जिस कानून को 2006 में वन अधिकार (मान्यता) कानून के बाद ख़त्म कर दिया जाना था, आज वही कानून संशोधित होकर वन अधिकार कानून के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आ खड़ा हुआ है।
जिस कानून ने वजूद में आने के बाद आदिवासियों के ऊपर ऐतिहासिक रूप से अन्याय किए और जिन अन्यायों को दूर करने के लिए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने 2005 में वन अधिकार कानून बनाया, आज 13 साल बीत जाने के बाद लोगों के हक़-अधिकार मान्य किए जाने की दिशा में हुई सारी प्रगति निराशाजनक जान पड़ती है। देश के चार करोड़ हेक्टेयर वन क्षेत्र में संसाधनों पर जनतांत्रिक व्यवस्था बनाने की दिशा में जिस कानून ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा था, वह आज फिर अपने लिए जगह तलाश रहा है।
इसकी आहट हालांकि तभी मिल गयी थी जब बांस को लेकर भारतीय वन कानून में व्यापक संशोधन किया गया था, जिसमें संशोधन की जरूरत वास्तव में थी ही नहीं क्योंकि वन अधिकार कानून के तहत शुरुआत से ही बांस को घास की एक प्रजाति के रूप में मान्यता दी जा चुकी थी। अब यह आहट अपने विकराल स्वरूप में हमारे सामने मौजूद है।
इस संशोधन को लेकर केंद्रीय वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने सफ़ेद झूठ बोला और इसे परंपरागत वन निवासियों के हित में बताया। यह उनकी सीमा ही है कि वे हक़-हुकूक की भाषा नहीं समझते। कॉरपोरेट के हित में जन सहभागिता को ही यह सरकार हक़-हुकूक मानती है।
अब बात करते हैं इस प्रस्तावित संशोधन की, जिस पर राहुल गांधी ने अपनी चुनावी सभा में एक भावनात्मक भाषण दिया था और इस भाषण के बहाने चुनाव आयोग ने भी अपनी मौजूदगी का प्रमाण उन्हें नोटिस भेजकर दिया था। राहुल गांधी ने इसके बारे में थोड़ा व्यंजना का इस्तेमाल करते हुए इतना ही कहा था कि यह कानून वन अधिकारियों को आदिवासियों को गोली मारने का प्रावधान देता है। आगे हम देखेंगे कि यह कानून इससे भी ज़्यादा छूट इन्हें देता है।
बीते 7 मार्च 2019 को वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के मंत्रालय (MoEF&CC) ने सभी राज्यों के सभी मुख्य वन संरक्षक अधिकारियों को भारतीय वन कानून, 1927 के प्रस्तावित मसौदे की प्रतियां भेजीं हैं और इस मसौदे पर उनकी राय मांगी है। 7 जून 2019 तक तमाम वन संरक्षक अधिकारियों को अपनी राय, टिप्पणियां मंत्रालय को भेज देना था। हो सकता है कि वन अधिकारियों ने अपनी टिप्पणियां भेज भी दी होंगी।
2014 में सत्ता में आने के बाद से ही नरेंद्र मोदी सरकार के निशाने पर देश के नैसर्गिक संसाधन रहे हैं। अपने कॉरपोरेट मित्रों और मालिकों के मुनाफे की असीमित लिप्साओं की पूर्ति के लिए पदभार संभालते ही लाखों–करोड़ों लोगों की बेदखली के रास्ते चंद पूंजीपतियों के लिए धन के अकूत संचय को सहज करने के लिए प्रतिबद्ध मोदी सरकार इस संशोधन के रास्ते देश की 35-40 करोड़ आबादी पर कहर बरपाना चाहती है। अपने पहले कार्यकाल में ही इसका मसौदा तैयार कर लिया गया था जिसे अब अपार बहुमत से जीत के बाद लागू करने का रास्ता खुल गया है।
इस प्रस्तावित संशोधन में एक बार अगर जंगल में रहने वाले लोगों पर कोई अपराध कायम हो गया तो उन्हें अपनी बेगुनाही साबित करने की ज़िम्मेदारी खुद लेना होगी। अब सवाल है कि आदिवासी क्या अपराध जंगल में करेंगे? इन अपराधों की फेहरिस्त है- जैसे वह जंगल से लघु वन उत्पाद लाता है तो उसे इस प्रस्तावित संशोधन के तहत रोका जा सकता है, उनके इस अधिकार को खत्म किया जा सकता है और ऐसा करने का अधिकार वन अधिकारी को होगा। ऐसी सूरत में भारतीय संसद द्वारा 2006 में पारित किया गया वन अधिकार (मान्यता) कानून भले ही उन्हें यह अधिकार देता हो और भले ही उनके इस अधिकार को इस कानून के तहत तयशुदा प्रक्रिया पूरी होने के बाद मान्यता प्राप्त हो चुकी हो, पर इस नए प्रस्ताव में यह सब वन अधिकारी के अधीन होगा। यह संशोधन वन अधिकारियों को संसद से ज़्यादा ताकतवर बना देता है।
दिलचस्प यह है कि वन, पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन मंत्रालय जो इस मसौदे को आगे ले जा रहा है उसके पास 2006 में वन अधिकार (मान्यता) कानून आने के बाद से बिजनेस रूल्स में हुए संशोधन के कारण जंगल और इससे जुड़े व्यवस्थापन को लेकर समस्त अधिकार नहीं हैं। 2006 में हुए संशोधनों के बाद से ये अधिकार आदिवासी मामलों के मंत्रालय (MoTA) के पास हैं।
इसके अलावा 40 मिलियन हेक्टेयर यानी चार करोड़ हेक्टेयर जंगल जो वन अधिकार कानून के तहत आता है उस पर स्थानीय सरकार यानी ग्राम सभा का अधिकार है और अंतत: नोडल एजेंसी के रूप में आदिवासी मामलों के मंत्रालय की ही मुख्य भूमिका है।
यह जानना भी दिलचस्प है कि यह मसौदा तैयार करते समय MoTA से कोई राय नहीं ली गयी। लगभग 10 करोड़ लोग हैं जो वन भूमि के तौर पर वर्गीकृत की गयी ज़मीन पर रहते हैं। 5,87,274 गांवों में से लगभग 1,70,379 गांव ऐसे हैं जो जंगल में या उसके पास बसे हुए हैं। इन गांवों की मिश्रित आबादी (आदिवासी व परंपरागत जंगल निवासी) 14 करोड़ 47 लाख है। देश में लगभग 27 करोड़ 50 लाख से लेकर 35 करोड़ लोग जंगल पर आश्रित हैं और इनके अधिकारों को सुनिश्चित करने का जिम्मा इस मंत्रालय के पास है।
यह प्रस्तावित संशोधन एक संघीय गणराज्य में राज्यों के विशेषाधिकारों को केंद्र सरकार के अधीन बलात् करने की कोशिश करता है। राज्यों के पास जंगल के अपने कानून व नीतियां हैं क्योंकि यह समवर्ती सूची में आने वाला विषय है। संविधान की सातवीं अनुसूची में राज्यों को यह अधिकार दिये गए हैं कि वे किसी जंगल को आरक्षित (धारा 3(2)), संरक्षित (धारा 29(1) या हाल ही में आयातित नयी श्रेणी प्रॉडक्शन फॉरेस्ट (धारा 2(10) घोषित कर सकें।
इस मसौदे में पहली बार जंगल की एक नयी श्रेणी पैदा की गयी है जिसे ‘प्रॉडक्शन फॉरेस्ट’ कहा गया है। इसे वाणिज्यिक वानिकी (कमर्शियल फोरेस्ट्री) के उद्देश्य से लाया गया है और जिसके लिए किसी भी जंगल को कार्बन अधिग्रहण/संग्रहण को बढ़ाने के उदेश्य से ‘प्रॉडक्शन फॉरेस्ट’ घोषित किया जा सकता है। इससे सरकार को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह व्यापारिक घरानों और कॉरपोरेट जैसी अराजकीय इकाइयों को जंगल सीधे सौंप सकती है।
इस प्रस्तावित संशोधन की धारा 2(21) में ‘उचित कानून के तहत पंजीकृत किसी भी संस्थान’ का हवाला देकर जंगल, ज़मीन, और जंगल के संसाधनों पर मालिकाना हक़ दिये जाने के लिए कॉरपोरेट व व्यक्तियों के लिए दरवाजा खोला गया है जो वन अधिकार (मान्यता) कानून व राष्ट्रीय वन नीति 1980 की मूल भावना के खिलाफ है, जिसमें जंगल के प्रबंधन व नियंत्रण के क्षेत्र में निजी इकाइयों को साफ तौर पर प्रतिबंधित किया गया है।
इस मसौदे में वन अधिकारियों को दी गयी शक्तियों को एक बार फिर से पढ़ना चाहिए ताकि देश के चुनाव आयोग की कर्तव्यनिष्ठा की दुहाई दी जा सके कि किस तरह उसने राहुल गांधी के भाषण पर संज्ञान लिया। इन संशोधन के तहत वन विभाग की नौकरशाही को निम्नलिखित शक्तियां देकर शक्तिशाली बनाया गया है:
परंपरागत जंगलों पर आदिवासियों के अधिकारों को नकारने या समाप्त करने के अधिकार, यहां तक कि जो अधिकार वन अधिकार मान्यता कानून के तहत मान्य किए जा चुके हैं वे भी।
जंगल में रहने वाले आदिवासियों व गैर परंपरागत समुदायों के वन उत्पादों के संग्रहण के अधिकारों को कम करना या प्रतिबंधित करने के अधिकार (जो वन अधिकार मान्यता कानून के तहत उनके ही नियंत्रण में हैं)।
ग्राम सभा की भूमिका को खत्म करने और उसके समांनातर ‘विलेज फॉरेस्ट’ की व्यवस्था लाने के अधिकार, जो सीधे तौर पर वन विभाग के अधिकारियों के नियंत्रण में होंगे।
आरक्षित वनों, संरक्षित वनों, या प्रॉडक्शन फॉरेस्ट में ऐसे व्यक्तियों या संस्थाओं को अधिकार देना जो कभी जंगल में रहे ही नहीं और ये अधिकार देते समय ग्राम सभा से परामर्श या अनुमति लेने की भी ज़रूरत नहीं होगी। ये प्रावधान सीधे तौर पर वन अधिकार मान्यता कानून का उल्लंघन हैं।
ऐसे मामलों में जहां अधिकार सुनिश्चित करने की प्रक्रिया पूरी नहीं हुई है, वहां ‘डीम्ड रिज़र्व फॉरेस्ट’ या ‘डीम्ड प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट’ बनाने का अधिकार।
ऐसे लोगों को गिरफ्तार करने का अधिकार जिन पर कोई संदेह है कि ये कुछ अपराध कर सकते हैं। इसमें प्रिवेंटिव डिटेन्शन शामिल है और सबसे महत्वपूर्ण कि किसी एक व्यक्ति द्वारा अगर कोई अपराध किया गया है तो उसके एवज में पूरे समुदाय को सामूहिक रूप से दंडित करने का अधिकार है।
इसमें यह भी प्रस्तावित किया गया है कि राज्य सरकार/ केंद्र शासित प्रदेश को हवालात बनाने के लिए मानक ढंग से अधो-संरचना का निर्माण करना होगा जहां आरोपियों को रखा जा सके, आरोपियों के परिवहन, आरोपियों को कब्जे में रखे जाने के लिए ज़रूरी हथियार मुहैया कराना होगा, हथियारों के लिए सुरक्षित इंतजाम, हेलमेट, बैटन्स, बगैरह का इंतजाम वन विभाग के अधिकारियों के लिए करना होगा ताकि वे इस कानून को ठीक ढंग से क्रियान्वित कर सकें। ये सारी व्यवस्थाएं दो सालों की अवधि के भीतर हर एक वन संभाग को पूरी करनी हैं।
इसके साथ ही वन विभाग के अधिकारियों को शस्त्र इस्तेमाल करने की गारंटी भी राज्य सरकारों को करनी है ताकि वन अपराधों को रोका जा सके। यह गारंटी कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर 1973 के अनुच्छेद 197 (जिसके तहत कुछ निश्चित जन सेवकों (धारा 66) को मिली हुई है) से भिन्न व अतिरिक्त होगी।
यह गारंटी ठीक उसी प्रकार की है जो जन सेवकों को संघर्ष क्षेत्रों में मिली हुई है मसलन आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (आफ्सपा)। इससे आगे, इस संशोधित कानून के मसौदे में कहा गया है कि किसी भी वन अधिकारी को ड्यूटी के दौरान किए गए किसी भी कृत्य के लिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। ऐसे अधिकारियों की गिरफ्तारी के लिए राज्य सरकार द्वारा अधिसूचित प्राधिकरण द्वारा जांच होगी।
यह कानून अपने उद्देश्यों और प्रकृति में अमानवीय व अतार्किक स्तर तक क्रूर है और किसी भी तरह वन विभाग की औपनिवेशिक विरासत को ज़्यादा ठोस रूप में लागू करने के लिए लालायित है। ज़ाहिर है इसका देशव्यापी विरोध होगा और अस्तित्व की लड़ाई में देश के मूल निवासी पीछे नहीं रहेंगे।
सत्यम श्रीवास्तव वन अधिकार के क्षेत्र में काम कर रहे कार्यकर्ता और टिप्पणीकार हैं