दो मांओं का संवादः क्षमा की अवधारणा बनाम अदालत की दीवार



07 जनवरी 2020 को दिल्ली के एक ज़िला न्यायालय ने 2012 गैंग रेप के चार अभियुक्तों  को दिये गए मृत्युदंड की सज़ा को क्रियान्वित करने के आदेश दे दिये। न्यायालय की कारवाई के दौरान आरोपी मुकेश सिंह की माँ ने मृत पीड़िता (जिसे दुनियाँ निर्भया के नाम से जानती है) की माँ के पास जाकर कहा, “मेरे बेटे को माफी दे दीजिये।“ उसने गुहार लगते हुए कहा, “अपने बेटे की ज़िंदगी के लिए मैं आपसे भीख मांगती हूँ।“ परंतु आँसू भरी आंखों से आशा देवी ने जवाब दिया, “मेरी भी वह बेटी थी। पर जो उसके साथ हुआ उसे मैं कैसे भूल सकती हूँ? पिछले सात सालों से मैं इंसाफ के लिए इंतज़ार कर रही हूँ…।”

…और तभी अदालत के उस कमरे में न्यायाधीश ने शांति व्यवस्था बरकरार रखने का आदेश दिया और फांसी दिये जाने की तारीख़ मुकर्रर कर दी।

दो मांओं के बीच हुए इस परस्पर संवाद से हमें क्या समझना चाहिए? क्या हमारी न्याय व्यवस्था और कानूनी प्रक्रियाओं में क्षमा की प्रार्थना पर विचार करने की कोई व्यवस्था नहीं है? क्या माफी की गुहार, पीड़िता की माँ की संवेदनाओं को उद्वेलित नहीं कर पाती जिससे कि आरोपी से प्रतिशोध लेने की उसकी कामना खत्म हो सके? क्या हमारा कानून उसे क्षमा देने के स्तर पर पहुँचने का रास्ता भी देता है?

आशा देवी ने कहा था– “मैं कैसे भूल सकती हूँ ?” परंतु क्या माफ कर देना भूलना होता है? क्या यह बीती हुई घटना को नज़रअंदाज़ कर देना या स्वीकार कर लेना होता है?

रंगभेद नीति के प्रखर विरोधी और मानवाधिकारों के प्रबल कार्यकर्ता डेसमंड टूटू अपनी पुस्तक नो फ्युचर विदाउट फोर्गिवेनेस में लिखते हैं– “क्षमा कर देने में व्यक्ति से भूलने को नहीं कहा जाता। इसके विपरीत यह कहा जा सकता है कि याद रखना जरूरी है ताकि हम फिर से उन नृशंसताओं को न होने दें। माफी देने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि हम उन घटनाओं को स्वीकार कर लें या चुपचाप अपनी संवेदनाओं का हिस्सा बना लें बल्कि माफ कर देने का अर्थ तो यह है कि जो कुछ भी घटित हुआ है, उसे गंभीरता से लें और किसी भी दृष्टि से कमतर ना आँकें, और इस पूरी प्रक्रिया में उन स्मृतियों के डंक को उखाड़ फेंकें जो हमारे  पूरे अस्तित्व को विषैला बना देने का खतरा रखते हैं। यह हमें उन अपराधियों को समझने की दृष्टि देता है जिससे कि हम संवेदना की धरातल पर उतर कर उन दबाओं और प्रभावों को समझ सकें जिनसे उनकी चेतना का निर्माण हुआ है।“

क्षमादान को महज़ धार्मिक अर्थों तक सीमित करते हुए यह नहीं माना जा सकता कि मानो वह कोई ईश्वर द्वारा प्रेरित एक पुण्यकार्य हो। न ही यह किसी सामाजिक या न्यायिक मूल्य के रूप में निर्णीत और स्वीकृत किया जा सकता है। इसकी अपेक्षा क्षमादान तो वह प्रक्रिया है जिस पर एक कठिन मानसिक यात्रा करने के बाद ही पहुंचा जा सकता है। इस अंतर्जगत की यात्रा में पीड़ित व्यक्ति को फिर से अपने साथ हुए हादसे को, उसके साथ जुड़े अनुभवों को अपने मानस मे जीना पड़ता है, इसमें आरोपी की अपने अपराध किए जाने की स्वीकारोक्ति भी शामिल होती है और साथ ही पीड़ित के अनुभवों की सच्चाई भी मिली रहती है। यह पूरी प्रक्रिया पीड़ित के लिए एक भावभूमि भी तैयार करती है जहां न केवल खोयी हुई वस्तु बल्कि अपने खोये हुए अस्तित्व पर ही एक प्रकार से  शोक करने का अवसर उसे मिलता है।

शोक मनाने की यह मानसिक प्रक्रिया− जिसकी हमारे सामाजिक संदर्भों में न केवल कम समझ है बल्कि जिसे ज़्यादातर एक अनर्गल प्रलाप की तरह देखा जाता है− कहीं न कहीं पीड़ित को अपने अभियोगी से अपना हिसाब पूरा कर लेने की संभावना दे सकती है। यह पीड़ित को एक ऐसी दृष्टि प्रदान कर सकती है जहां प्रतिशोध लेने की (व्यक्तिगत या संस्थागत) पूरी प्रक्रिया की निरर्थकता को पहचाना जा सके और संभवतः एक ऐसा रास्ता खोल दे जहां अक्षम्य अपराध को भी क्षमा किए जाने की संभावना हो।

हिंसा का अनुभव पीड़ितों के लिए न केवल शारीरिक कष्ट की दृष्टि से विनाशकारी साबित होता है, बल्कि उनके अपने अस्तित्व पर भी आक्रामक सिद्ध होता है। इन हादसों में पीड़ित के ‘स्व’ का प्रश्न ही पूर्णतया समाप्त हो जाता है और वह अपने उत्पीड़क द्वारा की गयी हिंसा की मानसिक पीड़ा के गिरफ्त में आकर उससे प्रतिशोध लेने की सुखद कल्पना से अपने स्व को निर्मित करने का प्रयास करने लगते हैं। इस मनोदशा में ही न्याय की परिकल्पना एक प्रकार से ‘परपीड़न’ की भावना को जन्म देती है जहां उत्पीड़क को उसके कृत्य की सज़ा देना सबसे तर्कसम्मत और प्राकृतिक न्याय की तरह लगता है। (जैसा कि सर्जिकल स्ट्राइक पर लोगों की उन्मादी प्रतिक्रियाएँ, मृत्युदंड की सज़ा, हिंसक भीड़ द्वारा तथाकथित आरोपी को मार डालना और फांसी की सज़ा को मुकर्रर करते वक़्त अदालत में जुटी भीड़ का बेतहाशा तालियों से अनुमोदन करना)।

इस परिप्रेक्ष्य में अगर देखा जाए तो अभियोगी को क्षमा करना कहीं न कहीं पीड़ित को अपने उत्पीड़क की मानसिक गिरफ्त से मुक्त करने का भी ज़रिया बन सकता है। यह पीड़ित की उस मानसिक अवस्था का परिचायक बन जाता है जहां वह अपने उत्पीड़क द्वारा उद्भूत किए गए मनोभावों जैसे आक्रोश, प्रतिहिंसा और घृणा से मुक्त होकर अपने मानसिक बल की पुनर्प्राप्ति कर सकता है।

यदि थोड़ा और उग्र रूप से कहें तो क्षमा एक प्रकार से व्याख्या करने की प्रक्रिया है। यह उस वास्तविकता को अर्थ देने का कार्य करता है जिसका कोई अर्थ पीड़ित को नहीं लगता (जो वस्तुस्थिति को और भी ज्यादा त्रासद बना देता है।) व्याख्या की यह प्रक्रिया ही उसे उत्पीड़क से एक ओर संवेदना स्थापित करने की मांग करती है और अंततः अपने मानसिक व्याघात की पीड़ा से उठकर वास्तविकता को देखने की दिशा देती  है।

इस परिप्रेक्ष्य में दक्षिण अफ्रीकी लेखिका सिंदीवे मेगोना की बहुचर्चित रचना मदर टु मदर की स्मृति सहज हो जाती है। उपन्यास की सूत्रधार मेंडिसा (जिसका पुत्र उस अश्वेत युवाओं की हिंसक भीड़ में शामिल था जिसने 1993 में एक अमेरिकी फुलब्राइट शोधार्थी एमी एलिज़ाबेथ बिचिल की जान ले ली थी।) अपने पुत्र के जीवन इतिहास की खोज करते हुए अंततः दक्षिण अफ्रीका की रंगभेद की विभीषिका और उसके अपने पुत्र के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाओं को बतलाती है। यह एक माँ का ही करुण विलाप है, जब वह अपने पुत्र के लिए क्षमा की याचना करती है- “मेरे बेटे ने तुम्हारी बेटी को मार दिया (……)। हे ईश्वर, तुम मेरा हृदय जानते हो। मैं यह नहीं कहती कि मेरे बेटे को उसके पाप की सज़ा न मिले लेकिन मैं एक माँ हूँ जिसका हृदय एक माँ का हृदय है। जो प्याला तुमने मुझे पीने दिया है उसका घूंट बहुत ही कड़वा है। यह शर्म। दूसरों की मर्मांतक पीड़ा। वह लड़की जिसे इतनी निर्ममता से मार दिया गया। हे ईश्वर, मेरे बेटे को क्षमा कर दे। उसके इस भयानक और जघन्य पाप को माफ कर दे।“

मेंडिसा का यह पूरा वृतांत क्षमा की याचना नहीं है क्योंकि वह जानती है कि उसके पुत्र को सज़ा मिलनी चाहिए, परंतु यह पूरी प्रक्रिया उसके अपने मानस में, जो पहले घृणा, क्रोध और प्रतिहिंसा की भावना से भरा था, एक नयी समझ विकसित करने का एक प्रयास है। यह समझ है उस संरचनात्मक हिंसा और उसके पूरे संदर्भ को पहचानने की, जो उन कम उम्र वाले, उत्साही और कमजोर इच्छाशक्ति वाले युवाओं को विचारहीन और संवेदनाशून्य हत्यारों में तब्दील कर देती है।

मेंडिसा का वृतांत उस असहनीय लज्जा का परिणाम है जो किसी निरपराध को पीड़ित करने से उत्पन्न हुआ है और जो कि स्वयं उसके पुत्र ने किया है। मेंडिसा की यह लज्जा एक ऐसी माँ की शर्म है जिसके पुत्र ने बिना किसी दया के किसी और की पुत्री को मार दिया। परंतु मेंडिसा अपने पुत्र के कृत्यों की माफी, एमी की माँ से नहीं बल्कि ईश्वर से मांगती है, क्योंकि वह इस बात को जानती है कि इन्सानों के द्वारा दी गयी माफी में न केवल वास्तविक अपराधी द्वारा अपने गुनाहों की पूर्ण स्वीकृति की जरूरत है, बल्कि पीड़ित को भी शोक करने और अपने मानसिक घावों से उभरने की गुंजाइश देता है।

मेंडिसा की पूरी कहानी पाठकों के समक्ष एक ऐसी स्थिति की संभावना खोलती नज़र आती है, जहां पर उसके पुत्र के अपराधी बन जाने की परिस्थितियाँ और दबाओं को समझा जा सकता है। यह एक ऐसी संभावना है जो अभियुक्त मुकेश सिंह की माँ को नहीं दी गईं। यहाँ समस्या यह नहीं है कि उसने एक अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा मांगी थी, बल्कि समस्या एक गंभीर स्तर पर यह है कि उसकी याचना की कानूनी कारवाईयों में कोई जगह नहीं है। हमारी कानूनी संकल्पनाओं में मुकेश सिंह की माँ द्वारा की गयी क्षमा प्रार्थना बस एक माँ की भावुक और निरर्थक उक्ति ही मात्र बन कर रह गयी। अदालत में वह बिना किसी नाम, बिना किसी कहानी, कानूनी प्रक्रियाओं के मध्य एक बाह्य दर्शक के रूप में खड़ी रह गयी और संभवतः जिसके पास अपने पुत्र के एक ऐसे इंसान में तब्दील हो जाने की दास्तान की थोड़ी ही पर जानकारी थी, जिसकी ज़िंदगी अब जीने योग्य नहीं लगती।

दो मांओं के बीच संवाद की स्थिति को कानून ने संभव नहीं किया बल्कि कानून और कानूनी प्रक्रियाओं ने इस संवाद को और भी ज़्यादा असंभव बना दिया। और यह कहीं न कहीं हमारे राज्य के आपराधिक न्याय तंत्र के दुष्परिणाम ही हैं जो अवरोध, अशक्तता और प्रतिशोध की मूलभूत विचारधाराओं से प्रेरित है। पुलिस और वकीलों द्वारा संचालित हमारी विरोधात्मक विधि व्यवस्था, जब अभियुक्त और पीड़ित के बीच किसी भी तरह के संपर्क को प्रोत्साहन नहीं देती, तो एक स्थिति की संभावना जहां आपसी संवाद हो सकें, जिससे ज़ख्म भर सकें, क्षमा दी जा सके या समझौते किए जा सके, का तो प्रश्न ही नहीं उठता।

परंतु एक ऐसा विधि तंत्र जो इस प्रकार के संवाद को प्राथमिकता दे, कैसा होता होगा? संभवतः इसके लिए न्याय और शांति के लिए एक नवीन शब्दावली की रचना करनी होगी।  इसके लिए आवश्यकता है कि हम पीड़ितों को अपनी बात रखने की जगह दे सकें और उतपीडकों के साथ परस्पर संवाद की स्थिति को प्रोत्साहित करें। और यह सब करते हुए हमारी दृष्टि प्रतिशोध लेने वाले न्याय से हट कर एक पुनर्रचनात्मक और व्यक्ति को सुदृढ़ करने वाले न्याय की ओर केन्द्रित होनी चाहिए। हमें एक ऐसी कानून व्यवस्था और संस्कृति की परिकल्पना करनी होगी जहां पर व्यक्ति के अपराधी बन जाने की स्थिति से जुड़ी कहानियों को सामने आने दिया जाए ताकि हम यह संवेदना प्राप्त कर सकें कि व्यक्ति के अपराधिकरण की प्रक्रिया क्या और क्यों होती है। और तभी दो मांओं के बीच में एक सार्थक और सशक्त संवाद की स्थिति संभव हो पाएगी।


लेखिका नई दिल्ली स्थित इंडियन लॉं इंस्टीट्यूट में क्रिमिनल लॉं और नारीवादी विमर्श पढ़ाती हैं। यह लेख दि एशियन एज में 22 जनवरी, 2020 को प्रकाशित हुआ था और वहीं से साभार मीडियाविजिल पर प्रकाशित है। मूल अंग्रेज़ी के लेख का हिंदी में अनुवाद दिल्ली विश्वविद्यालय की पीएचडी शाेधार्थी अदिति भारद्वाज ने किया है।