कोजाराम मेघवाल को पिछले चार दिनों से यह समझ में नहीं आ रहा है कि जब भी वे किसी के पास काम मांगने जाते हैं तो लोग उन्हें दूर से क्यों भगा देते हैं. वे अगर गांव में खेत मजदूरी के लिए किसानों के पास जाते हैं तो किसान खेतों में पैर रखने से पहले ही डांट लगा कर भगा देते हैं. दिहाड़ी की उम्मीद से वे जब कस्बे में जाते हैं तो कस्बे में घुसने से पहले ही फिरनी पर तैनात पुलिस वाले उन्हें मारने को दौड़ते हैं.
राजस्थान के नागौर जिले के गांव रोहिणी के रहने वाले कोजाराम पेशे से दिहाड़ी मजदूर हैं. फसल की बुआई और कटाई के दौरान वे खेतों में मजदूरी करते हैं और बाकी दिनों में ईंट भट्ठों या चिनाई के काम में रमकर अपनी दिहाड़ी पक्की करते हैं. चैत की हल्की तपन से सुनहरी हो चुकी फसलों की कटाई कर कुछ पैसे कमाने के लिए कोजाराम पिछले साल की तरह अपने गांव से करीब 40 किलोमीटर दूर नोखा तहसील के सिंज गुरु गांव आये थे.
वे बताते हैं, “चार दिन पहले मैं अपने घर से यहां आया था. पिछले साल भी इसी गांव में गेंहू, इस्बगोल जैसी फसलें काटकर कुछ पैसे कमाये थे, लेकिन अब काम नहीं मिल रहा है. किसान दूर से ही हाथ हिलाने लगते हैं और वापस जाने को कहते हैं. कल जब नोखा शहर में दिहाड़ी करने के लिए आया तो शहर में घुसने से पहले ही पुलिसवालों ने वापस भगा दिया. घर से जो रुपये लेकर आया था वो खत्म हो चुके हैं. यहां मेरे जानने वाले एक मजदूर से 600 रुपये उधार लिए हैं ताकि कुछ काम चल सके”.
कोजाराम न तो टीवी देखते हैं और न ही अखबार पढ़ते हैं, इसलिए उन्हें यह सही से नहीं पता है कि किस वजह से देश भर में लॉकडाउन चल रहा है. लगातार चार दिन भटकने के बाद उन्हें बस इतना समझ आया है कि सब कुछ बंद है, मगर वजह कोई नहीं बता रहा. अभी वह घर वापस जाने के लिए भटक रहे हैं.
घर की स्थिति के बारे में पूछने पर वे बताते हैं, “घर में कुछ दिनों का अनाज तो रखा है लेकिन तेल, दाल-सब्जी खत्म हैं. पैसे तो पहले ही खत्म हो चुके. पता नहीं अब क्या होगा”.
वैश्विक स्तर पर फैल चुके COVID-19 की तीव्र प्रसार क्षमता के मद्देनजर मानव आबादी के बीच तेजी से इसके प्रसार को रोकने के लिए ही हमारे देश में भी सरकार ने 24 मार्च की रात 12 बजे से लॉकडाउन का फैसला लिया है, लेकिन राजस्थान सरकार ने 22 मार्च से ही लॉकडाउन का ऐलान कर दिया था. इसका असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों पर व्यापक प्रभाव पड़ा है.
बीकानेर की नोखा तहसील में मजदूरों के साथ काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता चेतनराम गोदारा बताते हैं, “लॉकडाउन के आदेश के साथ सरकार ने अगले 10 दिन के लिए हरेक जरूरतमंद इंसान को निःशुल्क पांच किलो आटा, एक किलो चावल, आधा लीटर तेल, नमक और एक किलो दाल देने की घोषणा की है. सरकार ने सिर्फ आदेश निकाला है, लेकिन इस राशन को लोगों तक पहुंचाएंगे कैसे, इस बारे में तो कोई रोडमैप नहीं बताया है. पिछले तीन-चार दिनों से ही मजदूर खाली बैठे हैं. हो सकता है कि थोड़ा-बहुत आटा उनके घर में हो, लेकिन खाने की बाकी की चीजों की किल्लत लगातार बनी हुई है. इसी तरह, सरकार ने जो एक हजार रुपये नकद की घोषणा की है वो केवल बीपीएल, स्टेट बीपीएल, पंजीकृत निर्माण मजदूर व रेहड़ी लगाने वालों को ही मिलेंगे. इसमें अपंजीकृत मजदूरों, प्रवासी मजदूरों, अन्य जरूरतमंदो और खाद्य सुरक्षा के दायरे में आने वाले कमजोर तबके को शामिल नहीं किया गया है जो कि अन्यायपूर्ण है”.
हमारे देश में शायद ही कोई ऐसा शहर या कस्बा होगा जहां लेबर चौक न हो. शहरी-कस्बाई इलाकों में बने इन लेबर चौकों पर दिहाड़ी मजदूरों की टोलियां हर प्रभात इस उम्मीद के साथ वहां आकर खड़ी हो जाती हैं कि उन्हें किसी ठेकेदार से काम मिल जाएगा. हमारी कृषि मंडियों, गोदामों और शहरी बाजारों में भी ये दिहाड़ी मजदूर भार ढोने का (एक बोरी दर के आधार पर) काम करते हैं. कूड़ा बीनने वाले से लेकर रिक्शा चलाने वाले स्वपोषित व्यक्ति भी दिहाड़ीदारों की तरह ही कमाते हैं. चेतनराम गोदारा कहते हैं कि ये सब ज्यादातर दिहाड़ीदार मजदूर अपंजीकृत ही होते हैं, जिनको अपनी दिहाड़ी के अलावा कभी कुछ नहीं मिलता.
सांवरलाल बीकानेर जिले के हिम्मतसर गांव के मजदूर हैं. इनसे जब मैंने पूछा कि क्या आप पंजीकृत मजदूर हैं, तो उनका सपाट सा जवाब था, “ये पंजीकृत मजदूर क्या होता है इसका तो नहीं मालूम. मैं तो वो मजदूर हूं जिसे कोई सुबह काम पर लगाये तो शाम को पैसे दे दे ताकि घर का दाना-पानी चलता रहे. थोड़ी बहुत जमीन भी है, लेकिन वह बरानी है, सिंचित नहीं”.
कोजाराम की तरह ही सांवरलाल के घर भी खाने का संकट है और उन्हें भी यह नहीं मालूम है कि किस वजह से देशभर में लॉकडाउन चल रहा है.
देश भर में मजदूरों की स्थिति इसलिए निराशाजनक बनी हुई है क्योंकि हमारे देश की वास्तविकताएं कई अग्रिम पूंजीवादी देशों और चीन जैसे साम्यवादी देशों से मेल नहीं खाती हैं.
डेटा विशेषज्ञ और अर्थशास्त्री संभू घटक बताते हैं, “औपचारिक क्षेत्र के मजदूरों समेत अधिकांश भारतीय मजदूरों के पास श्रम अधिकारों का अभाव है. मई 2019 में जारी ‘पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे वार्षिक रिपोर्ट’ (PLFS) में यह बताया गया है कि गैर-कृषि क्षेत्र में नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों में आधे से अधिक (यानी 54.2 प्रतिशत) कर्मचारियों को वैतनिक अवकाश तक नहीं मिलता है और न ही किसी भी तरह का कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ मिलता है. हमारे देश के लगभग 71.1 प्रतिशत नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों के पास नौकरी का कोई लिखित अनुबंध तक नहीं है. अब सोचिए कि हमारे देश में जब नियमित वेतनभोगी कर्मचारियों की स्थिति इतनी निराशाजनक है, तो दिहाड़ीदार मजदूरों और स्वपोषित लोगों का क्या हाल होगा! हमारे देश के करीब 68.4 प्रतिशत मजदूर गैर-कृषि क्षेत्रों के अनौपचारिक दायरे में आते हैं, जो कि एक हिसाब से दिहाड़ीदार ही हैं. सच्चाई यह है कि इन मजदूरों के पास न तो ‘वर्क फ्रॉम होम’ करने जैसी सुविधाएं हैं और न ही इनके घर में खाद्य भंडार”.
यूं अचानक ही मजदूरों के काम पर रोक लगने से उनके हर रोज के खाने-कमाने का संकट खड़ा हो गया है. इस बीच सांवरलाल को खुद से ज्यादा चिंता अपने भाई धुलियाराम की सता रही है जो जनवरी में मारबल का काम करने गुड़गांव गये थे. सार्वजनिक परिवहन बंद होने के कारण धुलियाराम गुड़गांव में ही फंसे हुए हैं. उन्होंने 24 मार्च की रात को अपने घर वापस आने के लिए गुड़गांव से पैदल ही निकलने की कोशिश की, लेकिन हर जगह पुलिस की सख्त नाकाबंदी के कारण वह पैदल भी नहीं आ पा रहे हैं.
प्रवासी मजदूरों के मुद्दों पर काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता अमृता शर्मा बताती हैं, “हमारी संस्था आजीविका ब्यूरो के मजदूर हेल्पलाइन नंबर पर पिछले चार दिनों से लगातार प्रवासी मजदूरों के फोन आ रहे हैं. वे लगातार खाने की किल्लत की बात कर रहे हैं और घर वापस लौटने की. उनकी समस्याओं को लेकर ही हम उनकी मदद करने की हरसंभव कोशिश कर रहे हैं और कल से ही ट्विटर पर उनके लिए अभियान चला रहे हैं. हम सरकार से लगातार मांग कर रहे हैं कि पीडीएस के तहत आने वाली राशन दुकानों को सभी के लिए खोल दिया जाए और बिना कागज दिखाए हर जरूरतमंद प्रवासी मजदूर को राशन दिया जाए. सबसे जरूरी तो यह है कि प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचने की सही व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए. इन दोनों मांगों के लिए हम लगातार केन्द्र और राज्य सरकारों से संघर्ष कर रहे हैं.”
सार्वजनिक परिवहन बन्द होने के कारण प्रवासी मजदूर सैकड़ों किलोमीटर पैदल चल अपने घरों तक वापस लौट रहे हैं. अमृता कहती हैं, “सरकार ने विदेशों में बैठे भारतीय प्रवासियों को भारत वापस लेकर आने में जो प्रतिबद्धता दिखायी थी, क्या उतनी ही प्रतिबद्धता इन देसी प्रवासी मजदूरों को घर भेजने के लिए नहीं दिखायी जानी चाहिए?”