मैग्‍सेसे अवॉर्ड बताता है कि कॉरपोरेट सत्‍ता को कैसा एक्टिविज्‍़म ‘स्‍वीकार्य’ है: अरुंधति



हिंदी के लोकप्रिय टीवी पत्रकार रवीश कुमार को रेमन मैग्‍सेसे पुरस्‍कार दिए जाने की घोषणा हुई है। इस घोषणा पर सोशल मीडिया में जश्‍न जैसा माहौल है और यह स्‍वाभाविक भी है। आज से सात साल पहले 2012 के मार्च में प्रख्‍यात लेखिका अरुंधति राय ने आउटलुक में एक लंबा निबंध लिखा था जिसका शीर्षक था- ”कैपिटलिज्‍़म: ए घोस्‍ट स्‍टोरी”। इस लेख में रेमन मैग्‍सेसे और इसी किस्‍म के परोपकारी फाउंडेशनों की राजनीति पर उन्‍होंने विस्‍तार से चर्चा की थी और बताया था कि कैसे इन फाउंडेशनों से दिए जाने वाले पुरस्‍कार, अनुदान आदि इस बात की ताकीद करते हैं कि पूंजीवाद और वैश्विक कॉरपोरेट सत्‍ता को कौन सा ”एक्टिविज्‍़म” स्‍वीकार्य है और कौन सा नहीं।

इस निबंध का हिंदी में अनुवाद भारत भूषण ने किया था जो बाद में समयांतर में छपा। उक्‍त लेख के कुछ अंश आज फिर से प्रासंगिक हैं जो पढ़े जाने चाहिए। रेमन मैग्‍सेसे और इसके पीछे काम कर रहे फोर्ड फाउंडेशन व रॉकफेलर की जनविरोधी राजनीति पर यह लेख प्रकाशित करने का अर्थ यह नहीं कि रवीश कुमार को मिले पुरस्‍कार को कम कर के आंका जा रहा है। इसका कुल मतलब यह है कि हमें पूंजीवाद के भीतर काम कर रहे परोपकारी और जनपक्षीय चेहरों की असल राजनीति का ज्ञान हो सके – संपादक


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1950 के दशक तक कई एनजीओ और अंतर्राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थानों को पैसा देने के काम के साथ-साथ रॉकफेलर और फोर्ड फाउंडेशन ने अमेरिकी सरकार की लगभग शाखाओं के तौर पर काम करना शुरू कर दिया था। अमेरिकी सरकार उस वक्त लातिन अमेरिका, ईरान और इंडोनेशिया में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गई सरकारें गिराने में लगी हुई थी। (यही वह समय है जब उन्होंने भारत में प्रवेश किया जो गुटनिरपेक्ष था पर साफ तौर पर उसका झुकाव सोवियत संघ की तरफ था)। फोर्ड फाउंडेशन ने इंडोनेशियाई विश्वविद्यालय में एक अमेरिकी-शैली का अर्थशास्त्र का पाठ्यक्रम स्थापित किया। संभ्रांत इंडोनेशियाई छात्रों ने, जिन्हें विप्लव-प्रतिरोध (काउंटर इंसर्जंसी) में अमेरिकी सेना के अधिकारियों ने प्रशिक्षित किया था, 1965 में सीआईए-समर्थित तख्ता-पलट में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी जिसमें जनरल सुहार्तो सत्ता में आये। लाखों कम्युनिस्ट विद्रोहियों को मरवाकर जनरल सुहार्तो ने अपने सलाहकार-मददगारों का कर्जा चुका दिया।

बीस साल बाद चिली के युवा छात्रों को, जिन्हें शिकागो ब्वायज के नाम से जाना गया, शिकागो विश्वविद्यालय (जे.डी. रॉकफेलर द्वारा अनुदान प्राप्त) में मिल्टन फ्रीडमन द्वारा नवउदारवादी अर्थशास्‍त्र में प्रशिक्षण हेतु अमेरिका ले जाया गया। ये 1973 में हुए सीआइए-समर्थित तख्ता-पलट की पूर्वतैयारी थी जिसमें साल्वाडोर आयेंदे की हत्या हुई और जनरल पिनोशे के साथ हत्यारे दस्तों, गुमशुदगियों और आतंक का राज आया जो सत्रह वर्ष तक चला। (आयेंदे का जुर्म था एक लोकतांत्रिक ढंग से चुना हुआ समाजवादी होना और चीले की खानों का राष्ट्रीयकरण करना)

1957 में रॉकफेलर फाउंडेशन ने एशिया में सामुदायिक नेताओं के लिए रेमन मैग्सेसे पुरस्कार की स्थापना की। इसे फिलीपीन्स के राष्ट्रपति रेमन मैग्सेसे का नाम दिया गया जो दक्षिण-पूर्व एशिया में साम्यवाद के खिलाफ अमेरिका के अभियान के महत्त्वपूर्ण सहयोगी थे। 2000 में फोर्ड फाउंडेशन ने रेमन मैग्सेसे इमर्जंट लीडरशिप पुरस्कार की स्थापना की। भारत में कलाकारों, एक्टिविस्टों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच मैग्सेसे पुरस्कार की बड़ी प्रतिष्ठा है। एम.एस. सुब्बलक्ष्मी को यह पुरस्कार मिला था और उसी तरह जयप्रकाश नारायण और भारत के बेहतरीन पत्रकार पी. साइनाथ को भी। मगर जितना फायदा पुरस्कार से इन लोगों का हुआ उस से अधिक इन्होंने पुरस्कार को पहुंचाया। कुल मिला कर यह इस बात का नियंता बन गया है कि किस प्रकार का ‘एक्टिविज्म’ स्वीकार्य है और किस प्रकार का नहीं।

दिलचस्प यह कि पिछली गर्मियों में हुए अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अगुआई तीन मैग्सेसे पुरस्कार-प्राप्त व्यक्ति कर रहे थे – अण्णा हजारे, अरविन्द केजरीवाल और किरण बेदी। अरविन्द केजरीवाल के बहुत से गैर-सरकारी संगठनों में से एक को फोर्ड फाउंडेशन से अनुदान मिलता है। किरण बेदी के एनजीओ को कोका कोला और लेहमन ब्रदर्स से पैसा मिलता है।

भले ही अण्णा हजारे स्वयं को गांधीवादी कहते हैं, मगर जिस कानून की उन्होंने मांग की है- जन लोकपाल बिल- वह अभिजातवादी, खतरनाक और गांधीवाद के विरुद्ध है। चौबीसों घंटे चलने वाले कॉर्पोरेट मीडिया अभियान ने उन्हें ‘जनता’ की आवाज घोषित कर दिया। अमेरिका में हो रहे ऑक्युपाइ वॉल स्ट्रीट आंदोलन के विपरीत हजारे आंदोलन ने निजीकरण, कॉर्पोरेट ताकत और आर्थिक ‘सुधारों’ के खिलाफ एक शब्द नहीं बोला। उसके विपरीत इसके प्रमुख मीडिया समर्थकों ने बड़े-बड़े कॉर्पोरेट भ्रष्टाचार घोटालों (जिनमें नामी पत्रकारों का भी पर्दाफाश हुआ था) से जनता का ध्यान सफलतापूर्वक हटा दिया और राजनीतिकों की जन-आलोचना का इस्तेमाल सरकार के विवेकाधीन अधिकारों में और कमी लाने एवं और अधिक निजीकरण की मांग करने के लिए इस्तेमाल किया। (2008 में अण्णा हजारे ने विश्व बैंक से उत्कृष्ट जन सेवा का पुरस्कार लिया। ) विश्व बैंक ने वाशिंगटन से एक वक्तव्य जारी किया कि यह आंदोलन उसकी नीतियों से पूरी तरह ‘मेल खाता’ है।

सभी अच्छे साम्राज्यवादियों की तरह परोपकारीजनों ने अपने लिए ऐसा अंतर्राष्ट्रीय काडर तैयार और प्रशिक्षित करने का काम चुना जो इस पर विश्वास करे कि पूंजीवाद और उसके विस्तार के तौर पर अमेरिकी वर्चस्व उनके स्वयं के हित में है। और इसीलिए वे लोग ग्लोबल कॉर्पोरेट गवर्नमेंट को चलाने में वैसे ही मदद करें जैसे देशी संभ्रांतों ने हमेशा उपनिवेशवाद की सेवा की है। इसलिए फाउंडेशन शिक्षा और कला के क्षेत्रों में उतरे जो विदेश नीति और घरेलू आर्थिक नीति के बाद उनका तीसरा प्रभाव क्षेत्र बन गया। उन्होंने करोड़ों डॉलर अकादमिक संस्थानों और शिक्षाशास्त्र पर खर्च किए (और करते जा रहे हैं)।

अपनी अद्भुत पुस्तक फाउंडेशंस एंड पब्लिक पॉलिसी: द मास्क ऑफ प्ल्युरलिज्म में जोन रूलोफ्स बयां करती हैं कि किस तरह फाउंडेशनों ने राजनीति विज्ञान को कैसे पढ़ाया जाए इस विषय के पुराने विचारों में बदलाव कर ‘इंटरनेशनल’ (अंतर्राष्ट्रीय) और ‘एरिया’ (क्षेत्रीय) स्टडीज (अध्ययन) की विधाओं को रूप दिया। इसने अमेरिकी गुप्तचर और सुरक्षा सेवाओं को अपने रंगरूट भर्ती करने के लिए विदेशी भाषाओं और संस्कृति में विशेषज्ञता का एक पूल उपलब्ध करवाया। आज भी सीआइए और अमेरिकी विदेश मंत्रालय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों और प्रोफेसरों के साथ काम करते हैं जो विद्वत्ता को लेकर गंभीर नैतिक सवाल खड़े करता है।

 

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कॉर्पोरेट-अनुदान से चलने वाले फाउंडेशन समाज-विज्ञान और कला के सबसे बड़े धनदाता हैं जो ‘विकास अध्ययन’, ‘समुदाय अध्ययन’, ‘सांस्कृतिक अध्ययन’, ‘व्यवहारसंबंधी अध्ययन’ और ‘मानव अधिकार’ जैसे पाठ्यक्रमों के लिए अनुदान और छात्रवृत्तियां प्रदान करते हैं। जब अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने अपने दरवाजे अंतर्राष्ट्रीय विद्यार्थियों के लिए खोल दिए, तो लाखों छात्र, तीसरी दुनिया के संभ्रांतों के बच्चे, प्रवेश करने लगे। जो फीस का खर्चा वहन नहीं कर सकते थे उन्हें छात्रवृत्तियां दी गईं। आज भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में शायद ही कोई उच्च मध्यमवर्गीय परिवार होगा जिसमें अमेरिका में पढ़ा हुआ बच्चा न हो। इन्हीं लोगों के बीच से अच्छे विद्वान और अध्यापक ही नहीं आए हैं बल्कि प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री, अर्थशास्त्री, कॉर्पोरेट वकील, बैंकर और नौकरशाह भी निकले हैं जिन्होंने अपने देशों की अर्थव्यवस्थाओं को वैश्विक कॉर्पोरेशनों के लिए खोलने में मदद की है।

अर्थशास्त्र और राजनीति-विज्ञान के फाउंडेशनों की ओर मित्रवत संस्करण के विद्वानों को फेलोशिप, अनुसंधान निधियों, अनुदानों और नौकरियों से नवाजा गया। जिनके विचार फाउंडेशनों की ओर मित्रवत नहीं थे उन्हें अनुदान नहीं मिले, हाशिये पर डाल अलग-थलग कर दिया गया और उनके पाठ्यक्रम बंद कर दिए गए। धीरे-धीरे एक खास तरह की सोच- एकमात्र सर्वआच्छादित और अत्यंत एकांगी आर्थिक विचारधारा की छत के नीचे सहिष्णुता और बहुसंस्कृतिवाद (जो क्षण भर में नस्लवाद, उन्मत्त राष्ट्रवाद, जातीय उग्रराष्ट्रीयता, युद्ध भड़काऊ इस्लामोफोबिया में बदल जाता है) का भुरभुरा और सतही दिखावा – विमर्श पर हावी होने लगा। ऐसा इस हद तक हुआ कि अब उसे एक विचारधारा के तौर पर देखा ही नहीं जाता। यह एक डीफॉल्ट पोजीशन बन गई है, एक प्राकृतिक अवस्था। उसने सामान्य स्थिति में घुसपैठ कर ली, साधारणता को उपनिवेशित कर लिया और उसे चुनौती देना यथार्थ को चुनौती देने जितना बेतुका या गूढ़ प्रतीत होने लगा। यहां से ‘और कोई विकल्प नहीं’ तक तुरंत पहुंचना एक आसान कदम था।

शुक्र है ऑक्युपाइ आंदोलन का कि अब जाकर अमेरिकी सड़कों और विश्वविद्यालयीन परिसरों में दूसरी भाषा नजऱ आई है। इस विपरीत परिस्थिति में ‘क्लास वार’ और ‘हमें आपके अमीर होने से दिक्कत नहीं, पर हमारी सरकार को खरीद लेने से दिक्कत है’ लिखे हुए बैनर उठाये छात्रों को देखना लगभग अपने आप में इंकलाब है।

अपनी शुरुआत के एक सदी बाद कॉर्पोरेट परोपकार कोका कोला की मानिंद हमारे जीवन का हिस्सा बन गया है। अब करोड़ों गैर-लाभ संस्थाएं हैं, जिनमें बहुत सारी जटिल वित्तीय नेटवर्क के द्वारा बड़े फाउंडेशनों से जुड़ी हुई हैं। इन सारी संस्थाओं को मिलाकर इस ‘स्वतंत्र’ सेक्टर की कुल परिसंपत्ति 45,000 करोड़ डॉलर है। उनमें सबसे बड़ा है बिल गेट्स फाउंडेशन (2,100 करोड़ डॉलर), उसके बाद लिली एन्डाउमेंट (1,600 करोड़ डॉलर) और द फोर्ड फाउंडेशन (1,500 करोड़ डॉलर)।

जब अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने संरचनात्मक समायोजन या स्ट्रक्चरल एड्जस्टमेंट्स के लिए दबाव बनाया और सरकारों से स्वास्थ्य, शिक्षा, शिशु पालन और विकास के लिए सरकारी खर्च जबरदस्ती कम करवाया, तो एनजीओ सामने आये। सबकुछ के निजीकरण का मतलब सबकुछ का एनजीओकरण भी है। जिस तरह नौकरियां और आजीविकाएं ओझल हुई हैं, एनजीओ रोजगार का प्रमुख स्रोत बन गए हैं, उन लोगों के लिए भी जो उनकी सच्चाई से वाकिफ हैं। जरूरी नहीं कि सारे एनजीओ खराब हों। लाखों एनजीओ में से कुछ उत्कृष्ट और रैडिकल काम कर रहे हैं और सभी एनजीओ को एक ही तराजू से तौलना हास्यास्पद होगा। परन्तु कॉर्पोरेट या फाउंडेशनों से अनुदान प्राप्त एनजीओ वैश्विक वित्त की खातिर प्रतिरोध आंदोलनों को खरीदने का तरीका बन गए हैं, बिल्कुल उसी तरह जैसे शेयरहोल्डर कंपनियों के शेयर खरीदते हैं और फिर उन्हें अंदर से नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं। वे केंद्रीय तंत्रिका तंत्र अथवा सेंट्रल नर्वस सिस्टम के बिंदुओं की तरह विराजमान हैं, उन रास्तों की तरह जिन पर वैश्विक वित्त प्रवाहित होता है। वे ट्रांसमीटरों, रिसीवरों, शॉक एब्जॉर्बरों की तरह काम करते हैं, हर आवेग के प्रति चौकस होते हैं, सावधानी बरतते हैं कि मेजबान देश की सरकारों को परेशानी न हो। (फोर्ड फाउंडेशन जिन संस्थाओं को पैसा देता है उनसे प्रतिज्ञापत्र पर दस्तखत करवाता है जिनमें ये सब बातें होती हैं)। अनजाने में (और कभी-कभी जानबूझकर), वे जासूसी चौकियों की तरह काम करते हैं, उनकी रपटें और कार्यशालाएं और दीगर मिशनरी गतिविधियां और अधिक सख्त होते राज्यों की और अधिक आक्रामक होती निगरानी व्यवस्था को आंकड़े पहुंचाते हैं। जितना अशांत क्षेत्र होगा, उतने अधिक एनजीओ वहां काम करते पाए जायेंगे।

शरारती ढंग से जब सरकार या कॉर्पोरेट प्रेस नर्मदा बचाओ आंदोलन या कुडनकुलम आणविक संयंत्र के विरोध जैसे असली जनांदोलनों की बदनामी का अभियान चलाना चाहते हैं, तो वे आरोप लगाते हैं कि ये जनांदोलन ‘विदेशी वित्तपोषित’ प्राप्त एनजीओ हैं। उन्हें भली-भांति पता है कि अधिकतर एनजीओ को, खासकर जिन्हें अच्छी राशि मिलती है, को कॉर्पोरेट वैश्वीकरण को बढ़ावा देने का आदेश मिला हुआ है न कि उसमें रोड़े अटकाने का।

अपने अरबों डॉलर के साथ इन एनजीओ ने दुनिया में अपनी राह बनाई है, भावी क्रांतिकारियों को वेतनभोगी एक्टिविस्टों में बदलकर, कलाकारों, बुद्धिजीवियों और फिल्मकारों को अनुदान देकर, उन्हें हौले से फुसलाकर उग्र मुठभेड़ से परे ले जाकर, बहुसंस्कृतिवाद, जेंडर, सामुदायिक विकास की दिशा में प्रवेश कराकर- ऐसा विमर्श जो पहचान की राजनीति और मानव अधिकारों की भाषा में बयां किया जाता है।

न्याय की संकल्पना का मानव अधिकारों के उद्योग में परिवर्तन एक ऐसा वैचारिक तख्तापलट रहा है जिसमें एनजीओ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मानव अधिकारों का संकीर्ण दृष्टि से बात करना एक अत्याचार-आधारित विश्लेषण की राह बनाता है जिसमें असली सूरत छुपाई जा सकती है और संघर्षरत दोनों पक्षों को- मसलन, माओवादी और भारत सरकार, या इजराइली सेना और हमास- दोनों को मानव अधिकारों के उल्लंघन के नाम पर डांट पिलाई जा सकती है। खनिज कॉर्पोरेशनों द्वारा जमीन कब्जाना या इजरायली राज्य द्वारा फिलिस्तीनी भूमि को कब्जे में करना, ऐसी बातें फुटनोट्स बन जाती हैं जिनका विमर्श से बहुत थोड़ा संबंध होता है। कहने का मतलब यह नहीं कि मानव अधिकारों की कोई अहमियत नहीं। अहमियत है, पर वे उतना अच्छा प्रिज्म नहीं हैं जिसमें से हमारी दुनिया की भयानक नाइंसाफियों को देखा जाए या किंचित भी समझा जाए।

 

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जे डी रॉकफेलर के आदर्शों के अनुसार रॉकफेलर फाउंडेशन ने मार्टिन लूथर किंग सीनियर (मार्टिन लूथर किंग जूनियर के पिता) के साथ मिलकर काम किया। मगर स्टूडेंट नॉनवायलेंट कोआर्डिनेशन कमेटी (एसएनसीसी या छात्र अहिंसक समन्वय समिति) और ब्लैक पैंथर्स (काले चीते) जैसे अधिक आक्रामक संगठनों के उभरने के बाद उनका प्रभाव कम हो गया। फोर्ड और रॉकफेलर फाउंडेशन दाखिल हुए। 1970 में उन्होंने अश्वेतों के ‘नरम’ संगठनों को डेढ़ करोड़ डॉलर दिए। यह लोगों को अनुदान, फेलोशिप, छात्रवृत्तियां, पढ़ाई छोड़ चुके लोगों के लिए रोजगार प्रशिक्षण कार्यक्रम और कालों के व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए प्रारंभिक धन के रूप में मिले। दमन, आपसी झगड़े और पैसों के जाल ने रेडिकल अश्वेत आंदोलन को धीरे-धीरे कुंद कर दिया।

मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने पूंजीवाद, साम्राज्यवाद, नस्लवाद और वियतनाम युद्ध के निषिद्ध संबंध को चिह्नित किया था। परिणामस्वरूप उनकी हत्या के बाद उनकी स्मृति तक सुव्यवस्था के लिए विषभरा खतरा बन गई। फाउंडेशनों और कॉर्पोरेशनों ने उनकी विरासत को नया रूप देने के लिए काफी मेहनत की ताकि वह मार्केट-फ्रेंडली स्वरूप में फिट हो सके। फोर्ड मोटर कंपनी, जनरल मोटर्स, मोबिल, वेस्टर्न इलेक्ट्रिक, प्रॉक्टर एंड गैंबल, यूएस स्टील, मोंसैंटो और कई दूसरों ने मिलकर 20 लाख डॉलर के क्रियाशील अनुदान के साथ द मार्टिन लूथर किंग जूनियर सेंटर फॉर नॉनवाइलेंट सोशल चेंज (मार्टिन लूथर किंग जूनियर अहिंसक सामाजिक बदलाव केंद्र) की स्थापना की। यह सेंटर किंग पुस्तकालय चलाता है और नागरी अधिकार आंदोलन के पुरालेखों का संरक्षण करता है। यह सेंटर जो बहुत सारे कार्यक्रम चलाता है उनमें कुछ प्रोजेक्ट ऐसे रहे हैं जिनमें उन्होंने ‘अमेरिकी रक्षा विभाग (यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ डिफेंस), आम्र्ड फोर्सेस चैप्लेंस बोर्ड (सशस्त्र सेना पुरोहित बोर्ड) और अन्यों के साथ मिलकर काम किया है’। यह मार्टिन लूथर किंग जूनियर व्याख्यान माला ‘द फ्री इंटरप्राइज सिस्टम : एन एजेंट फॉर नॉनवाइलेंट सोशल चेंज’ (मुक्त उद्यम व्यवस्था: अहिंसक सामाजिक बदलाव के लिए एक कारक) विषय पर सहप्रायोजक था।

ऐसा ही तख्तापलट दक्षिण अफ्रीका के रंग-भेद विरोधी संघर्ष में करवाया गया। 1978 में रॉकफेलर फाउंडेशन ने दक्षिण अफ्रीका के प्रति अमेरिकी नीति को लेकर एक अध्ययन आयोग का गठन किया। रिपोर्ट ने अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) में सोवियत संघ के बढ़ते प्रभाव के बारे चेताया और कहा कि सभी नस्लों के बीच राजनीतिक सत्ता की सच्ची हिस्सेदारी हो, यही अमेरिकी के सामरिक और कॉर्पोरेट हितों (अर्थात दक्षिण अफ्रीका के खनिजों तक पहुंच) के लिए शुभ यही होगा।

फाउंडेशनों ने एएनसी की सहायता करना शुरू कर दिया। जल्द ही एएनसी स्टीव बीको की ब्लैक कॉन्शसनेस मूवमेंट (अश्वेत चेतना आंदोलन) जैसे अधिक रैडिकल आंदोलनों पर चढ़ बैठी और उन्हें कमोबेश खत्म कर के छोड़ा। जब नेल्सन मंडेला दक्षिण अफ्रीका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने तो उन्हें जीवित संत घोषित कर दिया गया, सिर्फ इसलिए नहीं कि वह 27 साल जेल में बिता चुके स्वतंत्रता सेनानी थे बल्कि इसलिए कि उन्होंने वाशिंगटन समझौते को पूरी तरह स्वीकार कर लिया था। एएनसी के एजेंडे से समाजवाद पूरी तरह गायब हो गया। दक्षिण अफ्रीका के बहुप्रशंसित महान ‘शांतिपूर्ण परिवर्तन’ का मतलब था कोई भूमि सुधार नहीं, कोई क्षतिपूर्ति नहीं, दक्षिण अफ्रीका की खानों का राष्ट्रीयकरण भी नहीं। इसकी जगह हुआ निजीकरण और संरचनात्मक समायोजन। मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका के सर्वोच्च नागरी अलंकरण ”द ऑर्डर ऑफ गुड होप” – से इंडोनेशिया में कम्युनिस्टों के हत्यारे, अपने पुराने समर्थक और मित्र जनरल सुहार्तो को सम्मानित किया। आज दक्षिण अफ्रीका में मर्सिडीज में घूमने वाले पूर्व रैडिकलों और ट्रेड यूनियन नेताओं का गुट देश पर राज करता है। और यह ब्लैक लिबरेशन (अश्वेत मुक्ति) के भरम को हमेशा बनाये रखने के लिए काफी है।