इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 7अप्रैल 2017 को विश्वविद्यालयों या उच्च शिक्षा संस्थानों को युनिट मानकर शिक्षक नियुक्ति की 2006 से जारी रोस्टर प्रक्रिया को रद्द करके विभाग को यूनिट मानकर आरक्षण देने का निर्देश दिया था। इसके बाद विभाग ने इस साल 5 मार्च को विभाग को युनिट मानकर आरक्षण देने का सर्कुलर जारी किया था। इसके ख़िलाफ़ व्यापक प्रतिक्रिया हुई थी। आख़िरकार सरकार ने दबाव में आते हुए सुप्रीम कोर्ट में इसके ख़िलाफ़ विशेष अनुमति याचिका दायर की। संसद में भी हंगामा हुआ। 19 जुलाई को यूजीसी ने विभाग को युनिट मानकर भर्ती करने के सर्कुलर पर रोक लगा दी। लेकिन इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस सर्कुलर को रद्द कर दिया है जिसका मतलब साफ़ है कि अब शिक्षक भर्ती विभाग को युनिट मानकर की जा सकती है। सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष करने वाले इसे मनुवादी साज़िश बता रहे हैं जिसे मोदी सरकार का संरक्षण हासिल है। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक और सामाजिक चिंतक लक्ष्मण यादव ने इस पर जो लिखा है, वह आँख खोलने वाला है। आंदोलन की तैयारी हो रही है और सड़कें गर्म होने का आसार नज़र आ रहा है- संपादक
लक्ष्मण यादव
उच्च शिक्षा में शिक्षक भर्ती के लिए ‘डिपार्टमेंट ऐज़ यूनिट’ मानकर रोस्टर बनाने की प्रक्रिया मूलतः सामाजिक न्याय की हत्यारी व्यवस्था है। इस ‘डिपार्टमेन्ट ऐज़ यूनिट’ को लेकर जारी मनुवादी फरमान को लागू करने के लिए मनुवादी लोग एकजुट होकर काम कर डालते हैं। विश्वविद्यालय, न्यायालय और सरकार के भीतर के मनुवादी जनेऊ मिल जाते हैं और महीनों के भीतर ही पूरे मुल्क के विश्वविद्यालयों में मनुवाद जीत गया। हम कुछ थोड़े से लोगों ने इस मनुवादी सिस्टम से लड़ाई लड़ी, तो संसद तक में छलावा मिला और आज उसी इलाहाबाद हाईकोर्ट में मनुवाद फिर से जीत गया और हम हार गए हैं। दरअसल इसका किस्सा कुछ यूँ चलता है। वे कोर्ट, कैंपस से लेकर सरकार तक को नचाते हैं और बाकी लोग बस नाचते हैं।
एक कैंपस के भीतर से मनुवादी प्रोफ़ेसरों ने मनुवादी शोधार्थी के ज़रिए यह याचिका लगवाई, कि कल जहाँ शिक्षकों की नियुक्ति में 100 फ़ीसदी सवर्णों का कब्ज़ा था, उसमें अब कुछ सीटें आरक्षित हो जा रही हैं। इस याचिका पर मनुवादी वकील ने केस लड़ा, मनुवादी मानसिकता से ग्रस्त इलाहाबाद हाईकोर्ट के जजों ने संविधान पीठ के फैसले को नजरअंदाज करके मनुवादी रोस्टर लागू कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी मनुवादी मानसिकता को जायज़ ठहरा ठप्पा लगा दिया। अब बारी मनुवादी सरकार की थी। उसके इशारे पर यूजीसी ने 5 मार्च का बेहद आपातकालीन फरमान जारी किया और महीने भर में लागू करने का हुक्म दिया। जैसे ही लागू हुआ, सैकड़ों पदों के विज्ञापन के साथ नियुक्तियाँ युद्धस्तर पर शुरू कर दी गईं। ये है मनुवादी सिस्टम।
अब इस कहानी का दूसरा चरण शुरू होता है। नब्बे के बाद हर कैंपस में बहुजन तबके के कुछ जुनूनी लोग तो आ ही गए हैं। उन्हीं के बीच से हम कुछ जुनूनी लोगों ने जोखिम उठाने की ठानी, तो इस मनुवादी रोस्टर को रुकवाने के लिए हमें महीनों सड़कों पर लथपथ रहकर लड़ना पड़ा, दर्जनों धरने प्रदर्शन करने पड़े। आरक्षण के हिमायतियों को ही समझाने के लिए हज़ारों शब्दों में रोज रोज लिखना पड़ा कि ये मनुवादी रोस्टर लागू हो गया तो कहीं के न रहोगे। किताबें पढ़ पढ़कर, रिसर्च करके, लेख लिख लिखकर लोगों से बार-बार कहना पड़ा कि रोस्टर ये होता है और कैसे मनुवादी रोस्टर से बहुजन तबके के लोग कभी शिक्षक ही न बन सकेगा। कई बड़ी बड़ी रैलियाँ करनी पड़ीं। नेताओं की चौखटों पर जा जा कर ज्ञापन देना पड़ा। संसद शुरू हुई तो कुछ नेताओं की गरज भारी पड़ी और सरकार ने 19 जुलाई को नियुक्तियाँ रोक दीं।
इसके बाद इस कहानी का तीसरा और अंतिम चरण बाकी था। हम समझते रहे कि आज सामाजिक न्याय की जीत हुई है, लेकिन उधर शेर के मुँह में खून लग चुका था। मनुवाद यह देखकर लहालोट था कि ये ‘डिपार्टमेन्ट ऐज़ यूनिट’ से तो हमारे दिन फिर लौट रहे हैं। सबसे पहले उसने सरकार को इतना डराया कि रोस्टर पर कोई अध्यादेश न आए। दूसरा काम किया कि तमाम जगहों से याचिका लगवानी शुरू की। उन्हीं में से एक याचिका किन्हीं अखिल मिश्र की याचिका पर उसी इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 30 नवंबर को ये फैसला सुना दिया है कि ‘डिपार्टमेन्ट ऐज़ यूनिट’ के आधार पर नियुक्तियों पर लगी रोक गलत है और अब यूपी में सभी राज्य स्तरीय विश्वविद्यालयों में मनुवादी रोस्टर से नियुक्तियाँ शुरू कर दी जाएँ। हर बार वे सिस्टम के भीतर से ही जीत जाते हैं और हमारा सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष करना भी हार जाता है।
लेकिन अब बस्स। बहुत हो चुका। संघर्ष आर पार करना होगा। देखना ये है कि मनुवाद जीतता है या सामाजिक न्याय।