उपेंद्र कुशवाहा की मुजफ्फरपुर से पटना के बीच ’’नीतीश हटाओ, भविष्य बचाओ’’ पदयात्रा और बिहार विधानमंडल में विपक्ष द्वारा लगातार मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग के बीच नीतीश कुमार ने स्पष्ट कहा कि उनके या स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे से बीमारी थम नहीं जाएगी। जाहिर है कई मौकों पर अंतरात्मा और नैतिकता की बात करने वाले नीतीश कुमार सिर्फ सत्ता की राजनीति करते दिखाई पड़ रहे हैं।
गैसल रेल दुर्घटना की वजह से केंद्रीय रेल मंत्री के पद से इस्तीफा देकर वे इससे पहले राजनीति में उच्च नैतिकता के मानदंड को स्थापित कर चुके हैं, लेकिन जो व्यक्ति स्वच्छ प्रशासन और शासन के लिए जाना जाता था, वह अब राजनैतिक अवसान के दौर में अपने ही तय मानदंड के उलट काम करते हुए दिखाई दे रहा है। क्या उनकी अंतरात्मा उनको झकझोरती नहीं है कि पिछले 14 साल से बिहार में परोक्ष और प्रत्यक्ष तौर पर शासन के बावजूद हजारों बच्चों की मौत हो चुकी है और यह संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है।
CM @NitishKumar जी,
जब आप हलफनामे में स्वीकार कर ही रहे हैं कि सूबे में स्वास्थ्य व्यवस्थायें बदतर है, मानव संसाधन की कमी है, भारी संख्या में डॉक्टरों व नर्सो के पद रिक्त है, बच्चों में भारी कुपोषण है फिर भी कुर्सी प्रेम क्यों ?#नीतीश_हटाओ_भविष्य_बचाओhttps://t.co/3Um7LvAS8U
— Upendra Kushwaha (@UpendraKushRLM) July 2, 2019
सवाल क्या इतना भर ही है कि उनके या स्वास्थ्य मंत्री के इस्तीफे से बीमारी थम जाएगी या नहीं? सवाल इससे कहीं ज्यादा बड़ा है। इसका जवाब सुप्रीम कोर्ट में बिहार सरकार के दाखिल हलफनामे में है। हलफनामे में बिहार सरकार ने माना है कि राज्य में स्वास्थ्य सेवा खस्ताहाल है। बिहार सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि राज्य स्वास्थ्य विभाग में सभी स्तरों पर कम से कम 50 फीसदी पद खाली हैं। राज्य में डॉक्टरों की 57 फीसदी कमी है। वहीं 71 फीसदी नर्सों के पद खाली हैं। इससे साफ है कि बिहार सरकार अपने स्वास्थ्य सेवा के इस ढांचे के साथ किसी भी महामारी को संभाल पाने की स्थिति में नहीं है।
बिहार में 2005 में जब नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनी थी, तब सड़क-बिजली के साथ साथ स्वास्थ्य सेवाओं में भी आमूलचूल परिवर्तन का दावा किया जाता रहा है। निश्चित तौर पर इतने हालात तो जरूर बेहतर हुए थे, कि अस्पताल के बेड पर कुत्ते नहीं सो रहे थे, लेकिन इतने लंबे शासन के बाद भी गंभीर बीमारियों से पीड़ित मरीजों को अभी तक दिल्ली या दूसरे राज्यों में जाकर ही इलाज कराना पड़ता है। अक्सर ही अस्पतालों में मरीजों के लिए जरूरी बेड तक उपलब्ध नहीं होते हैं और उनको जमीन पर भी लिटाकर इलाज किया जाता है।
अभी दो दिन पहले की एक तस्वीर है, जिसमें बेड न रहने की वजह से मुख्यमंत्री के गृह जिला नालंदा में जमीन पर लिटाकर इलाज किया जा रहा है। बहरहाल, यह जानते हुए कि मुजफ्फरपुर में हर साल एक्यूट इनसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) की आशंका बनी रहती है और पांच साल पहले भी इसी तरह की भयावह स्थिति थी, न तो केंद्र की सरकार और न ही नीतीश कुमार की सरकार इसकी गंभीरता समझने को तैयार थी। हालात इतने भयावह थे कि हर बेड पर औसतन तीन से चार बच्चों का इलाज किया जा रहा था।
हम इसे सरकार की नाकामी क्यों मानते हैं? इसके बहुत ही स्पष्ट कारण हैं। यह कारण सरकार से जुड़े अधिकारी खुद बयान कर रहे हैं। इंडियन एक्सप्रेस को दिए इंटरव्यू में बिहार स्वास्थ्य सेवा के पूर्व डायरेक्टर डॉ. कविंदर सिन्हा ने कहा है, ’’हाइपोग्लाइसेमिया सिम्पटम नहीं है, लेकिन एईएस के साइन जरूर हैं। बिहार में बच्चों में जो ऐंठन है वो एईएस तो है लेकिन हाइपोग्लाइसेमिया का कॉम्बिनेशन है। हाइपोग्लाइसेमिया की मूल वजह कुपोषण और उचित खानपान नहीं होना है।’’
जाहिर है हम पिछले पंद्रह साल के सुशासन और 10 फीसदी से अधिक का रिकॉर्ड ग्रोथ रेट हासिल करने के बावजूद अपने बच्चों को कुपोषण से बाहर नहीं निकाल सके, जिससे एईएस यानी चमकी बुखार अपने विकराल रूप में हमारे सामने है। क्या इसे नीतीश कुमार की विफलता नहीं माना जाएगा? क्या उनकी विफलता की वजह से हर रोज हो रही बच्चों की मौत भी नीतीश कुमार की अंतरात्मा को झकझोर नहीं पाती हैं? कुपोषण की समस्या कमजोर आर्थिक स्थिति वाले परिवारों में ज्यादा है। इस बार हताहत होने वाले अधिकतर बच्चे दलित और अतिपिछड़े समाज से आने वाले गरीब परिवारों के बच्चे थे।
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स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार को लेकर सरकार कितनी गंभीर है, इसे बजटीय आवंटन से भी समझा जा सकता है। पॉलिसी रिसर्च स्टडीज (पीआरएस) के विश्लेषण के अनुसार बिहार सरकार का स्वास्थ्य बजट 2016-17 में 8,234 करोड़ रुपए था, जो 2017-18 में घटकर 7002 करोड़ रुपए रह गया। इस तरह एक वित्तीय वर्ष में करीब 1200 करोड़ रुपए की कमी आई है। पीआरएस के आकलन के अनुसार शहरी स्वास्थ्य में 18 फीसदी की कमी आई है और ग्रामीण स्वास्थ्य पर बजट में 23 फीसदी की कमी की गई है। सुशासनी दावों के बीच स्वास्थ्य पर न सिर्फ बजटीय आवंटन कम किया जा रहा है बल्कि सिर्फ सत्ता में बने रहने के अहंकार का खामियाजा भी बिहार के बच्चों को भुगतना पड़ रहा है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की 2015-16 की रिपोर्ट के अनुसार राज्य में पांच साल से कम के 44 फीसदी बच्चों का वजन कम है। बच्चों और गर्भवती माताओं के पोषण के लिए साल 2013-14 में 1714.3 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, वहीं 2017-18 के दौरान ये बजट घटकर 988.7 करोड़ रुपये रह गया। मतलब पांच साल में कुपोषण से निपटने के लिए बजट की राशि लगभग आधी होकर रह गई। ICDS के नियोजित पोषण कार्यक्रम और इतनी बड़ी संख्या में आंगनवाड़ी केंद्र होने के बावजूद मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार से पीड़ित बच्चे शारीरिक रूप से कमजोर और कुपोषित पाए गए। सरकार ने पिछले कुछ वर्षों में आईसीडीएस के बजट को कम कर दिया है।
हमारा मानना है कि एक व्यक्ति अपने 15 साल के शासन में अपनी क्षमता के अनुसार सर्वश्रेष्ठ दे चुका है और उससे कुछ नये की उम्मीद करना बेमानी होगा। परिस्थितियां चीख-चीख कर कह रही हैं कि बच्चों की मौत भी इस पत्थरदिल इंसान को पिघलाने में नाकाम रही है। बिहार की अस्मिता के सामने बड़ी चुनौती है कि इस मुख्यमंत्री को झेलते रहा जाए या उखाड़ फेंका जाए और इस संदर्भ में “नीतीश हटाओ भविष्य बचाओ” महज पदयात्रा नहीं बल्कि एक यात्रा की शुरुआत है, जिसका अंतिम लक्ष्य इस सत्ता को उखाड़कर एक जनोन्मुखी सत्ता का निर्माण करना है।
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लेखक रालोसपा के बिहार प्रदेश उपाध्यक्ष हैं