रामजी तिवारी
गत दिनों उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकाय के चुनाव संपन्न हुए हैं। इन चुनावों के बाद कई तरह की व्याख्याएं हमारे सामने दिखाई देती हैं। पहली व्याख्या मुख्यधारा की मीडिया की है, जो यह बताती है कि प्रदेश में भगवा लहर कायम है। इस व्याख्या में प्रदेश के 16 मेयर सीटों को रेखांकित किया जा रहा है, जिसमें से भाजपा को 14 सीटें मिली हैं, जबकि बसपा को 2 सीटें। यहाँ पर सपा और कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ हो गया है।
दूसरी व्याख्या विरोधी पार्टियों की तरफ आ रही है, जिसमें मेयर चुनावों को छोड़कर व्याख्या की जा रही है। यह व्याख्या बताती है कि नगरपालिका और नगर पंचायतों में सत्तारूढ़ दल भाजपा को जितनी सीटें मिली हैं, उससे कहीं अधिक सीटें पूरे विपक्ष को मिली हैं। इसके मुताबिक़ यदि विपक्ष एकजुट होता तो सत्तारूढ़ दल की पराजय होती।
एक तीसरी व्याख्या ई.वी.एम. के विरोधियों की भी है। वे कहते हैं कि जहाँ ई.वी.एम. से चुनाव हुए हैं, वहां भाजपा जीती है और जहाँ पर बैलेट पेपर से चुनाव हुए हैं, वहां पर उसका प्रदर्शन विपक्ष की अन्य पार्टियों के आसपास ही रहा है। बैलेट से हुए चुनावों में उसे बढ़त तो हासिल है, लेकिन उसे कहीं भी बहुमत नहीं मिला है।
इन सबके बीच एक चौथी व्याख्या भी है, जो यह कहती है कि शहरी और एलीट तबके में भाजपा का जलवा कायम है लेकिन जैसे ही ये चुनाव साधारण-जन की ओर जाने लगते हैं, भाजपा का ग्राफ भी तेजी से गिरने लगता है। वे लोग अपने तर्क में पिछले स्थानीय निकाय के चुनावों का हवाला देते हैं कि कैसे भाजपा ने उन चुनावों में भी बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था, जबकि विधानसभा और लोकसभा में उसकी हालत बहुत अच्छी नहीं थी।
ई.वी.एम. वाले तर्क को छोड़कर बाकि सभी व्याख्याओं में कुछ न कुछ दम नजर आता है। यहाँ मैं ई.वी.एम. वाले तर्क को इसलिए छोड़ रहां हूँ क्योंकि ई.वी.एम. पर से अभी भी मेरा भरोसा उठा नहीं है लेकिन इसके अलावा जो बाकी के तीन तर्क सामने आते हैं, यदि उन्हें आप ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि उनमें अपने हिसाब से तथ्यों को चुना गया है या छोड़ा गया है। वे आंशिक रूप से तो सही हो सकते हैं लेकिन यदि हम समग्रता में बात करते हैं, तो उनकी एकांगी व्याख्या हमारे सामने खुल जाती है।
मसलन यदि हम पहले तर्क को लें कि प्रदेश में भगवा लहर चल रही है, तो फिर यह सवाल उठता है कि वह लहर केवल मेयर के चुनावों में ही क्यों रिफ्लेक्ट हो रही है। बेशक कि नगरपालिका और नगर पंचायत के चुनावों में भाजपा अन्य पार्टियों से आगे है, लेकिन यहाँ पर लहर जैसी कोई बात तो दिखाई नहीं देती। नगरपालिका की 200 सीटों में भाजपा को कुल मिलाकर 70 के आसपास ही सीटें मिली हैं जबकि सपा को 45, निर्दलियों को 43 और बसपा को भी 30 के आसपास। वहीं नगर पंचायतों की 438 सीटों में भाजपा को कुल मिलाकर 100 सीटें ही मिली हैं जबकि सपा को 83 और 45 बसपा को। यहाँ पर निर्दलियों ने लगभग 200 सीटें जीती हैं यानि कि जैसे ही हम मेयर के चुनावों से नीचे की तरफ उतरते हैं, वैसे ही यह बात साफ़ दिखाई देने लगती है कि राजनीतिक दलों में भाजपा आगे तो है, लेकिन यहाँ पर लहर जैसी कोई बात नहीं। उसके और बाकी विपक्षी दलों में नजदीकी लड़ाई है, जिसमें वह उन दलों से थोड़ा आगे है।
दूसरे तर्क में भी आंशिक सच्चाई ही है। यदि हम पूरे विपक्ष की सीटें जोड़कर देखते हैं तो वह सत्तारूढ़ दल से अधिक नजर आती हैं लेकिन भारतीय लोकतंत्र ने जिस ‘फर्स्ट पास्ट द पोस्ट’ सिस्टम को अपनाया है, उसमें तो यही होता है। अन्य प्रत्याशियों से आगे आने वाला प्रत्याशी विजयी कहलाता है। बेशक कि यहाँ पर भाजपा को पूरे विपक्ष से कम सीटें मिली हैं, लेकिन वह उन सबमें आगे तो है ही। और उसका यह आगे होना मेयर से होते हुए नगरपालिका, नगर पंचायत और पार्षद तथा सभासद के चुनावों तक में दिखाई देता है। यानि भाजपा प्रदेश में अभी भी एक नंबर की पार्टी बनी हुई है।
तीसरे तर्क ई.वी.एम. की बात लेते हैं। लोगबाग यह बात भी कहते हुए मिलते हैं कि जहाँ ई.वी.एम. से चुनाव हुए हैं, वहां भाजपा जीती है और जहाँ बैलेट पेपर से चुनाव हुए हैं, वहां वह हार गई है। यह तर्क भी चयनित तथ्यों को उठा रहा है। यह सही है बड़े महानगरों में जहाँ पर पर ई.वी.एम से चुनाव हुए हैं, वहां भाजपा बम्पर रूप से विजयी हुई है लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि जहाँ पर बैलेट पेपर से चुनाव हुए हैं, वहां भी भाजपा राजनैतिक दलों के मध्य लीडर के रूप में ही उभरी है।
यहाँ एक बात साफ़-साफ़ दिखाई देती है कि जैसे-जैसे चुनाव स्थानीय और छोटे क्षेत्र में पहुँचने लगते हैं, वैसे-वैसे दलों के प्रत्याशी हांफने लगते हैं। इन छोटे क्षेत्रों में राजनीतिक दलों के ऊपर प्रत्याशियों की भूमिका भारी पड़ने लगती है। यदि भाजपा इन छोटे सेगमेंट के क्षेत्रों में हार रही है, तो यहाँ पर विपक्षी पार्टियाँ ही कहाँ जीत रही हैं। वे तो और बुरी तरह से हार रही हैं। अगर हम इस व्याख्या को सही मान लें, तो एक निष्कर्ष यह भी निकलकर आएगा कि यदि भारत में बैलेट पेपर से चुनाव होंगे, तो निर्दलीय प्रत्याशियों की ही सरकार बनेगी।
चौथे तर्क में भी आंशिक सच्चाई ही है। भाजपा शहरी क्षेत्रों में आरम्भ से ही अच्छा प्रदर्शन करती है लेकिन ऐसा नहीं है कि वह देहाती क्षेत्रों में ढह जाती है। इन क्षेत्रों में भी वह अन्य दलों से आगे तो है ही। हां, उसके और अन्य विपक्षी दलों के बीच का अंतर जरूर कम हो गया है। अन्य विपक्षी दल भी यहाँ लड़ाई में नजर आते हैं और पर्याप्त नजर आते हैं। राजनीतिक दलों में यहाँ कोई साफ़-साफ़ विजेता नजर नहीं आता। हां, कोई आगे और कोई पीछे जरूर नजर आता है।
इन सभी तर्कों से इतर मेरा यह मानना है कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक दलों के प्रति आम लोगों में समर्थन कम से कमतर होता चला जा रहा है। जहाँ पर आम जनता के पास यह विकल्प दिखाई देता है कि वह राजनीतिक दलों से इतर कोई चुनाव कर सके, वह प्रत्याशियों के आधार पर ही वोट करती नजर आ रही है। दरअसल हो यह रहा है कि बड़े चुनावों में राजनीतिक दलों के पास जो अकूत क्षमता है, उसके आगे प्रत्याशियों की निजी क्षमताएं टिक नहीं पाती हैं। भारत में दलीय लोकतंत्र इसी तरह से विकसित हुआ है कि उसने विकल्प और चयन के निजी प्रयासों को हतोत्साहित कर दिया है।
जब भी किसी बड़े सेगमेंट के चुनाव होते हैं, उसमें सारी व्यवस्था राजनीतिक दलों के साथ ही खडी नजर आती है- मीडिया की भूमिका से लेकर पैसे और धन-बल की भूमिका तक, कैडर से लेकर बूथ मैनेजमेंट तक, प्रशासनिक अमले से लेकर चुनाव आयोग तक और मतदाता के सामने एक तिलिस्म रचने से लेकर उसे भ्रम में डालने तक। ये सभी बातें आम मतदाता को कुछ इस तरह से अपने आगोश में ले लेती हैं कि वह राजनीतिक दलों के तिलिस्म से बाहर नहीं निकल पाता। कम से कम प्रत्याशियों के आधार पर अपना वोट नहीं दे पाता है।
चुनावी क्षेत्र हालांकि जैसे-जैसे सिमटते जाते हैं, मतदाता के सामने प्रत्याशियों से सीधे रूबरू होने का विकल्प अधिक खुलता जाता है। मसलन, इन चुनावों में यदि हम सबसे निचले स्तर के परिणामों पर नजर डालते हैं, जिसमें नगरपालिका और नगर पंचायत के सदस्यों का चुनाव संपन्न हुआ है, तो हम यह पाते हैं कि नगरपालिका के लगभग 5200 सदस्यों में से 3000 के आसपास निर्दलीय प्रत्याशी ही विजयी हुए हैं। वैसे ही नगर-पंचायत के 5400 सदस्यों में से लगभग 3800 पर निर्दलियों ने विजय हासिल की है। अर्थात जहाँ पर मोहल्ले के सभी लोग अपने प्रत्याशी को जानते हैं, वह प्रत्याशी भी घर-घर जाकर सबसे मिलता है, संपर्क करता है, जहाँ पर पैसे की भूमिका कम होती है और प्रत्याशी का अपना व्यवहार अधिक सामने होता है, वहां पर हमारा मतदाता राजनीतिक दलों से इतर भी चयन करता है। वह राजनैतिक दलों की अपेक्षा अपने जानने-समझने वाले प्रत्याशी पर अधिक भरोसा जताता है।
इसका मतलब यह भी हुआ कि यदि चुनाव क्षेत्रों को छोटा कर दिया जाए, तो वहां पर मतदाता राजनीतिक दलों की अपेक्षा प्रत्याशियों के आधार पर अधिक भरोसा जताएगा। यानि कि हम जो इस बात का उलाहना अपने मतदाताओं पर देते हैं कि वे लोग ही भ्रष्ट और आपराधिक लोगों के चुनाव के लिए जिम्मेदार हैं, यह बात गलत साबित हो जाएगी। यदि मतदाता के सामने प्रत्याशियों को सीधे जानने-समझने का विकल्प मौजूद होगा, कोई दूसरा या तीसरा व्यक्ति आकर उसके और प्रत्याशियों के बीच नही खड़ा हो जाएगा, तो वह राजनीतिक दलों से इतर जाकर भी प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकता है। जो चुनाव जितने अधिक स्थानीय होते जाएंगे, उनमें प्रत्याशियों की भूमिका उतनी महत्वपूर्ण होती जाएगी।
तो इन चुनावों को लेकर मेरी पहली प्रस्थापना यही है कि यदि चुनाव क्षेत्र छोटे और सीमित होते जाएंगे, तो उसमें का मतदाता राजनीतिक दलों के बजाय प्रत्याशियों के आधार पर अधिक चयन करेगा। चुनाव क्षेत्र जैसे-जैसे बड़े होते जाएंगे, उसमें का मतदाता अपने प्रत्याशियों को सीधे-सीधे नहीं जान पाएगा और वहां पर राजनीतिक दलों का प्रभाव बढ़ता जाएगा। और प्रत्याशियों की भूमिका कम से कमतर होती चली जाएगी।
दूसरा यह कि यह दलीय लोकतंत्र का बुना हुआ जाल है, जिसकी वजह से मतदाता ख़राब प्रत्याशियों का चुनाव करने को विवश हो जाता है। यदि उसे प्रत्याशियों को सीधे जानने-समझने का अवसर सीधे-सीधे दिया जाए, तो वह उनके गुण-दोषों के आधार पर चयन करेगा और उम्मीद है कि अच्छे प्रतिनिधियों का चयन करेगा।
तीसरा यह कि महानगरों में अब भी भाजपा का जलवा कायम है। जैसे कि पिछले मेयर के चुनावों में उसने यह सफलता दिखाई थी, लगभग वही स्थिति अब भी कायम है। और चौथा यह कि छोटे शहरों और कस्बों में भाजपा अन्य राजनीतिक दलों से आगे तो है, लेकिन यहाँ पर लहर जैसी कोई स्थिति नहीं है। यहाँ पर अन्य दलों की उपस्थिति भी साफ़-साफ़ दिखाई देती है। यदि विपक्ष यहाँ एकजुट होता है, तो वह भाजपा के इस सुनहले दौर में भी भाजपा को गंभीर और वास्तविक चुनौती दे सकता है।
तो इन चुनावों को लेकर मेरी समझ का हिस्सा यही है। और यह भी कि इसमें भी कुछ जोड़ा और घटाया जा सकता है। इसमें भी सुधार और संशोधन किया जा सकता है।
रामजी तिवार उत्तर प्रदेश निवासी कवि-लेखक हैं। ऑस्कर पुरस्कारों की राजनीति पर लिखी इनकी पुस्तक बहुचर्चित है। उत्तर प्रदेश नगर निकाय के चुनावों पर यह टिप्पणी उन्होंने अपनी फेसबुक दीवार पर शाया की है। मीडियाविजिल पर वहीं से साभार।