Operation 136: हिंदू मीडिया को ‘सॉफ्ट हिंदुत्‍व’ बेचने का कच्‍चा सौदा!

Mediavigil Desk
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


अभिषेक श्रीवास्‍तव

अनिरुद्ध बहल का प्रोडक्‍शन हाउस कोबरापोस्‍ट एक बार फिर सक्रिय हुआ है। इस बार उसने नेता, कॉरपोरेट या बैंकों का नहीं बल्कि खुद 17 मीडिया प्रतिष्‍ठानों का स्टिंग ऑपरेशन कर डाला है। सोमवार को एक प्रेस कॉन्‍फ्रेंस में इसका खुलासा किया गया। देर शाम तक नेशनल हेरल्‍ड और क्विंट के अलावा किसी ने इस ख़बर को नहीं उठाया था लेकिन आज यानी मंगलवार की सुबह इसे इंडियन एक्‍सप्रेस, द हिंदू समेत कई ऑनलाइन मंचों पर देखा जा सकता है।

स्टिंग क्‍या था? यह सवाल सबसे दिलचस्‍प है। बहल के अंडरकवर रिपोर्टर श्रीमदभागवत गीता प्रचार समिति के कार्यकर्ता बनकर 17 मीडिया प्रतिष्‍ठानों के पास ”सॉफ्ट हिंदुत्‍व” बेचने गए थे। इन संस्‍थानों पर आरोप है कि इन्‍होंने पैसे के एवज में ”सॉफ्ट हिंदुत्‍व” से जुड़ी स्‍टोरी/जिंगल चलाने को सहमति दे दी। वीडियो में मीडिया प्रतिष्‍ठानों के छोटे-बड़े अधिकारियों से अंडरकवर रिपोर्टरों ने जो बातचीत की है, उसमें अपनी राजनीतिक मंशा को नहीं छुपाया है। साफ़ कहा है कि उनका उद्देश्‍य शुरुआती तीन महीने में ”सॉफ्ट हिंदुत्‍व” के कंधे पर चढ़कर चुनाव आते-आते हिंदुत्‍व तक पहुंचना है। अधिकारी इससे सहमत हैं। पैसे की डील हुई है। कुल स्टिंग यही है।

जिन लोगों के स्टिंग किए गए, उनमें सबसे दिलचस्‍प प्रतिक्रिया तकरीबन डूब चुकी समाचार एजेंसी यूनीवार्ता के लखनऊ ब्‍यूरो प्रमुख नरेंद्र के. श्रीवास्‍तव की है। नरेंद्र श्रीवास्‍तव लखनऊ के पुराने पत्रकार हैं और आजकल पत्‍नी की जानलेवा बीमारी के संकट से जूझ रहे हैं। गनीमत है कि उनकी नौकरी बची हुई है वरना यूएनआइ पर दस साल पहले ही ज़ी समूह के सुभाष चंद्रा की नज़र पड़ चुकी थी। कर्मचारियों के विरोध और कानूनी मुकदमे के चलते आज तक यह एजेंसी जिंदा है हालांकि जिन्‍होंने भी उस वक्‍त एजेंसी को बेचे जाने का विरोध किया, उन्‍हें या तो निकाल दिया गया या ऐसी जगह तबादला कर दिया गया जहां जाना ही दूभर था। नतीजतन बहुत से पुराने पत्रकारों ने इस्‍तीफा दे दिया और आज भी वे बेरोजगार हैं। जो नौकरी में हैं, उनकी तनख्‍वाह पेंडिंग हैं या नहीं इस बारे में पक्‍के तौर पर नहीं कहा जा सकता क्‍योंकि एक वक्‍त ऐसा भी आया जब भुगतान साल भर की देरी से चल रहा था।

बहरहाल, कोबरापोस्‍ट के अंडरकवर रिपोर्टर से नरेंद्र श्रीवास्‍तव ने काफी अनुकूल बातचीत की लेकिन वीडियो में 9.42 से ले‍कर एक मिनट तक की जो बातचीत है उसमें कुछ खास पकड़ में आता है। उससे पहले बातचीत का पहला खंड है जहां श्रीवास्‍तव ‘ऊपर’ बात कर के बताने को कहते हैं। दूसरा हिस्‍सा 9.42 से है जब रिपोर्टर पूछता है कि क्‍या आपकी बात ‘ऊपर’ हो गई। यहां से एक मिनट तक लगातार नरेंद्र श्रीवास्‍तव की प्रतिक्रिया ध्‍यान देने वाली है। करीब आधे मिनट से ज्‍यादा वे मोबाइल में कुछ करते रहते हैं और हां, हूं और एक वाक्‍य में रिपोर्टर का जवाब देते हैं। ऐसा लगता है कि वे अपनी ओर से ज्‍यादा बोलने से बच रहे हैं और रिपोर्टर के विवरणों में जाने पर उन्‍हें खीझ हो रही है। श्रीवास्‍तव के जवाब इस बीच वनलाइनर और सपाट होते हैं। जब रिपोर्टर अंत में आग्रह करता है कि स्‍टोरीज़ का विशेष ध्‍यान रख लीजिएगा, तो श्रीवास्‍तव आगे झुकते हैं और कहते हैं, ”आप शुरू तो कीजिए सर, अभी तो केवल बात हो रही है।” और बात खत्‍म हो जाती है।

श्रीवास्‍तव का आखिरी वाक्‍य ही इस स्टिंग ऑपरेशन का सच है। क्‍या उन्‍हें अहसास हो गया था कि मामला केवल ‘बात’ का ही है और इसमें आगे कुछ और नहीं होने वाला? जिस तरीके से श्रीवास्‍तव ने ख़बर के बदले RO यानी रिलीज़ ऑर्डर की बात की और उसके एवज में भुगतान को कहा, यह तो पूरी तरह वैध प्रणाली है। RO यानी रिलीज़ ऑर्डर किसी विज्ञापन के मद में बनाकर विज्ञापनदाता द्वारा ग्राहक को दिया जाता है। यह पक्‍का काग़ज़ होता है। इसका मतलब कि ख़बर के बदले जो भी भुगतान होना था, उसके बदले में यूएनआइ को प्रचार समिति एक RO रिलीज़ करती। यहां घोटाला कहां है? वीडियो में श्रीवास्‍तव की अंतिम भंगिमाओं से ऐसा झलकता है कि उन्‍हें कथित विज्ञापनदाता की मंशा पर शक हो गया है और वे पहले जैसी रुचि अब नहीं दिख रहे हैं। इसका एक और संकेत इस बात से मिलता है कि बातचीत के पहले खंड में अंडरकवर रिपोर्टर ने मोहन भागवत, विनय कटियार और उमा भारती का जब नाम लिया, तो श्रीवास्‍तव ने उससे साफ़ कहा कि भागवत से तो उनकी मुलाकात नहीं है लेकिन वे उमा ‘दीदी’ और कटियार से अच्‍छे से परिचित हैं। क्‍या दो दौर की बातचीत के वक्‍फ़े में श्रीवास्‍तव को विज्ञापनदाता के फर्जी होने का अहसास हो गया था, कि उन्‍होंने सीधे RO का जिक्र किया?

कोबरापोस्‍ट के स्टिंग का अगला अध्‍याय आना बाकी है। हो सकता है उसमें कुछ और मुख्‍यधारा के मीडिया संस्‍थान शामिल हों। सवाल यह नहीं है कि ‘सॉफ्ट हिंदुत्‍व’ के आवरण में हिंदुत्‍व की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए मीडिया अधिकारियों ने पैसे लेने को सहमति दी। सवाल दूसरे हैं। इन्‍हें हम बारी-बारी से देखते हैं:

  1. मीडिया संस्‍थानों के जिन अधिकारियों से बात की गई, क्‍या वे पैसे के बदले non-political, semi-political और political कंटेंट (जो शब्‍दावली इंडिया टीवी के अधिकारियों से बातचीत में सामने आई) को मंजूरी दिलवाने के लिए competent authority थे? किसी मीडिया संस्‍थान में आखिर किस स्‍तर पर राजनीतिक/अर्धराजनीतिक कंटेंट की डील होती होगी?
  2. चूंकि कंटेंट बेचने वाला खुद को भगवतगीता प्रचार समिति का सदस्‍य बताता है और 2019 के मोदी के चुनाव के संदर्भ में अपनी राजनीतिक मंशा खुलकर ज़ाहिर करता है, तो सवाल उठता है कि वह ‘सॉफ्ट हिंदुत्‍व’ से ‘हिंदुत्‍व’ की ओर संक्रमण की बात क्‍यों कर रहा है जबकि मोटे तौर पर मीडिया प्रतिष्‍ठानों को प्रत्‍यक्ष हिंदुत्‍ववादी कंटेंट से भी कोई दिक्‍कत नहीं है?
  3. पिछले दिनों राहुल गांधी के मंदिर दर्शन और बयानों के बहाने जिस तरीके से कांग्रेस को ‘सॉफ्ट हिंदुत्‍व’ की लाइन पर चलने वाला मीडिया ने बताया है, कहीं ऐसा तो नहीं कि बार-बार ‘सॉफ्ट हिंदुत्‍व’ का नाम लेकर अंडरकवर रिपोर्टर दर्शकों तक यह धारणा पहुंचाने की कोशिश कर रहा है कि यह सारा किया-धरा कांग्रेस का हो सकता है? एक तथ्‍य और इस बात को पुष्‍ट करता है कि मुख्‍यधारा के मीडिया से सबसे ज्‍यादा दिक्‍कत आज की तारीख में किसी को है तो वो कांग्रेस को ही है।
  4. इंडियन एक्‍सप्रेस में कोबरापोस्‍ट के ऑपरेशन 136 से जुड़ी जो ख़बर छपी है, उसका तीसरा पैरा देखें:

“In the videos of the sting operation, employees of the 17 media companies seem to agree to push Acharya Atal’s “soft Hindutva” agenda, and closer to the upcoming general elections, many of them are seen willing to run content that would have shown Opposition leaders Rahul Gandhi, Akhilesh Yadav, Mayawati, and BJP’s Arun Jaitley, Manoj Sinha, Jayant Sinha, Maneka Gandhi and Varun Gandhi in a negative light.”

अंडरकवर रिपोर्टर द्वारा स्टिंग किए जा रहे व्‍यक्ति के सामने घोषित राजनीतिक मंशा और एजेंडे में राहुल गांधी, अखिलेश यादव और मायावती का मामला तो फिट बैठता है लेकिन अरुण जेटली, मनोज सिन्‍हा, जयन्‍त सिन्‍हा, मेनका गांधी और वरुण गांधी को ”नकारात्‍मक रोशनी में दर्शाने” की बात कहां से और क्‍यों आयी? रिपोर्टरों ने जो स्क्रिप्‍ट लिखी है, उसमें सत्‍ताधारी तबके के ये नाम संतुलन कायम करने के लिए डाले गए हैं या इनका कोई राजनीतिक निहितार्थ भी है? भाजपा में आखिर अरुण जेटली से किसे समस्‍या है जो उन्‍हें कट टु साइज़ करना चाहता है?

इस सवाल को ऐसे समझें कि अगर राजनीतिक रूप से समझदार कोई शख्‍स अंडरकवर रिपोर्टर के सामने बैठा हो, तो ‘नकारात्‍मक रोशनी में दर्शाये जाने वाले नामों’ की सूची में राहुल, अखिलेश और मायावती के साथ जेटली, सिन्‍हा और गांधी के नाम सुनकर उसके दिमाग में क्‍या धारणा बनेगी, कि कथित भागवतगीता प्रचार समिति वाले आरएसएस/बीजेपी में किस धड़े की नुमाइंदगी कर रहे हैं? समझदार हैं तो इशारा काफी है!

5. गौर करें तो यूएनआइ के अलावा बाकी स्टिंग किए गए राष्‍ट्रीय मीडिया के बड़े बैनरों में अमर उजाला, इंडिया टीवी और दैनिक जागरण आते हैं। इनमें अकेले यूएनआइ ही ऐसा बैनर है जहां पत्रकार से बात की गई है। बाकी तीनों में प्रबंधन/मार्केटिंग/सेल्‍स के लोगों से बातचीत है। यह एक बड़ा फर्क है। जागरण, उजाला और इंडिया टीवी में मार्केटिंग का आदमी जानता है कि अच्‍छी मार्केटिंग वो है जो गंजे को कंघी बेच सके। जागरण और इंडिया टीवी के अधिकारी साफ़ कहते हैं कि हिंदुत्‍तववादी एजेंडे और कंटेंट के लिए उनके मंच सबसे उपयुक्‍त हैं। मतलब वैसे भी इन दोनों में ऐसा कंटेंट फोकट में चलता ही है, अगर उसके बदले कुछ पैसे ही मिल जाएं तो मार्केटिंग वाले को क्‍यों बुरा लगेगा? यूएनआइ एक समाचार एजेंसी है जिसके कंटेंट की निष्‍पक्षता ही उसकी पहचान है। उसे पैसे की भी ज़रूरत है। वहां कंघी की ज़रूरत वास्‍तव में है, लेकिन पेंच यह है कि बात एक पके हुए पत्रकार से हो रही है। वह पहली मीटिंग में ताड़ चुका है कि मामला केवल ”बातचीत” का ही है, तभी उसका आखिरी वाक्‍य इस स्टिंग ऑपरेशन के पोस्‍ट-मॉर्टम का निर्णायक औज़ार है- ”आप शुरू तो कीजिए सर, अभी तो केवल बात हो रही है।”

व्‍यापक राजनीतिक संदर्भों में देखें तो कोबरापोस्‍ट का ऑपरेशन 136 यानी पैसे के बदले ”सॉफ्ट हिंदुत्‍ववादी” कंटेंट की मीडिया को बिक्री अपने आप में लचर विषय है। कोई भी कायदे का पत्रकार इस किस्‍म के सौदे पर हंस ही सकता है। जो माल पहले से गोदाम में भरा हो, उससे हलका माल अगर कोई बेचने आए तो शक़ होना लाजिमी है। इस बात को सही सन्दर्भ समझने के लिए पांच साल पीछे कोलकाता चलते हैं।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से महज नौ महीने पहले अगस्त 2013 में राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ ने कोलकाता में एक बैठक बुलाई थी। यह एक वृहद् कार्यशाला थी जो पत्रकारों के लिए बुलाई गई थी। इसका विषय था ‘‘इस्लामिक कट्टरतावाद’। ऐसा पहली बार था कि अपनी स्थापना के 80 वर्षों में संघ ने केवल पत्रकारों के लिए कोई आयोजन किया था। दिल्ली से लेकर मुंबई तक कई पत्रकार इस आयोजन में पहुंचे थे। इनमें वे तमाम चेहरे भी थे जिन्हें हम तब तक विश्वसनीय मानते आए थे। कई चैनलों के संपादक भी वहां पहुंचे थे। ऐसी चार कार्यशालाएं देश भर में रखी गई थीं। एक ‘‘जम्मू कश्मीर की राजनीति के संदर्भ में संघ की भूमिका” पर थी। दूसरी ‘‘अनुसूचित जातियों”  पर थी और तीसरी कार्यशाला ‘‘विकास” पर थी।

संघ की सालाना रिपोर्ट के मुताबिक कोलकाता के अलावा दिल्ली, बंगलुरु और अहमदाबाद में आयोजित इन कार्यशालाओं में देश भर से 220 प्रतिभागी पहुंचे थे। कोलकाता की कार्यशाला में आयोजन के प्रमुख और संघ के प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने इसका उद्देश्य यह बताया थाः

‘‘पत्रकारों को आरएसएस के पक्ष की जटिलताओं को समझाने में मदद करना ताकि वे हिंदू राष्ट्रवादी नज़रिये को बेहतर तरीके से मीडिया में रख सकें।”  प्रतिभागियों को सख्त निर्देश दिए गए थे कि इस कार्यशाला के बारे में न तो रिपोर्ट करना है और न ही कहीं इसका जिक्र करना है। द कारवां में 1 मई 2014 को प्रकाशित अपनी लंबी स्‍टोरी में दिनेश नारायणन लिखते हैं कि एक सत्र के बाद चाय के दौरान पत्रकारों ने मोहन भागवत से बीजेपी और मोदी पर बात शुरू कर दी। भागवत ने पत्रकारों के समूह से कथित तौर पर कहा, ‘‘मोदी इकलौते हैं जिनकी जड़ें संघ की विचारधारा में गहरी हैं। संघ ने पार्टी के नेताओं को कहा है कि वे बस अच्छे उम्मीदवार खड़े कर दें और बाकी काम हम कर देंगे।”

इसके बाद भागवत ने पत्रकारों को चलते-चलते कहा, ‘‘यदि हम 2014 में जीत गए, तो बीजेपी अगले 25 साल तक सत्ता में रह सकती है। अगर ऐसा नहीं हुआ, तो हम सब मिलकर भी जान लगा दें, तब भी सौ साल तक ऐसा नहीं हो पाएगा।” वहां मौजूद एक पत्रकार के मुताबिक, ‘‘जिस तरह से उन्होंने यह कहा था, ऐसा लगा कि आरएसएस शायद बीजेपी को तकरीबन अंतिम मौका दे रहा है।”  (दिनेश नारायणन, द कारवां, 1 मई 2014)

आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि संघ के आला पदाधिकारियों की इस कार्यशाला से पत्रकारों-संपादकों को जो प्रकाश मिला, उसने अगले ठीक नौ महीने में नरेंद्र मोदी की सरकार को अपने गर्भ से जन्‍म दे दिया। 2013 का संघ का वह ओरिएंटेशन पत्रकारों-संपादकों में अब भी कायम है। आज अखबार और समाचार चैनलों पर खबरों को देखकर सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायद मुख्यधारा के मीडिया मालिकों-संपादकों के मन में वास्तव में यह बात बैठा दी गई है कि बीजेपी अगले 25 साल तक इस देश पर राज करेगी। मालिकान इसी हिसाब से अपने संपादकों में फेरबदल कर रहे हैं और संपादक इसी हिसाब से अपनी खबरें चला रहे हैं। खबरों में हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद सुबह से लेकर रात तक छल-छल छलक रहा है।

The Tribune के प्रधान सम्पादक हरीश खरे का इस्तीफ़ा, सरकारी दबाव की चर्चा ज़ोरों पर

यही वजह है कि कोबरापोस्‍ट का स्टिंग ऑपरेशन अधिसंख्‍य राष्‍ट्रीय मीडिया से नदारद है। पूरी तरह ब्‍लैकआउट। यह विडंबना दिलचस्‍प और गौरतलब है। दरअसल, कोबरापोस्‍ट ने जो ‘तथ्‍य’ साबित करने के लिए यह स्टिंग ऑपरेशन रचा (मीडिया का पैसे लेकर हिंदुत्‍ववादी खबरें चलाना), उसे संघ वैचारिक स्‍तर पर और मीडिया मालिकान धंधे के स्‍तर पर अपने कारकुनों के दिमाग में पहले से ही इतने गहरे पैठा चुके हैं कि वही ‘तथ्‍य’ कोबरापोस्‍ट की कवरेज को निगल गया।

कोबरापोस्‍ट अगली कड़ी में चाहे जो लेकर आए, लेकिन पहली कड़ी में उसकी समूची कवायद का बुनियादी तर्क ही सिरे से हिल चुका है। यह भी कह सकते हैं कि कोबरापोस्‍ट यह समझने में चूक गया कि उसे दरअसल क्‍या साबित करना था। यह ऐसा ही है जैसे गणित का कोई कच्‍चा विद्यार्थी पहले से स्‍थापित और सिद्ध किसी गणितीय प्रमेय को कठबैठी से सुलझाने का दावा कर बैठे। गणित और कठबैठी में बुनियादी फ़र्क होता है। ठीक वैसे ही जैसे पत्रकारिता और स्टिंग में फ़र्क होता है।