1-2 फरवरी को अंग्रेज़ी विभाग द्वारा आयोजित संगोष्ठी में प्रो. निवेदिता मेनन के व्याख्यान के बाद जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय सुर्ख़ियों में है. विश्वविद्यालय में घट रहे विवाद को देखकर लग रहा है कि एक साल पहले की सारी कहानी ज्यों की त्यों दोहराई जा रही है. एक साल पहले उदयपुर में सुखाडिया विश्वविद्यालय में हुए व्याख्यान के बाद भी यही सब हुआ था. अफवाहें, तथ्यों का गलत सलत प्रस्तुतीकरण, मनगढ़ंत आरोप और तत्काल सजा. फ़र्क यह है कि इस बार हमले की तीव्रता और फैसले की हड़बड़ी ज्यादा है.
सबसे पहले उन बिन्दुओं पर चर्चा कर लें, जो आरोप की शक्ल में जोर जोर से दोहराए जा रहे हैं.
प्रो. मेनन के व्याख्यान पर मुख्य आरोप यह है कि उन्होंने देश का नक्शा ‘उल्टा’ दिखाकर राष्ट्र का अपमान किया. जिस बात को इतना बड़ा हौव्वा बनाकर पेश किया जा रहा है, वह एक सामान्य सा अकादमिक अभ्यास है, जो दुनिया भर में मान्य है. दुनिया गोल है और नक़्शे में उत्तर-दक्षिण-पूर्व-पश्चिम सिर्फ हमारी संकल्पनाएँ हैं. उत्तर आधुनिक विचारकों द्वारा पूर्व पश्चिम के द्वैत को बरसों पहले खारिज किया जा चुका है. उत्तर औपनिवेशिक इतिहास लेखन की एक सम्पूर्ण धारा है जो यूरोकेंद्रित इतिहास दृष्टि को खारिज करके नई सोच के साथ इतिहास को देखने की कोशिश करती आयी है. (और इस धारा में गैर मार्क्सवादी ही नहीं, दक्षिणपंथी रुझान वाले इतिहासकार भी शामिल हैं) इसी क्रम में नक्शों के यूरोकेंद्रित होने को चिह्नित करते हुए न मालूम कितने प्रयोग हुए हैं. आप एक लेख से इसकी झलक पा सकते हैं. (1) और तो और, आप चाहें तो उल्टा नक्शा अमेज़न पर जाकर खरीद भी सकते हैं. (2) सिर्फ उल्टा ही नहीं, ग्रीनविच रेखा की केन्द्रीय स्थिति (यानी यूरोप की केन्द्रीय स्थिति) को बदलकर या ध्रुवों के परिप्रेक्ष्य से दुनिया को देखकर या और भी अनेक तरीकों से भूगोलवेत्ता नक़्शे को बनाते और प्रदर्शित करते रहे हैं. उदाहरण के लिए यूनाइटेड नेशंस का लोगो जिस पद्धति का अनुसरण करता है वह सरल भाषा में ‘पोलर मैप’ कहा जा सकता है.
यू एन का लोगो
वैसे आपका नक्शा जैसा भी हो, जो चाहे उसे आयताकार फैला दे पर दुनिया गोल ही है और भारत के विश्वविद्यालय, मध्ययुगीन चर्च नहीं हैं.
सबसे मजेदार बात यह है कि जो विवादित चित्र प्रो. मेनन ने अपने व्याख्यान के दौरान दिखाया, वह NCERT की कक्षा 12 की किताब में एक दशक से है, अभी भी है और उसे देश भर के लाखों शिक्षक और विद्यार्थी रोज देखते हैं. और तो और एक साल पहले तक यही किताब हमारे अपने राजस्थान पाठ्य पुस्तक मंडल की किताब भी थी और इस तरह हमारे राज्य में भी लाखों शिक्षक-विद्यार्थी इस नक़्शे को देखते आये हैं. अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों पुस्तकों का पेज नं 150 देख लीजिये. अंग्रेज़ी वाला हमारे दोस्त ने उपलब्ध करवा दिया है.
प्रो. मेनन ने अपने भाषण में कश्मीर के बारे में कोई कथित विवादित बयान नहीं दिया. हाँ, उनका परिचय कराते हुए प्रो. राणावत ने यह जरूर बताया था कि प्रो. मेनन पिछले साल तब सुर्ख़ियों में आयीं जब उनके एक व्यख्यान के एक वाक्य को सन्दर्भ से काटकर दुष्प्रचारित किया गया. इस सन्दर्भ में प्रो. राणावत ने वह वाक्य बोला था, जो जाहिर है, उनका या प्रो. मेनन का अभिप्रेत नहीं था. इसे उनका बयान कोई नासमझ या अंधविरोधी ही कह सकता है.
तीसरी बात, प्रो. मेनन ने यह नहीं कहा था (जैसा स्थानीय अखबारों में छपा) कि वे तिरंगे को नहीं मानती, बल्कि इसके उलट उन्होंने यह कहा था कि RSS की भारत माता के हाथ में तिरंगा नहीं भगवा है और वे इस RSS की भारतमाता को नहीं मानतीं. वह चित्र यह था.
इस चित्र के बरअक्स इस चित्र को रखें जो निवेदिता मेनन ने दिखाया.
यह प्रसिद्द चित्रकार लाल रत्नाकर की रचना है. लाल रत्नाकर के चित्र आपको नेट पर बहुत सारे मिल जायेंगे, वे भारत के ग्रामीण-किसान-मजदूरों के चितेरे हैं. उनका सौन्दर्यबोध, आभिजात नागरिक बोध से सर्वथा भिन्न है और ‘भारतमाता ग्रामवासिनी’ ( यह सुमित्रानंदन पन्त की रचना है ) की सच्ची तस्वीर उनके चित्रों में नज़र आती है. वैसे यहाँ नागार्जुन की कविता की याद आना भी स्वाभाविक है जिन्होंने एक मादा सूअर पर कविता लिखते हुए उसे ‘मादरे हिन्द की बेटी’ बताया था. जाहिर है, आज गौमाता के भक्तों को उनकी कविता भी देशद्रोह ही नज़र आती. पहले चित्र को ध्यान से देखें, एक गौरवर्ण, गहनों से लदी, मुकुटधारिणी स्त्री को भारतमाता का दर्जा दिया जा रहा है. क्या इन प्रतीकों में छिपा सवर्ण, शहरी, उत्तरभारतीय अभिजात आपको नज़र नहीं आता? यह आरएसएस की संकल्पना का भारत है. इसमें भारत के सम्पूर्ण निवासियों के लिए जगह नहीं है. यह राष्ट्रवाद की न सिर्फ संकुचित बल्कि संकीर्ण अवधारणा है. और यह तो तथ्य है ही कि तिरंगा उन्हें कभी रास नहीं आया.
चौथा बिंदु, प्रो. मेनन ने यह कहीं नहीं कहा था कि सैनिकों में देशभक्ति नहीं होती बल्कि उन्होंने पिछले दिनों आये फ़ौजी तेजपाल यादव के वीडियो के सन्दर्भ में यह कहा था कि देशभक्ति की आड़ में इस बात को अनदेखा नहीं किया जा सकता कि जवानों के लिए जीवनयापन भी एक वास्तविक प्रश्न है और इसलिए उनके हालत ठीक हों इसके लिए पर्याप्त कदम उठाये जाने चाहिए. इसी सन्दर्भ में उन्होंने सियाचिन में परस्पर सहमति से विसैन्यीकरण की बात कही थी. यह एक प्रासंगिक सवाल है और सबसे मजेदार बात यह है कि उसी अखबार ने, जिसने भड़काऊ खबर छापकर आग लगाई, उसने अपने रविवार, 19.02.17 के अंक में सियाचिन पर बड़ी रिपोर्ट छापते हुए बताया है कि सियाचिन में ठण्ड से मरने वाले सैनिकों की संख्या कारगिल के युद्ध से दुगुनी है.
अर्थात विसैन्यीकरण एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सभी पक्ष विचार कर रहे हैं, फिर प्रो. मेनन यह बात कहने से देश या सेना विरोधी कैसे हो जाती हैं, यह समझ से परे है.
हम एक ऐसे दौर में आ गए हैं, जहाँ कोई कहे कि आपका कान कौव्वा ले गया है तो फ़ौरन कौव्वे के पीछे भाग पड़ने का नाम राष्ट्रभक्ति है. रूककर अपने कानों को टटोलना, राष्ट्रद्रोह है.
II
बहरहाल, इसमें यह देखना दिलचस्प होगा कि अखबारों की भूमिका क्या रही. मुख्यतः दो अखबारों – दैनिक भास्कर और दैनिक नवज्योति ने 3 तारीख की सुबह भड़काऊ खबर के नए कीर्तिमान स्थापित किये. पहले भास्कर को लेते हैं.
खबर को ध्यान से देखने पर आप यह समझ सकते हैं कि यह पूरी रिपोर्टिंग एक स्वनामधन्य प्रोफ़ेसर के श्रीमुख से सुनी गयी कथा है, जिसे मनचाहे तरह से प्रस्तुत करने की छूट उन्हें मिली हुई थी. सैनिकों की कठिन जीवन परिस्थितियों पर चिंता प्रकट करना उनके देशप्रेम को कठघरे में खड़ा करना बन जाता है. ‘भारत माता की ये ही फोटो क्यों है ?’ सवाल के साथ संदर्भित फोटो नहीं लगाया जाता है और इस संदर्भित फोटो के बारे में पूछा गया सवाल कि – ‘इस भारत माता के हाथ में तिरंगा क्यों नहीं है’ थोड़े से हेर फेर से ‘तिरंगा क्यों है ?’ में बदल जाता है. वैसे सवाल यह भी है कि कोई भारत को माता माने, कोई पिता माने (जैसा परमपूज्य सावरकर मानते थे) कोई महबूबा माने, या कोई ये माने कि मातृभूमि से प्रेम के लिए उसे जीवित रूप में मानकर कोई रिश्ता जोड़ना जरूरी नहीं है, इससे किसी की देशभक्ति सर्टिफाइड कैसे होती है ? आप देखेंगे कि यह खबर ऐसा आभास प्रस्तुत करती है जैसे हॉल में बैठे अधिकाँश लोग उनकी बातों से दुखी और क्रोधित हुए. सच्चाई ये है कि एक प्रो. एन के चतुर्वेदी के आलावा दूसरे किसी को निवेदिता मेनन के व्यख्यान से असहमति नहीं थी. यह मैं एक प्रत्यक्षदर्शी मित्र डॉ. आशुतोष मोहन, इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय के हवाले से कह रहा हूँ. वैसे तो, मेरा यह मानना है कि प्रो. चतुर्वेदी अकेले भी अपनी जगह सही हो ही सकते हैं. सत्य का संख्याबल से कोई प्रत्यक्ष रिश्ता नहीं होता, पर जो रिपोर्ट बनाने या बनवाने वाले हैं, वे निश्चय ही किसी असुरक्षा बोध से ग्रस्त हैं इसलिए वे संख्याबल को अपनी बात के समर्थन के लिए प्रस्तुत करते हैं. ‘टी ब्रेक के बहाने भाषण रोका’ ऐसा आभास प्रस्तुत करता है जैसे निश्चित समय पर टी ब्रेक, आयोजकों का षड्यंत्र है, सच बात ये है कि प्रो. चतुर्वेदी के पास भारत मां की जयजयकार के अलावा कोई ठोस सवाल थे ही नहीं, यदि होते तो इस रिपोर्ट में उनके बॉक्स फोटो के साथ सन्नद्ध उद्धरणों में निश्चय ही होते. और हाँ, ये ‘जेएनयू छात्रों का माइंड वॉश करने वाला वाइरल वीडियो’ मैं भी देखना चाहता हूँ !
दूसरी रिपोर्ट- नवज्योति को देखिये.
वह एक न कहे गए वाक्य को हेडलाइन बनता है और फिर उसे ‘शर्मनाक’ की संज्ञा देता है. प्रो. मेनन ने अपनी मां को उद्धृत करते हुए कहा था कि ये कैसे हिन्दू हैं जो मानते हैं कि राम का जन्म एक ही जगह हुआ था, राम तो सबके ह्रदय में है. नवज्योति इसे राम के अपमान के रूप में प्रस्तुत करता है. वैसे अगर आख्यानेतर राम की बात करना अपराध है तो यह अपराध निवेदिता और उनकी मां से पहले, काफी पहले एक आदमी और कर चुका है. उसका नाम कबीर था जो ‘दशरथसुत राम’ की आराधना नहीं करता था. चलो बुलाओ कबीर को !
एक अच्छी बात है, नवज्योति ने अनजाने में ही सही भास्कर की रिपोर्ट को झूठ साबित करते हुए यह लिख दिया है – ‘प्रो. मेनन ने कहा कि भारतमाता के हाथ में झंडा भगवा नहीं तिरंगा होना चाहिए.’ अनजाने में इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि नवज्योति तो अपने हिंदुत्त्ववादी रुझान के चलते इस तथ्य को ही भारत विरोधी मान रहा था. नवज्योति विसैन्यीकरण की बात से यह निष्कर्ष निकालता है कि सियाचिन को पाकिस्तान को दे देने की बात हो रही है. विसैन्यीकरण कभी भी एकपक्षीय नहीं होता, पर अखबारों की राजनयिक मामलों में इतनी ही समझ होती है, क्या कीजिये ! नवज्योति लिखता है कि ‘सुन्दर महिला की बजाय एक काली औरत, हाथ में तगारी लिए हुए और भैंस के साथ कामगार महिला नज़र आनी चाहिए.’ सुन्दर-असुंदर का विभाजन निवेदिता मेनन ने नहीं किया, वह नवज्योति का कारनामा है. यह नवज्योति की संकल्पना है जिसमें काली, भैस के साथ हाथ में तगारी लिए हुए औरत सुन्दर नहीं होती है और इसलिए उसमें भारत माता का अपमान होता है. ठीक यही बात निवेदिता मेनन अपने व्याख्यान में कह रही थीं. हिन्दुत्त्व की अवधारणा मूलतः वर्णाश्रम के आदर्श पर टिकी है और इसलिए उसमें दलितों-स्त्रियों-किसानों-मजदूरों आदि के लिए जगह नहीं है. भारत की राष्ट्रवाद की अवधारणा और हिन्दुत्त्व में व्युत्क्रमानुपाती सम्बन्ध है. एक समावेशी है तो दूसरा अपवर्जी. डॉ. मेनन उस राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्त्व करती हैं जिसमें इस देश के सभी नागरिकों की आकांक्षाओं के लिए जगह है. जिसमें धर्म-जाति-लिंग-भाषा-क्षेत्र या और किसी भी आधार पर भेदभाव नहीं है. वे कौन लोग हैं जिन्हें यह बात राष्ट्रविरोधी लगती है ? राष्ट्र उनके बाप की बपौती है ?
अब आगे का घटनाक्रम देखिये. नवज्योति छोटा अखबार है, भास्कर का प्रसार ज्यादा है. भास्कर वाली खबर को उठाया जागरण ने. पर वैसे की वैसे छाप दें तो जागरण के संपादक की मौलिक प्रतिभा का क्या होगा ? इसलिए उन्होंने उसी खबर को नया शीर्षक दिया – ‘मैं देश विरोधी, नहीं मानती इस भारत माता को’. खबर वही है, हर्फ़ ब हर्फ़ वही, बस शीर्षक नया ! (10) फिर न्यूज़ट्रेक नामक वेबसाईट ने सोचा कि अभी तक भावनाओं का तड़का इस खबर में पूरी तरह लगा नहीं है तो उसने भी इसी खबर को शीर्षक दिया – ‘भारत के खिलाफ इतना जहर क्यों उपजाता है जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय? (11) हूबहू इसी खबर का शीर्षक ‘डेलीहंट‘ ने दिया – ‘प्रोफ़ेसर निवेदिता मेनन के बवाली बोल कहा, सेना का जवान देश के लिए नहीं रोटी के लिए करता है काम’. (12) दरअसल ऐसी एक नहीं बीस जगहें हैं जहाँ आप इसी खबर को नए नए शीर्षकों और नई नई व्याख्याओं के साथ पढ़ सकते हैं. सभी अखबार या वेब पोर्टल अपनी ओर से दो चार पंक्तियाँ जोड़कर राष्ट्रभक्ति के यज्ञ में अपनी आहुति जरूर देते हैं लेकिन मूल खबर सब जगह वही है, पंक्ति दर पंक्ति – ‘कुछ देर तो हॉल में मौजूद प्रतिभागियों ने सोचा’ से होते हुए ‘प्रो. चतुर्वेदी ने प्रो. मेनन को आड़े हाथों लेते हुए कहा’ तक सब कुछ ! और यह खबर पूरे सोशल-प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर एक ऐसी रिपोर्ट के आधार पर तैर रही है जिसका रिपोर्टर वहां था ही नहीं, जिसे दोनों पक्ष पता ही नहीं या जिसने जानने की कोशिश ही नहीं की.
यह हिंदी पत्रकारिता का हाल है, अंग्रेज़ी में ढूँढने पर ( इस मुद्दे पर ) ज्यादा संतुलित रिपोर्ट्स देखने को मिलती हैं पर विडम्बना यही है कि जिस हिन्दी पट्टी में यह राष्ट्रवाद के खोल में लिपटी साम्प्रदायिकता और जातिवाद पनप रहे हैं, वहां इन हिन्दी समाचार माध्यमों की ही पहुँच ज्यादा है. आज मीडिया की स्थिति यह है कि आप सिर्फ इस भाग्य के भरोसे हैं कि आपके शहर के संस्करण का संपादक और उससे भी ज्यादा आपकी बीट का रिपोर्टर परिपक्व मस्तिष्क का है या नहीं. वही भास्कर जिसने उदयपुर में ‘चौथे उदयपुर फिल्म फेस्टिवल’ के खिलाफ एबीवीपी और विश्वविद्यालय प्रशासन के षड्यंत्र के खिलाफ साहसिक रिपोर्ट छापी थी, उदयपुर से जोधपुर तक के सफ़र में एक सौ अस्सी डिग्री का घूर्णन कर लेता है. 3 तारीख को राजस्थान के दूसरे प्रमुख अखबार ‘राजस्थान पत्रिका‘ में इस बारे में कुछ भी उल्लेखनीय नहीं आया पर 4 तारीख को उन्होंने एक काफी संतुलित खबर छापी जिसके आधे हिस्से में निवेदिता मेनन का इंटरव्यू था जिसका शीर्षक था – ‘लेक्चर राष्ट्रविरोधी नहीं, आरएसएस विरोधी’. पर असल में यह सिर्फ किस्मत की बात नहीं है, अंततः बाज़ार में सनसनी और भड़काऊ ख़बरें ही बिकती हैं. वर्ना ऐसा क्यों होता कि किसी भी अन्य एजेंसी ने पत्रिका की खबर को नहीं उठाया, सब जगह भास्कर का प्रस्तुतीकरण ही शाया हुआ. फिर अंततः ‘राष्ट्रवादी बैंडबाजे’ में शामिल होते हुए पत्रिका भी 21 जनवरी को एक खबर के साथ नमूदार हुआ – ‘जांच एजेंसियों को छका रहे ये लोग’ इसमें हत्या और घोटालों के अभियुक्तों के साथ प्रो. राणावत की तस्वीर छापी गयी.
अब इस जांच की और इस बहाने विश्वविद्यालय की भूमिका की भी जांच कर ली जाए. 3 तारीख को अखबारों की इस तरह की भड़काऊ रिपोर्टिंग के बाद उस खबर की विश्वसनीयता की जाँच किये बिना विश्वविद्यालय ने प्रो. राणावत को एक शो कॉज नोटिस थमा दिया, एक जांच समिति बिठा दी और मानो यह काफी नहीं था, पुलिस में एफ़आईआर भी करवा दी. शो कॉज नोटिस में पूछे गए सवाल बड़े मजेदार हैं और यह बताते हैं कि जांच से पहले ही फैसला ले लिया गया है. पूछा गया कि उन्होंने निवेदिता मेनन जैसी विवादित व्यक्ति को क्यों बुलाया ? वैसे यह जानना दिलचस्प होगा कि इस सेमीनार में किसी एक रंग या विचारधारा के लोग ही आमंत्रित नहीं थे. उदाहरण के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शेषाद्री चारी भी निमंत्रित वक्ता थे) दिए जाने वाले भाषण की लिखित प्रति पूर्व में मंगवाई गयी थी क्या और उसका अनुमोदन गोष्ठी समिति या सम्पादन मंडल से करवाया गया था क्या ? क्या उनके परिचय में आपने यह कहा था कि वे राष्ट्रविरोधी भाषणों के लिए जानी मानी हस्ती हैं ?
यहाँ मैं अपना एक व्यक्तिगत अनुभव लिखना चाहूंगा. पूर्व में मैं एक प्रबंध समिति द्वारा संचालित महाविद्यालय में प्राध्यापक था. उस दौरान मैंने एक वर्ष तक राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका ‘मधुमती’ का सम्पादन किया था. एक बार प्रबंध समिति के पास मेरे खिलाफ एक शिकायती चिठ्ठी आयी जिसमें आरोप था कि मैं महाविद्यालय की नौकरी के अतिरिक्त ये काम भी कर रहा हूँ. प्रबंधन ने सीधा एक कारण बताओ नोटिस मुझे प्रेषित करने के लिए प्राचार्य के पास भेज दिया. मेरे तत्कालीन प्राचार्य ने मुझे यह नोटिस देने की बजाय प्रबंधन को जवाब भेजा कि किसी भी शिक्षक को इस बात के लिए नोटिस देना उसकी गरिमा का हनन है. संपादन कर्म एक प्राध्यापक की अकादमिक गतिविधि का ही विस्तार होता है और जिस काम के लिए उसे सम्मानित किया जाना चाहिए, उसके लिए स्पष्टीकरण मांगना प्रबंधन की बड़ी भूल है. जाहिर है, मुझे कोई पत्र नहीं मिला और इसकी जानकारी भी काफी समय बाद उन्होंने अनौपचारिक रूप से दी. एक महाविद्यालय प्राचार्य जिस अकादमिक स्वायत्तता का अर्थ और महत्त्व समझते थे, वह एक विश्वविद्यालय के कुलपति के लिए किसी चिड़िया का नाम है. कुलपति के पद पर राजनीतिक नियुक्तियों ने इस पद की गरिमा और औदार्य को न समझने वालों को कुर्सी पर बिठा दिया है. इस औदार्य का ताल्लुक, खुद कुलपति की शान से नहीं होता है बल्कि विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के लिए किसी से भी टकरा सकने के उसके नैतिक साहस से होता है. लिखित प्रति और पूर्वानुमोदन जैसी शिशुसुलभ अपेक्षाओं को सुनकर आप सिर्फ अपना सर दे मारने के लिए दीवार ढूंढ सकते हैं. और यह ‘विवादित’ क्या होता है और अकादमिकी को विवाद से छूत का डर कब से हो गया ? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दृष्टि में अपाच्य व्यक्ति यदि विवादित होने लगेंगे तो यह सूची बहुत लम्बी हो जायेगी. अनेक प्रतिष्ठित इतिहासकार इसकी ज़द में आयेंगे जिन्होंने संघ की स्वतंत्रता संग्राम में ‘ऐतिहासिक भूमिका’ पर विस्तृत प्रकाश डाला है, अनेक समाजशास्त्री खतरनाक हो उठेंगे जिन्होंने समाज में फैलते जातिगत और धार्मिक तनाव में संघ के ‘योगदान’ का वर्णन किया है. तो एक तालिका बनवा लें झंडेवालान से ? पर सेमीनार तो वाद-विवाद-संवाद से ही अपनी पूर्णता को प्राप्त करते हैं. विवादहीन विषय ढूँढने जाएँ तब फिर तो पल्स पोलियो पर ही सेमीनार करवाया जा सकता है. उससे किसी को कोई समस्या नहीं होगी. सभी प्रसन्न रहेंगे. मा कश्चित दुःखभाग भवेत्.
खैर. मूलतः यह नौकरशाही की विशेषता होती है कि मूर्खतापूर्ण सवालों के भी पूरी गंभीरता से उत्तर दिए जाते हैं और अकादमिक व्यक्ति भी इस गुण को जैसे तैसे ग्रहण कर ही लेते हैं. डॉ. राणावत भी इन सवालों के जवाब दे ही सकती थीं पर 3 तारीख को ही शहर में बन रहे माहौल के कारण उन्हें परिसर में अकेले रहने में असुरक्षा महसूस हो रही थी इसलिए वे जोधपुर से बाहर चली गईं. जांच समिति और पुलिस अधीक्षक को उन्होंने निरंतर अपने ई मेल्स के जरिये सुरक्षा (का आश्वासन) मुहैया कराने की अपील की जिसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया और उनके जांच समिति के सामने उपस्थित न होने को उनकी अपराध की स्वीकारोक्ति मान लिया गया. और डॉ राणावत के जोधपुर पहुँचने पर निलंबन की खबर उनकी प्रतीक्षा कर रही थी. यानी मामला ये था कि पूरे शहर में हंगामा था और जांच समिति के सदस्य अपने चैंबर में डॉ राणावत के उपस्थित होने की अपेक्षा कर रहे थे. और उनका चैंबर अंतरिक्ष में नहीं था.
अब आगे की खबर ये है कि सिंडीकेट ने अग्रिम जांच के लिए तीन सदस्यीय समिति बनायी है जिसमें प्रो. कैलाश डागा, प्रो. चंदनबाला और महापौर घनश्याम ओझा सदस्य हैं. अब एक और खबर पर नज़र डालना दिलचस्प होगा ( 13 ) 9 फरवरी की यह खबर भी दैनिक भास्कर में ही छपी है. खबर जेएनवीयू शैक्षिक संघ की गोष्ठी के बारे में है. इस गोष्ठी की अध्यक्षता प्रो. एन के चतुर्वेदी ने की. खबर में गोष्ठी के बारे में छपा है कि दरअसल ‘यह संगोष्ठी संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों की ओर से फैलाए गए दुर्विचारों की मुक्ति के लिए हवन है.’ अध्यक्षता करते हुए प्रो. चतुर्वेदी ने ‘प्रो. निवेदिता मेनन की ओर से दिए गए राष्ट्र विरोधी भाषण के प्रत्युत्तर में उनकी ओर से दिए गए संवाद को स्पष्ट किया.’ आगे खबर का कुछ हिस्सा ज्यों का त्यों उद्धृत है – ” संगोष्ठी को प्रो. कैलाश डागा, प्रो. चंदनबाला, प्रो. जयश्री वाजपेयी ने भी संबोधित किया. द्वितीय सत्र एबीवीपी के प्रदेशाध्यक्ष हेमंत घोष की अध्यक्षता में आयोजित हुआ जिसमें मुख्य वक्ता के रूप में जोधपुर के प्रांत प्रचारक चंद्रशेखर ने कहा कि राष्ट्रविरोधी तत्त्व हमारी हिंदू सांस्कृतिक विचारधारा से परेशान हैं. डॉ. हरिसिंह राजपुरोहित ने कहा कि राष्ट्रवाद प्रहरियों को मुखर होने की आवश्यकता है. हेमंत घोष ने गौरव गहलोत का उदाहरण देते हुए उनका अभिवादन कर कहा कि उन्होंने समय पर देश विरोधी गतिविधियों के खिलाफ़ कानूनी कार्यवाही करने की पहल की.” अब पाठकों की जानकारी के लिए बता देना चाहिए कि गौरव गहलोत के अभिनन्दन का कारण ये है कि प्रो. राणावत और प्रो. मेनन के खिलाफ इस्तगासा दाखिल करने का श्रेय उन्हीं को है. प्रांत प्रचारक का पद विश्व हिन्दू परिषद् से ताल्लुक रखता है. जांच समिति में शामिल पहले दो नाम इस खबर में मौजूद हैं. तीसरे नगर के महापौर हैं, जो किस पार्टी से हैं, ये जानने के लिए काइनेटिक साइंस का अध्येता होना जरूरी नहीं है – वे भाजपा से ही हैं. बहरहाल, पद पर आने के बाद व्यक्ति दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर उठ जाता है, यह माना जा सकता है पर फिर भी पूछे जाने की जरूरत है कि एक अकादमिक व्याख्यान की जांच के लिए एक प्रशासनिक व्यक्ति कैसे उपयुक्त है.
मैंने प्रारंभ में जो बात की थी, पिछले साल जब उदयपुर में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में डॉ. अशोक वोहरा के व्याख्यान के बाद आयोजक डॉ. सुधा चौधरी और डॉ. वोहरा के खिलाफ आरोपों की जांच के लिए समिति बनायी गयी तब उसमें मानविकी संकाय की अधिष्ठाता को लिया गया था. अब संयोग कहें या पदेन जिम्मेदारी, इन्हीं अधिष्ठाता ने इन दोनों के खिलाफ पुलिस में प्राथमिकी दर्ज कराई थी. तब भी डॉ. वोहरा के व्याख्यान को सन्दर्भ से काटकर उसके एक हिस्से को बहुप्रचारित किया गया था. विडम्बना यह थी कि डॉ. वोहरा का व्याख्यान दरअसल पश्चिमी अध्येताओं की भारतीय अध्यात्म को समझने की दृष्टि का प्रत्याख्यान था और वह हिन्दू धर्म की श्रेष्ठता बोध से ओतप्रोत था. शायद हंगामा कर रहे लोगों को भी बाद में समझ आया हो कि वे एक ‘अपने’ के ही खिलाफ खड़े हो गए हैं. बहरहाल, यह पूर्ववर्ती उदाहरण इस बात की सबसे सटीक चेतावनी है कि सन्दर्भों से काटकर या थोडा सा तोड़ मरोड़कर पूरे वक्तव्य का अनर्थ किया जा सकता है.
मेरा डॉ. मेनन या डॉ. राणावत से कोई परिचय नहीं है और यह लेख उनका पक्ष प्रस्तुत करने के लिए लिखा भी नहीं गया है. मेरे ख्याल से यह इन दोनों से ज्यादा हम सबके लिए चिंता की बात होनी चाहिए. अकादमिकी में असहमति के लिए असहिष्णुता अंततः ज्ञान के विस्तार का अवरोध है और यह किसी का वैयक्तिक नहीं समष्टिगत नुकसान है.
इस विश्वविद्यालय का सबसे सुनहरा दौर वह माना जाता है जब प्रो. वी वी जॉन यहाँ कुलपति थे. उस जमाने में नामवर सिंह, योगेंद्र सिंह, वाई.के. अलघ तथा अज्ञेय जैसे विद्वान यहाँ संकाय में थे. प्रो नामवर सिंह ने प्रो. जॉन के बारे में एक बहुत सुन्दर संस्मरण लिखा है, जो यहाँ उपसंहार के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है. प्रो. जॉन ‘कॉग्रेस फॉर कल्चरल फ्रीडम’ से सम्बद्ध थे यानी राजनीतिक रूप से कम्युनिस्ट विचारधारा के घोर विरोधी थे. शिवमंगल सिंह सुमन जो इंटरव्यू में विशेषज्ञ की हैसियत से आए थे, ने उन्हें चेताया कि नामवर सिंह कम्युनिस्ट हैं. कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़ चुके हैं. तब प्रो. जॉन ने हँसते हुए कहा – ‘है तो हुआ करे, मुझे तो कन्वर्ट नहीं कर देगा. और अगर अच्छा स्कॉलर है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है. मैं ऐसे ही लोगों को लाना चाहता हूँ.’ और तब डॉ. नामवर सिंह जोधपुर आये.
(लेखक राजस्थान में एक महाविद्यालय में शिक्षक हैं. यह लेख काफ़िला में छपा। साभार प्रकाशित।)