दिल्ली में AAP की जीत ने भाजपा के राजनीतिक फॉर्मूले को मज़बूत किया है!

जावेद अनीस
ग्राउंड रिपोर्ट Published On :


केंद्र में भाजपा भले ही लगातार दूसरी बार मजबूती के साथ वापसी करने में कामयाब रही हो परन्तु वो सिलसिलेवार तरीके से राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पंजाब, महाराष्ट्र और झारखंड जैसे महत्वपूर्ण राज्यों को गंवाती गयी है. अब इस कड़ी में दिल्ली का नाम भी जुड़ गया है. यहां मतदाताओं ने भाजपा के उन्मादी चुनावी अभियान पर पानी फेरते हुए एक बार फिर ‘अरविन्द केजरीवाल’ पर अपना भरोसा जताया है. भाजपा अपने कोर एजेंडे, भड़काऊ प्रचार, तमाम संसाधनों, पार्टी संगठन और केंद्र सरकार की पूरी ताकत झोंक देने के बावजूद “आम आदमी पार्टी” के हाथों चारों खाने चित हुई है.

दिल्ली में आम आदमी की यह जीत शानदार तो है परन्तु साथ ही ये भ्रमित करने वाली भी है. मोदी विरोधी दिल्ली के जनादेश को भाजपा के उग्र हिन्दुत्ववादी एजेंडे के खिलाफ आम लोगों से जुड़े वास्तविक मुद्दों के राजनीति की जीत बता रहे हैं जिसका प्रतिनिधित्व अरविन्द केजरीवाल करते हैं. कई लोग इसे कांग्रेस के अप्रासंगिक होने और उसकी जगह आम आदमी पार्टी के उभरने की भविष्यवाणी भी कर रहे हैं. आप की जीत विकल्प के राजनीति या भाजपा के खिलाफ विचारधारात्मक जीत नहीं है बल्कि इसका श्रेय आम आदमी पार्टी के चुनावी रणनीति, प्रचार तंत्र, विचारधारात्मक लचीलेपन और राज्यों में राष्ट्रीय मुद्दों की जगह स्थानीय मुद्दों के हावी होने के ट्रेंड को जाती है.

आम आदमी पार्टी का सफर बहुत उतार–चढ़ाव वाला रहा है. यह एक ऐसे आन्दोलन से निकली पार्टी है जिसका फायदा खुद इसे होने के साथ साथ नरेंद्र मोदी और भाजपा को भी हुआ है. साल 2012 में गठन होने के बाद “आप” से बहुत उम्मीदें जगी थीं और इससे वैकल्पिक राजनीति की संभावनाएं व्यक्त की गयी थीं लेकिन “आप” इन तमाम उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पायी, उसने शुरुआत से ही लगातार गलतियां की हैं. 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में आप ने 28 सीटें जीती थीं और अरविन्द केजरीवाल ने पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली थी. तब कांग्रेस ने उनकी सरकार को बाहर से समर्थन किया था लेकिन महज 48 दिनों के भीतर केजरीवाल ने इस्तीफ़ा दे दिया था. इसके बाद गुजरात पहुँच कर वे मोदी और उनके तथाकथित “गुजरात विकास माडल”को चुनौती देने चले गये. इसके बाद “आप” ने 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान  बिना किसी संगठन के एक ही झटके में सौ सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए थे. खुद केजरीवाल मोदी के खिलाफ खिलाफ चुनाव लड़े लेकिन पार्टी का अपने गढ़ दिल्ली में ही पत्ता साफ़ हो गया. इसके बाद दिल्ली के 2015 के विधानसभा चुनाव में किस्मत ने आम आदमी पार्टी  को एक और मौका दिया, जिसमें “आप” ने दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटों पर जीत हासिल की थी, जो एक असाधारण उपलब्धि थी.

इसके बाद “आप” पर केजरीवाल हावी होते गये और उनसे असहमति रखने वाले या सवाल करने वाले लोगों को बहुत बेरहमी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया. उम्मीदें टूटने के बाद लोग बड़ी तेजी के साथ पार्टी छोड़ कर जाने भी लगे, हालांकि इस बार मुख्यमंत्री के तौर पर केजरीवाल काफी बदले हुए नजर आये और जल्दी ही वे अपने आप को कुशल प्रशासक और जनहितैषी मुख्यमंत्री के तौर पर स्थापित करने में कामयाब हो गये. जल्दी ही दिल्ली सरकार द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में किये गये काम पूरे देश में चर्चित होने लगे, हालांकि इसमें आक्रामक विज्ञापन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

कांग्रेस-भाजपा सहित तमाम छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों से ऊबी जनता व लोकतान्त्रिक और जनपक्षीय ताकतों के लिए “आप” का उभार एक नयी उम्मीद लेकर आया था. आशा जगी थी कि “आप” और उसके नेता नयी तरह के राजनीति की इबारत लिखेंगे, लेकिन “आप” से नई राजनीति की उम्मीद पालने वालों को जल्दी ही निराश होना पड़ा. जनता से स्वराज्य और सत्ता के विकेंद्रीकरण का वादा करने वाली पार्टी इन्हें अपने अन्दर ही स्थापित करने में नाकाम रही है. इन सब पर व्यक्तिवाद और निजी महत्वाकांक्षा हावी हो गयी.

सयाने अरविन्द केजरीवाल ने अपने आप को पार्टी के हाई-कमांड साबित कर दिया. जैसा कि कुछ साल पहले “आप” के संस्थापक सदस्य शांति भूषण ने चिंता जाहिर करते हुये कहा था कि “केजरीवाल से “आप” की अवधारणा को नुकसान हुआ है.” धीरे-धीरे अरविन्द केजरीवाल और उनके लोग “आप” आईडिया नामक की सीमा बनते गये हैं. फिलहाल आम आदमी पार्टी का बड़ा संकट अरविन्द केजरीवाल के करिश्मे पर ही पूरी निर्भरता है.

आम आदमी पार्टी किसी विशेष विचारधारा द्वारा निर्देशित नहीं है. “आप” की विचारधारा को लेकर एक बार अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि “हमने व्यवस्था को बदलने के लिये राजनीति में प्रवेश किया है. हम आम आदमी हैं, अगर वामपंथी विचारधारा में हमारे समाधान मिल जाये तो हम वहां से विचार उधार ले लेंगे और अगर दक्षिणपंथी विचारधारा में हमारे समाधान मिल जायें तो हम वहां से भी विचार उधार लेने में खुश हैं.”

इसलिये आज हम देखते हैं कि केजरीवाल राष्ट्रीय मुद्दों पर या तो मोदी सरकार के साथ, सहमति भरी चुप्पी या ढुलमुल नजर आते हैं, कई लोग इसे उनकी रणनीति बताते हैं लेकिन रणनीति से पहले अपनी नीति और राजनीतिक विचारधारा का चुनाव करना जरूरी है.

दिल्ली में तीसरी जीत के बाद अरविन्द केजरीवाल एक बार फिर महत्वाकांक्षी नजर आने लगे हैं. आम आदमी पार्टी द्वारा “राष्ट्र निर्माण के लिए आम आदमी पार्टी से जुड़िए” के नारे के साथ एक फोन नंबर जारी किया गया है. दरअसल “आप” की दिलचस्पी विपक्ष के साथ मिलकर भाजपा और संघ की विचारधारा को चुनौती देने के बजाय कांग्रेस की जगह को हथियाने में ज्यादा नजर आ रही है. 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी का सीधा विरोध करना बंद कर दिया है. अब वे अपने आप को मोदी के खामोश समर्थक की तरह पेश कर रहे हैं और अब वे मोदी सरकार 2 के बड़े फैसलों जैसे अनुच्छेद 370 हटाए जाने जैसे फैसले के साथ खुल कर सामने आये हैं.

दिल्ली के बाद एक बार फिर उनका फोकस पंजाब, हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्यों पर होने वाला है, हालांकि इस मामले में “आप” पहले ही एक मौका गंवा चुकी है. पार्टी पर अरविन्द केजरीवाल के सम्पूर्ण नियंत्रण के बाद से वो केन्द्रित होती गयी है जिससे उसका चरित्र दिल्ली की पार्टी की तरह बन गया है. दिल्ली में तो केजरीवाल सर्वेसर्वा हैं ही, दूसरे राज्यों में भी स्थानीय नेतृत्व को उभरने नहीं दिया गया है. साल 2015 में दिल्ली में जीत के बाद आम आदमी पार्टी के कांग्रेस के विकल्प के रूप में उभरने की काफी सम्भावनाएं थीं, परन्तु अपने व्यक्तिवाद, सांगठनिक सीमाओं और वैचारिक अस्पष्टता के चलते “आप” यह मौका पहले ही गंवा चुकी है. इधर कांग्रेस की स्थिति भी पहले से बेहतर हुई है. उसने कई बड़े राज्यों में अपने और दूसरी पार्टियों के साथ गठबंधन के दम पर वापसी की है, साथ ही केंद्र में अभी भी कांग्रेस की ही मुख्य विपक्ष के तौर पर स्वीकरता है. ऐसे में आम आदमी पार्टी का “कांग्रेस मुक्त भारत” का सपना कितना पूरा होगा इसमें संदेह है.

भारत आज विचारधारात्मक संघर्ष से गुजर रहा है, केंद्र में सत्ताधारी पार्टी देश के स्वरूप और राजनीतिक विमर्श को पूरी तरह से बदल देने में उतारू है. ऐसे में राजनीति सिर्फ चुनावी खेल नहीं रह गयी है. दिल्ली चुनाव में अपने पार्टी की हार के बाद अमित शाह ने कहा था कि “भाजपा विचारधारा पर आधारित पार्टी है और वह सिर्फ जीत के लिए चुनाव नहीं लड़ती बल्कि चुनाव उसके लिए विचारधारा को आगे बढ़ाने का माध्यम भी होता है”. जाहिर है दिल्ली में भाजपा के चुनावी अभियान का मकसद सिर्फ चुनाव जीतने तक सीमित नहीं था बल्कि यह भारत के बहुसंख्यकों के मानस बदल देने के विराट प्रोजेक्ट का हिस्सा था.

ऐसे में दिल्ली प्रदेश के चुनावी नतीजे से देश के राजनीति में किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद करना अपने आप को भ्रम में डालना होगा. केजरीवाल और उनकी “आप” भाजपा और संघ-परिवार पोषित बहुसंख्यक राष्ट्रवाद और इसके खतरों का विकल्प नहीं बन सकते हैं. दरअसल इस चुनावी अभियान में “आप” ने भाजपा के इस फार्मूले को ही मजबूत किया है कि किसी भी सियासी जमात को इस देश में राजनीति करनी है तो मुसलमानों से बच कर रहना होगा.