बिन धन सब सून



अर्थव्यवस्था की खराब हालत से निपटने का कांग्रेस का तरीका सबसे व्यावहारिक और अच्छा था। मोटी बात यही थी कि लोगों को पैसे दिए जाते तो वे खर्च करते और खर्च करते तो रुकी हुई अर्थव्यवस्था चल पडती। सभी सरकारी नौकरियों को भरने का उसका वादा भी इस दिशा में योगदान करता। उसे लेकर विपक्ष का यह सवाल था कि इतना पैसा कहां से आएगा। इसके उपाय भी बताए गए थे पर जनता से इसपर यकीन नहीं किया और कांग्रेस बुरी तरह चुनाव हार गई। वह भी तब जब विदेशी बैंकों में रखा कालाधन वापस लाएंगे और उससे हर किसी को 15 लाख रुपए वापस मिलेंगे – पर इन्हीं लोगों ने यकीन किया था। ऐसे में जनता की पसंद के अनुसार काम करना मुश्किल है। इस बार तो भाजपा का ऐसा कोई वादा भी नहीं है। ना खाली पद भरने में वह गंभीर हैं। ऐसे में जब बाजार में पैसा ही नहीं होगा तो आर्थिक स्थिति सुधरेगी कैसे?

दूसरी ओर, आर्थिक स्थिति खराब होने के सभी लक्षण मौजूद हैं। इसे सुधारने वाला सबसे प्रमुख कारक निवेश हो सकता है। पर 2018-19 में भारत में आने वाला निवेश पिछले छह साल में पहली बार एक फीसद तक गिर कर 44.37 अरब अमेरिकी डॉलर पर आ गया। पिछले साल सकल स्थायी पूंजी निर्माण (चालू मूल्यों पर) 29.3 फीसद रहा था। प्रोमोटर निवेश करने से बच रहे हैं क्योंकि क्षमता का इस्तेमाल काफी कम रह गया है, उदाहरण के लिए, विनिर्माण क्षेत्र में यह 76 फीसदी था। कारें नहीं बिक रही हैं और सिर्फ एक लोकप्रिय कार कंपनी की बात करें तो पिछले साल के जून के मुकाबले इस साल कारों की बिक्री 10 प्रतिशत घट गई है। यह स्थिति तब है जब ओला-उबर जैसी सेवा के लिए गाड़ियां खूब खरीदी गई हैं। अगर उसे आप कृत्रिम बाजार न मानें तो भी सच है कि बाजार घट रहा है। ऐसी हालत में डीलर बिना बिक्री के टिके हुए हैं पर कब तक टिके रहेंगे। और उनका घाटा भी असर करेगा।

इस तरह, लगता नहीं है कि सरकार तुरंत कुछ ऐसा कर पाएगी जिससे स्थिति संभल जाएगी। मेरा मानना है कि इसके लिए सरकार को कारोबारियों को यह आश्वासन देने की जरूरत है कि सख्ती नहीं की जाएगी और वे आराम से धंधा करें। पर राजनीतिक कारणों से सरकार ऐसा नहीं करेगी और इस कारण स्थिति अभी बिगड़ती जाएगी। नोटबंदी और जीएसटी के बाद सरकार ने जिस ढंग से नियम बदले हैं उसमें लोगों को नियमों के प्रति आस्था नहीं रह गई है और डर है कि कब क्या बदल जाएगा। दूसरी ओर जो नियम बदले गए उसका असर अभी भी है जबकि कई नियम वापस ले लिए गए हैं। इसका कारण आर्थिक सत्ता के कई केंद्र होना भी है। हर कोई जानता है कि इस सरकार में प्रधानमंत्री कोई भी फैसला ले सकते हैं, वित्त मंत्री हैं ही और जीएसटी कौंसिल बीच चुनाव में भी नियम बदलता है जो पहले नहीं होते थे। कई दिनों बाद आज फिर पिछले ब्लॉग मंत्री ने भी अपनी राय दी है।

मजबूत प्रधानमंत्री के राज में पहले माना जाता था कि प्रधानमंत्री की अनुमति या सहमति के बिना कोई नियम नहीं बदलेगा पर अब जैसे हालात हैं उसमें प्रधानमंत्री की सहमति को मजबूरी समझा जा सकता है और ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है कि आर्थिक स्थिति सुधारने के नाम पर कुछ तथाकथित कड़े फैसले लिए जा सकते हैं (जिसका क्या असर होगा राम जानें)। इसलिए हर कोई इंतजार करने के मूड में है। जो इंतजार नहीं कर सकता उसके पास कोई विकल्प नहीं है। परिवार समेत आत्महत्या साधारण नहीं है। पहले ऐसा नहीं होता था कि कोई पढ़ा लिखा, उच्च वर्गीय परिवार आर्थिक मामलों में इतना मजबूर हो जाए। पर अब यह सच्चाई है और इसका डर अपना काम कर रहा है। बाकी अगर कुछ अच्छा हो सकना भी होगा तो वह नहीं होगा। वैसे आत्महत्या से अच्छा क्या होना है।

प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि कार, ऑटो या ट्रक की बिक्री से नौकरी के मौके बनते हैं पर 19-20 का साल वाहनों के निर्माण के लिहाज से महत्वपूर्ण है और यह पर्यावरण को हो रहे या हो चुके खतरे से जूझने की जरूरत के कारण भी महत्वपूर्ण है। दूसरी ओर, इस साल भारत स्टेज सिक्स के पर्यावरण और प्रदूषण नियम लागू होने हैं। इसमें भी खर्च होना है और मंदे बाजार में यह खर्च पूरी तरह उपभोक्ताओं से नहीं वसूला जा सकता है। इसका असर कार निर्माता कंपनियों की लागत पर पड़ेगा। यह नियमों का मामला है और एक अप्रैल 2020 से कोई भी मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) ऐसी कार नहीं बेच सकता है जो बीएस 6 के अनुकूल न हो। ऐसे में तैयार स्टॉक के बारे में सोचिए और बिक्री कम होने के नुकसान का अंदाजा लगाइए। मुझे नहीं लगता कि इस नुकसान की भरपाई आसान होगी। बीएस सिक्स को लागू नहीं करना निश्चित रूप से कोई उपाय नही है।

निर्मला सीतारमन देश की पहली महिला वित्त मंत्री हैं। इस कारण इनसे उम्मीद तो है और लोगों ने इनकी तारीफ भी की है। पर उनमें ऐसा कुछ नहीं है जिससे उम्मीद की जा सके कि वे देश की अर्थव्यवस्था को पटरी पर ला सकेंगी। महिलाओं को छोटे-बड़े लाभ या सुविधाएं देने से देश की आर्थिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं होने वाला है। उस पर भी तुर्रा यह कि डन एंड ब्रैडस्ट्रीट इंडिया के चीफ इकनॉमिस्ट अरुण सिंह ने कहा है कि आर्थिक मोर्चे पर पूरी दुनिया इन दिनों मंदी का सामना कर रही है। इस हिसाब से भारत की जीडीपी विकास दर को गति देना आसान नहीं है। सिंह ने कहा, “जीडीपी से संबंधित ग्रोथ सेंटर की पहचान करने के साथ ही सरकारी और निजी क्षेत्र के समक्ष फंडिंग से जुड़ी बाधा को भी दूर करना है। इसके मद्देनजर फंड के प्रवाह को प्राथमिकता देना बेहद महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।” पर यह कैसे होगा और इस बजट में हो पाएगा कि नहीं यह कोई नहीं जानता है।