एक मिथ के सहारे पहचान का संकट हल करने की दलितों की कोशिश चिंताजनक है: तेलतुम्‍बड़े



राजनीति को पुनर्परिभाषित करता महार-पेशवा संघर्ष

प्रो. आनंद तेलतुम्‍बडे

सौ साल पहले पुणे के निकट भीमा नदी के तट पर कोरेगांव में एंग्लो-मराठा अंतिम युद्ध हुआ था। इससे भारत में ब्रिटिश हुकूमत की मजबूत पकड़ का पता चला। ब्रिटिश हुकमरान ने युद्ध में मारे गए लोगों की स्मृति में युद्ध मैदान पर स्मारक-स्तंभ का निर्माण करा दिया था। इस स्तंभ पर 49 नाम उकेरे गए जिनमें से 27 महार जाति से थे। महार सैनिकों की वीरता की इस गाथा का गोपाल बाबा वाल्नंगकर, शिवराम जनबा कांबले के साथ ही बीआर अंबेडकर के पिता रामजी अंबेडकर जैसे अग्रणी पंक्ति के महार नेताओं ने ब्रिटिश सेना में महारों की फिर से भर्ती शुरू करने की मांग करते हुए बखान किया। गौरतलब है कि महारों की ब्रिटिश सेना में भर्ती 1893 में रोक दी गई थी।

दरअसल, 1857 में विद्रोह की समीक्षा करने के बाद ब्रिटिश हुकमरान ने सेना में भर्ती के तौर-तरीकों को बदला। फैसला किया कि सेना में केवल ‘‘मार्शल कौम’ के लोगों की भर्ती की जाएगी। इस क्रम में महार जाति की सेना में भर्ती रोक दी गई थी। लेकिन बाबा साहब अम्बेडकर भीमा कोरेगांव युद्ध को पेशवा शासन में जाति-उत्पीड़न के खिलाफ महार सैनिकों की लड़ाई के तौर पर पेश कर रहे थे, तो एक कहानी गढ़ रहे थे। चूंकि ऐसी कहानियों से ही आंदोलन उभरते हैं, इसलिए उन्होंने शायद यह जरूरत भांप ली थी। एक सदी पश्चात यह मिथ करीब-करीब इतिहास का रूप ले चुका था, और आज चिंता होती है यह देखकर कि इसके सहारे दलित पहचान के संकट का हल करने पर आमादा हैं। अनेक दलित संगठनों ने हाल में इस युद्ध की दो सौवीं सालगिरह मनाने के लिए संयुक्त मोर्चा गठित किया ताकि नई पेशवाई यानी हिन्दुत्ववादी ताकतों की उभरती ब्राह्मणवादी हनक से लोहा लिया जा सके। मोर्चा ने लंबी यात्राएं निकालीं। ये मार्च 31 बीती दिसम्बर को पुणो के शनिवारवाड़ा पहुंच कर सम्मेलन (एल्गर परिषद) में तब्दील हो गए। हिन्दुत्ववादी ताकतों के खिलाफ मोर्चाबंदी गलत नहीं, लेकिन किसी मिथ का इस कार्य में इस्तेमाल किया जाए तो परिणाम प्रतिगामी हो सकते हैं। ऐसी कवायद नकारात्मक रुझानों को मजबूत करती है, न कि किसी पहचान की गरिमा को।

जहां तक इतिहास की बात है, तो तथ्‍य है कि ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने सैन्य मंसूबे पूरा करने की ठानी तो बेहिसाब संख्या में दलितों को सेना में भर्ती कर लिया। शायद उनकी अटूट निष्ठा और स्वामिभक्ति को देखकर। संभवत: इसलिए भी कि वे सस्ते में मिल जाते थे। उस दौर में सेना में बड़ी संख्या में बंगाल से नामशूद्रों, मद्रास से परायासों और महाराष्ट्र से महारों की भर्ती हुई। ऐसे में दलित दावा करें कि भारत में ब्रिटिश राज में सत्ता प्रतिष्ठान के लिए उन्होंने उल्लेखनीय योगदान किया था, तो कुछ गलत नहीं है, लेकिन यह कहें कि जाति-उत्पीड़न के खिलाफ लड़े थे, तो इसे ऐतिहासिक तथ्‍य तो नहीं ही कहा जा सकता।

जाति या धर्म विरोधी नहीं थे वे युद्ध 

ईस्ट इंडिया कंपनी ने अनेक युद्ध लड़े और जीते। पहला था, पलासी में 1757 का युद्ध। अंतिम था एंग्लो-मराठा युद्ध। जाहिर है कि ये सभी युद्ध पेशवाओं के खिलाफ नहीं थे। इनमें से अधिकांश हिन्दुओं के खिलाफ भी नहीं थे। ये सीधे-सीधे शासन करने वाली दो ताकतों के बीच थे, जो उनके सैनिकों ने अपने सैनिक फर्ज के चलते लड़े थे। इन युद्धों को जाति-विरोधी या धर्म-विरोधी करार दिया जाना गलत तय पेश करना है। इतना ही नहीं, बल्कि जातियों के इतिहास की समझ न होने जैसा भी यह होगा। जाति 19वीं सदी के काफी बाद तक, जब दलितों में शिक्षा का उल्लेखनीय प्रसार हो चुका था, लोगों के रोजमर्रा के जीवन में महत्त्वपूर्ण हिस्सा थी। दलित इसे किस्मत की बात मानते थे, और इसके नाम पर की गई किसी भी ज्यादती को भाग्य के रूप में देखते थे। जातीय आधार पर होने वाली ज्यादती को नियति समझते थे। इसलिए जाति के नाम पर उस दौर में विरोध नहीं हो सकता था, शारीरिक रूप से युद्ध करना तो बहुत दूर की बात थी। 1818 में वीरता के मिथक के बावजूद दलितों द्वारा उग्र विरोध का ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं मिलता जो ब्राह्मण राज के उत्पीड़न के खिलाफ हुआ हो।

युद्ध करने के लिए सेनाएं गठित करने की जहां तक बात है, तो ऐसी सेनाएं पूरी तरह से सामुदायिक आधार पर गठित नहीं की जाती थीं। भले ही ब्रिटिश सेना में दलित सैनिक अनुपात में ज्यादा थे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि ब्रिटिश सेना में मुस्लिम या मराठा नहीं थे। सेना में सभी जातियों के लोग शामिल थे। कोरेगांव युद्ध में पेशवाई सेना में तीन हिस्सा अरब सैनिक थे। बताया जाता है कि वे पूरी आक्रामकता से लड़े थे। इस युद्ध में काफी लोग हताहत हुए थे। उनकी आक्रामकता की क्या प्रेरणा रही होगी? क्या वे चाहते थे कि पेशवा का ब्राह्मणराज वाला शासन विजयी हो? तय यह है कि वे सैनिक के रूप में अपने स्वामियों के लिए लड़े। वैसे ही दलित सैनिक भी अपने स्वामियों के लिए लड़े। इससे ज्यादा कोई नतीजा निकाल जाना बेमानी है।

एक जनवरी, 1818 को कोरेगांव युद्ध से पूर्व पेशवा पूर्व में लड़े जा चुके दो एंग्लो-मराठा युद्धों के कारण खासे कमजोर हो चुके थे। तथ्‍य तो यह है कि पेशवा बाजीराव द्वितीय पुणे छोड़कर भाग निकले थे और पुणे पर बाहर से आक्रमण करने का प्रयास कर रहे थे। पेशवा की सेना में 20,000 सैनिक थे और इनमें 8,000 लड़ाकू सैनिक। लड़ाकू सैनिक तीन दस्तों में बंटे थे, जिनमें दो-दो हजार की संख्या में सैनिक शामिल थे। छह सौ अरबी सैनिकों, गोसाइयों और अन्य सैनिकों ने पहले पहल हमला बोला। हमलावरों में अधिकांश अरबी थे, जिन्हें पेशवा सैनिकों में योद्धाओं के रूप में देखा जाता था। कंपनी के दस्तों में 834 सैनिक थे, जिनमें वे पांच सौ सैनिक भी शामिल थे, जो बांबे नेटिव इन्फेंट्री की पहली रेजिमेंट की दो बटालियनों से थे। इनमें से अधिकांश महार थे। हालांकि ऐसा कोई दस्तावेजी रिकॉर्ड नहीं मिलता कि इनकी सटीक संख्या कितनी थी। लेकिन इतना साफ है कि ये सभी महार नहीं थे। युद्ध में मारे गए सैनिकों की संख्या से भी अंदाजा लगाएं तो पता चलता है कि मरने वाले सैनिकों में से अधिकांश महार (49 में से 27) नहीं थे। आखिर में पेशवा की सेना पीछे हट गई थी। दरअसल, जनरल जोसेफ स्मिथ के नेतृत्व में बड़ी संख्या में ब्रिटिश सैनिकों के पहुंच जाने पर पेशवा की सेना ने पीछे हटने का फैसला किया। इन तथ्‍यात्मक ब्योरों के मद्देनजर निष्कर्ष निकाला जाना भ्रामक हो सकता है कि यह युद्ध महारों ने पेशवाओं के ब्राह्मणराज के खिलाफ प्रतिरोध स्वरूप लड़ा था।

कहां बदले महारों के हालात? 

ऐसा भी कोई प्रमाण नहीं मिलता कि पेशवाई शिकस्त के बाद महारों को कोई राहत मिली हो बल्कि तय तो यह है कि उनका जातीय उत्पीड़न बिना रुके जारी रहा बल्कि ब्रिटिश हुकमरानों ने सेना में उनकी भर्ती तक रोक दी थी। पूर्व में उनके द्वारा दिखाई बहादुरी को अनदेखा कर दिया था। भर्ती के लिए महारों की बार-बार की गुहारों तक को नहीं सुना। यह तो प्रथम विश्व युद्ध ने दस्तक दे दी थी जो ब्रिटिश हुकमरानों को महारों के लिए सेना में भर्ती खोलनी पड़ी।

बेशक, कहा जा सकता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से दलितों को अनेक फायदे मिले। यहां तक कि दलित आंदोलन उसी दौर की पैदाइश है। लेकिन यहां इस तथ्‍य को समझे जाने की जरूरत है कि बुनियादी रूप से यह घटनाक्रम भी औपनिवेशिक तकाजों को पूरा करने वाला ही था। दुखद है कि दलित इस सच्चाई से आंखें मूंदे हुए हैं, और इसे पहचान के चश्मे से देख रहे हैं। यह कहना भी गलत है कि चूंकि पेशवाई सेना मराठी सैनिकों की बहुलता वाली थी, तो राष्ट्रवादी थी और ब्रिटिश सेना को हराना साम्राज्यवादियों की शिकस्त जैसा कुछ था। ऐतिहासिक तथ्‍यों के आधार पर राष्ट्र के अस्तित्व को नकारने वाले चश्मों से देखा जाना भी निंदनीय है।

सच तो यह है कि उस समय भारत राष्ट्र की कोई अवधारणा नहीं थी और आज भी यह अवधारणा भ्रमित करने वाली ही है। कितना विरोधाभासी है यह कि ब्रिटिश शासन से भारत उपहार में मिला है, जिसके विशाल भूक्षेत्र वाले उपमहाद्वीपीय इलाके को राजनीतिक एकता के सूत्र में पिरोया गया। राष्ट्र के रूप इसकी व्याख्या निजी फायदों के आधार पर की जाती रही है। सच तो यह है कि ऐसे लोग पेशवाओं जितने ही भ्रमित हैं और सबसे बड़े देशद्रोही भी। दलितों को हिन्दुत्वादी उपद्रवियों द्वारा फिर से तैयार पेशवाई के खिलाफ लड़ने की जरूरत है। जरूरी है कि वे सच्चाई से आंखें न मूंदें। खुली आंखों वस्तुस्थिति का आकलन करें। शुतुरमुर्ग जैसा रवैया न अपनाएं। मिथकीय अतीत में न झांकें। महानता के कल्पनालोक में गुम होकर न रह जाएं।


लेखक दलित विषयों के मशहूर चिंतक और टिप्‍पणीकार हैं। यह लेख राष्‍ट्रीय सहारा के हस्‍तक्षेप में शनिवार को प्रकाशित है और वहीं से साभार है।