हमने देखा है कि कैसे सुनामी और न्यू ओर्लिएंस में हरीकेन कैटरीना जैसी दूसरी भयावह आपदाओं के दौरान क्रूर भवन निर्माताओं ने सबसे गरीब और कमजोर तबकों के मकानों को कब्जाने की कोशिश की थी। दुखद यह है कि हमारे यहां भारत में भी ऐसी ढेर सारी ताकतें सक्रिय हैं, जो समुदायों के बीच नफरत और विष को फैलाने के लिए, इस मुश्किल समय में जब सिर्फ और सिर्फ प्यार और रिश्तों की चिंता होनी चाहिए- अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। सुखद है कि केरल के लोग कभी इस जाल में नहीं फंसे हैं और ऐसा लगता है कि दुख और संकट की इस घड़ी में भी वे इसमें बिल्कुल नहीं फंसेंगे ।
अरुंधति रॉय
इस साल भी केरल में जिस मानसून का हमें लंबे समय से इंतजार था और जिन नदियों को हम प्यार करने का दावा करते हैं, दोनों ही हमसे बात करने के लिए फिर से लौट आया है। बारिश निश्चित रूप से मेरे लिए कलम की स्याही है और मीनाचल नदी मेरी कहानी को प्रेरित करती है। आज मैं जैसी भी लेखक हूं वह उसी नदी की देन है। उसकी नाराजगी हमारी कल्पना से परे है जबकि तबाही का पैमाना और लोगों की परेशानियों का सबब दुनिया के सामने आनी अभी बाकी है।
सेना, जल सेना, तरह- तरह की सरकारी एजेंसियां, स्थानीय लोग, मछुआरों का असाधारण समूह, पत्रकार और हजारों-हजार सामान्य लोगों ने अपनी जान जोखिम में डालकर दूसरे लोगों को सुरक्षित पहुंचाने में उल्लेखनीय योगदान दे रहे हैं। मदद और पैसों की बरसात हो रही है। फिर भी और अधिक पैसे व और अधिक मदद की दरकार है। और अब जबकि पानी का रिछना बाकी है, प्लास्टिक और कूड़े के महासागर का आंख चुंधियाने वाला नजारा सामने आना अब भी बाकी है। सच्चाई हमारी आंखों के सामने है इसलिए इस विपदा को पूरी तरह प्राकृतिक विपदा कहना बेईमानी होगी और यह भी कि इसमें इंसान की कोई भूमिका नहीं है।
अब तक हम जान गए हैं कि ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन के दौर में पहाड़ों और तटीय इलाकों को सबसे पहले इस विपदा की कीमत चुकानी होगी। जलवायु परिवर्तन से होने वाली तबाही का पैमाना और उसकी तीव्रता- दोनों बढ़ेगी। कैलिफोर्निया जल रहा है। केरल डूब रहा है। हमारा प्यारा केरल जमीन की वैसी पट्टी है जो पहाड़ों और समुद्र के बीच सैंडविच सा बसा हुआ है। हम इससे और ज्यादा खतरा नहीं उठा सकते हैं।
बेलगाम लालच, खनन और दौलतमंदों के रिसोर्टों, बंगलों के अवैध निर्माण के लिए अंधाधुंध वनों की कटनी, अवैध निर्माण ने जल निकासी के प्राकृतिक रास्तों को अवरूद्ध कर दिया है, कुदरती वाटर-स्टोरेज (जल-संग्रहण) प्रणाली को बर्बाद कर दिया है, बांधों के भीषण कुप्रबंधन आदि ने मिलकर इस तबाही में महती भूमिका निभायी है। वर्ना यह कैसे हो सकता है कि सेंट्रल वाटर कमीशन ने इस बाढ़ की भविष्यवाणी नहीं की? यह कैसे हो सकता है कि जिन बांधों को बाढ़ नियंत्रित करने के लिए बनाया गया था, उन सबसे संकट के इस भीषण दौर में उसी जलाशय (रिजरवायर) से जल निकासी हो रही थी। परिणामस्वरूप, इससे तबाही कई गुना बढ़ गई।
आज मुख्यमंत्री राहत कोश में जो पैसे आ रहे हैं वह आम लोगों की गाढ़ी मेहनत की कमाई का है, जो इस बात पर पूरी तरह भरोसा कर रहे हैं कि ये केवल सरकार ही है जो इस मदद को ठीक से संचालित कर सकती है। सरकार ही सुदूर रिहाइशी इलाकों तक पहुंच सकती है जहां सबसे गरीब व वंचित प्राणी रहते हैं। बावजूद इसके हम में से बहुत सारे लोग आशंकित हैं कि इस फंड को भी उसी मशीनरी द्वारा नियंत्रित किया जाएगा जिसने पिछली चेतावनियों को पूरी तरह दरकिनार कर दिया था।
उदाहरण के लिए माधव गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट ने भ्रष्ट राजनेताओं, लालची व्यापारियों और उद्योगपतियों द्वारा संचालित गैर नियोजित विकास को नियंत्रित करने में सरकार द्वारा कोई पहल नहीं किए जाने के कारण ऐसी भयावह परिस्थिति उत्पन्न होने की भविष्यवाणी कर दी थी।
इस तरह की आपदाएं लोगों के भीतर के सबसे अच्छे गुण और सबसे खराब दुर्गुण को बाहर ले आने में मदद करती हैं। ये सबको एक साथ खड़ा कर देती हैं। या फिर ये दरारों को और चौड़ा कर सकती हैं और इसके जरिये उन लोगों को पुरस्कृत कर सकती हैं जो इस तबाही के लिए जिम्मेदार हैं। हमने देखा है कि कैसे सुनामी और न्यू ओर्लिएंस में हरीकेन कैटरीना जैसी दूसरी भयावह आपदाओं के दौरान क्रूर भवन निर्माताओं ने सबसे गरीब और कमजोर तबकों के मकानों को कब्जाने की कोशिश की थी। दुखद यह है कि हमारे यहां भारत में भी ऐसी ढेर सारी ताकतें सक्रिय हैं, जो समुदायों के बीच नफरत और विष को फैलाने के लिए, इस मुश्किल समय में जब सिर्फ और सिर्फ प्यार और रिश्तों की चिंता होनी चाहिए- अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। सुखद है कि केरल के लोग कभी इस जाल में नहीं फंसे हैं और ऐसा लगता है कि दुख और संकट की इस घड़ी में भी वे इसमें बिल्कुल नहीं फंसेंगे।
हमें आशा है और विश्वास भी कि आने वाले दिनों और हफ्तों में जब लोग अपनी बिखरी जिंदगी को फिर से संवारने की कोशिश कर रहे होंगे तब केरल सरकार सबसे ज्यादा वंचितों- खासकर दलितों और जंगलों में रहने वाले आदिवासियों की तरफ विशेष ध्यान देगी, जिनके पास सहयोग और मदद के लिए लंबी लगने वाली कतारों में अपनी शक्ति या साधन द्वारा खुद के लिए जगह बनाने की क्षमता नहीं है।
सिर्फ इतिहास पर पछताने भर से काम नहीं चलेगा। पुननिर्माण और पुनर्वास को पहले की तरह पुनर्जीवन की बहाली के तौर पर नहीं देखा जाना चाहिए। हमें पर्यावरण संतुलन को दुरूस्त करने की पहल करनी होगी जिसे हमने खुद ही बिगाड़ा है। अगर सचमुच ऐसा नहीं होता है तो ‘ईश्वर का अपना देश’ मनुष्य जाति के रहने के लिए उपयुक्त नहीं रह जाएगा। वर्ष 2018 के इन प्रकोपों के लिए यह बाढ़ एक छोटी सी चेतावनी है।
अंग्रेज़ी से अनुवाद जितेन्द्र कुमार ने किया है