिए सबसे आसान तरीका पत्रकारों पर हमले की इस घटना की रिपोर्टिंग को देखना है। आइए, देखते हैं कि किस मीडिया ने इस घटना के बाद कैसी भाषा का प्रयोग किया।
तेजस्वी के गुंडे – एबीपी न्यूज़
तेजस्वी यादव के सुरक्षा गार्डों की दबंगयी – ज़ी न्यूज़
अब तेरा क्या होगा तेजस्वी – न्यूज़ इंडिया
डिप्टी सीएम के बॉडीगार्ड बने गुंडे – आज तक
यह भाषा सहज नहीं है। कोई कह सकता है कि तेजस्वी यादव ने भ्रष्टाचार के आरोपों और सीबीआइ की जांच के बावजूद इस्तीफा नहीं दिया इसलिए यह भाषा जायज़ है। क्या बलात्कार के आरोप में फंसे एनडीए सरकार में मंत्री रहे निहालचंद मेघवाल के मुंह में किसी ने मीडिया को माइक डालते देखा? व्यापमं घोटाले में चार दर्जन से ज्यादा लाशों पर सजी गद्दी संभाले और मंदसौर की पुलिस फायरिंग में मारे गए किसानों के लिए बगुला भगत बन गए शिवराज सिंह चौहान से क्या किसी पत्रकार ने माइक लगाकर कोई सवाल पूछा?
आइए, कुछ करोड़ के भ्रष्टाचार से इतर ताज़ा हत्या के कुछ मामले देखें जहां मीडिया को कायदे से घटना के बाद नेताओं से बाइट लेने पहुंचना था और मीडिया कभी नहीं पहुंचा।
प्रधनमंत्री नरेंद्र मोदी- दादरी में 2015 में अख़लाक के मारे जाने के आठ दिन बाद और इस साल मॉब लिंचिंग की करीब 20 घटनाओं के बाद इन्होंने अपना मुंह खोला। मीडिया को इनका मुंह खुलवाने की फि़क्र कभी नहीं रही।
मनोहर लाल खट्टर- फरीदाबाद के बल्लभगढ़ में ट्रेन के भीतर मारे गए जुनैद पर मुंह खोलने में इन्हें तीन दिन लग गए लेकिन एक भी माइकवीर इनके पास बाइट लेने नहीं पहुंचा कि लगातार तीन दिनों तक आप जो ट्विटर पर सक्रिय थे, एक बयान देने में क्या मुंह जल रहा था?
रघुबर दास- बच्चा चोरी के नाम पर सात लोगों की हत्या के मामले पर इन्हें मुंह खोलने में छह दिन का वक्त लगा। कई अखबारों और टीवी चैनलों के पटना और रांची ब्यूरो एक हैं। पूछा जाना चाहिए कि छह दिन में वे पटना से रांची क्यों नहीं पहुंच सके।
वसुंधरा राजे- अलवर में पहलू खान की हत्या पर राजे महीने भर चुप रहीं और तब बयान दिया जब इस घटना की निंदा करते हुए 23 आइएएस अफसरों ने उन्हें खुला पत्र लिखा। दिल्ली से जयपुर पहुंचने में छह घंटे लगते हैं, महीना भर नहीं।
देश भर में बीते दो महीने के दौरान हुई हत्याओं के बीच सत्ता की चुनी हुई चुप्पियों के बरक्स साध्वी प्राची, संगीत सोम और तरुण विजय के बयानों को भी देखा जाना ज़रूरी है जिन्होंने आग में घी डालने का काम किया है। क्या कोई भी मीडिया उनके पास अपना माइक लेकर पहुंचा और पूछने की हिम्मत की कि आखिर वे ऐसा गैर-जिम्मेदाराना काम क्यों कर रहे हैं?
ज़ाहिर है, मीडिया क्या करता है और क्या नहीं, किससे सवाल पूछता है और किससे नहीं, यह उसका अपना चुनाव है लेकिन इस चयनित प्रश्नाकुलता के समाजशास्त्र और इसकी राजनीति को समझे बगैर कोई भी बात अधूरी रह जाएगी। अगर आप पत्रकार होकर खुद सबसे ज़रूरी सवालों पर चुप हैं और गैर-ज़रूरी सवालों का वितंडा खड़ा कर रहे हैं, तो यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि इस देश के पत्रकार आखिर किसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का झंडा ढो रहे हैं जो बार-बार हमले की बात करते हैं?
और सब छोड़िए, टीवी चैनल आज तक का एक पत्रकार व्यापमं घोटाले की जांच करते हुए दो साल पहले अचानक एक रात मरा पाया गया था। क्या किसी को नाम याद है या भूल गए? आज से दस दिन पहले 4 जुलाई को अक्षय सिंह की दूसरी पुण्यतिथि थी। पत्रकारों पर हमले का रोना रोने वाली माइकवीरों की कौम में से क्या किसी ने भी पूछने का साहस किया बीते दो साल में कि एक पत्रकार ऐसी रहस्यमय स्थिति में कैसे मारा जा सकता है? इस देश की सहाफ़ी बिरादरी ने चुपचाप सरकारी पोस्ट मॉर्टम रिपोर्ट पर आंख मूंद कर विश्वास कर लिया और बाकी मौतों के लिए मैदान खुला छोड़ दिया? ऐसे कौन आप पर विश्वास करेगा?
पत्रकारों पर हमले या अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले की चीख-पुकार को इतना सस्ता बना दिया गया है कि किसी मीडिया मालिक के यहां छापा पड़ता है तब भी यही बात होती है। आज़ादी की सारी अवधारणा को ही विस्थापित कर दिया गया है। आखिर कौन रोक रहा था पत्रकारों को तेजस्वी की बाइट लेने से? उन्हें तो खुद वक्त दिया गया था इकट्ठा होने के लिए, लेकिन मारामारी की छूट तो पत्रकारों ने खुद ली। ऐसे में सुरक्षा में लगा सिपाही क्या करे?
पत्रकारों पर हमले का दावा कर रहे ये पत्रकार आखिर किस पत्रकारिता की बात कर रहे हैं? किसकी अभिव्यक्ति बाधित की गई है, सिवाय इसके कि हर कोई एक-दूसरे की ड्यूटी में अड़ंगा डाल रहा था। अगर वे अपनी अभिव्यक्ति को सर्वोपरि मानते हैं तो यह हास्यास्पद होगा क्योंकि उन्होंने तो खुद अपनी ज़बान सिल रखी है। अगर वे अपने ‘सब्जेक्ट’ यानी तेजस्वी यादव की अभिव्यक्ति को सम्मान देते हैं, तो उसे घेर कर और उसके मुंह में माइक डालकर वे उसका नुकसान ही कर रहे थे। ऐसे किसी से आप कैसे बुलवा सकते हैं? और जिससे बुलवाना था उसके पास तो आप गए नहीं? क्यों न इस कृत्य को सुपारी पत्रकारिता माना जाए? क्या पत्रकारों ने, मीडिया संस्थानों ने और मुख्यधारा की समूची पत्रकारिता ने लालू प्रसाद यादव के खानदान की सुपारी ली हुई है?
मीडिया पर हमला निंदनीय होना चाहिए लेकिन मीडियाकर्मियों को पत्रकारिता का बुनियादी संस्कार भी याद रखना चाहिए। दिक्कत यह है कि संस्कार तब याद रहेगा जब वे पत्रकारिता करेंगे। हमारा मीडिया राजनीतिक मामलों में पिछले कुछ दिनों से पार्टी की तरह पेश आ रहा है और अपनी सुविधानुसार तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहा है, जैसा उसने तेजस्वी यादव के मामले में अधूरा वीडियो दिखाकर किया है। यह विशुद्ध सुपारी जर्नलिज्म है। और कुछ नहीं।
तेजस्वी यादव के मामले में बिहार में हमें जो देखने में आया है, इसके दो दूरगामी परिणाम होंगे। पहला, कल को किसी वास्तविक और गंभीर हमले की सूरत में पत्रकारों पर जनता भरोसा नहीं करेगी और मीडिया की आवाज़ नक्कारखाने में गुम हो जाएगी। दूसरे, जिन्हें मीडिया की इस हरकत का सियासी फायदा होगा कल को वे ही मीडिया का गला घोंटेंगे और मीडिया चूं तक नहीं कर पाएगा। कहना न होगा कि इसके लिए वे पत्रकार खुद जिम्मेदार होंगे जो सुपारी लेकर काम कर रहे हैं।