सोच-समझ कर क़ानून बनाएं सरकार, तो अदालत का दख़ल नहीं होगा – सीजेआई रमना

मयंक सक्सेना मयंक सक्सेना
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सरकारें कई बार क़ानून बनाते समय, गहन विचार-विमर्श नहीं करती हैं, व्यापक चर्चा और ज़रूरी बहस नहीं होती है और फिर वे मामले अदालत के पास आते हैं और अदालतों को उनमें दखल देना पड़ता है, जिससे अदालतों पर बोझ बढ़ जाता है। ये बात, भारत के सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस एनवी रमना ने दिल्ली में देश भर के मुख्य न्यायधीशों और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में कही। जस्टिस रमना ने अपना संबोधन जब दिया, तो सभागार में देश के कई राज्यों के सीएम और मंच पर प्रधानमंत्री मोदी और क़ानून मंत्री किरिन रिजिजू भी मौजूद थे।

दिल्ली के विज्ञान भवन में हो रहे, 11वें मुख्यमंत्री और मुख्य न्यायधीशों की कॉन्फ्रेंस में देश के चीफ़ जस्टिस ने सिर्फ ये ही नहीं कहा, बल्कि कई और बातों को बिना लाग-लपेट सामने रखा। पढ़ते हैं, सीजेआई रमना के इस भाषण की मुख्य बातें;

क़ानून बनाएं तो सबके बारे में सोचें

जस्टिस रमना ने कहा, “मैं इस बारे में लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला के कुछ दिनों पहले दिए गए, बयान को दोहराना चाहता हूं। कोई भी नया क़ानून, व्यापक बहस और चर्चा के बाद ही बनाया जाना चाहिए। जो भी लोग, इन क़ानूनों से संबंधित हैं, उनकी आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को ध्यान में रखकर ही फ़ैसले लिए जाने चाहिए। ऐसा नहीं होता है, तो ये मामले अदालत के पास आते हैं। हमको इनमें दख़ल देना ही होता है और फिर अदालतों पर बोझ बढ़ जाता है।”

हालांकि जस्टिस रमना ने विधायिका यानी सरकारों, संसद और विधानसभाओं को लेकर, बस इतनी ही टिप्पणी नहीं की। उन्होंने सरकारों यानी कि विधायिका पर और चीज़ों को लेकर भी टिप्पणी की। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि कई बार, सरकारें अदालत के फैसलों को सालों-साल टालती हैं और लागू नहीं करती।

अदालत की अवमानना लगातार एक समस्या

सीजेआई रमना ने सरकारों के, अदालतों के फैसलों को टालते जाने को लेकर साफ़ कहा, “होता ये है कि कई बार अदालतों के फ़ैसले सरकारों की ओर से सालों-साल तक लागू नहीं किए जाते हैं।” उनका कहना था कि न्यायिक फ़ैसलों के घोषित हो जाने के बावजूद जानबूझकर सरकार की ओर से निष्क्रियता दिखाई देती है। ये देश के लिए अच्छा नहीं है। नीतियां बनाना अदालत का अधिकार क्षेत्र नहीं है, लेकिन अगर नागरिक, इन नीतियों को लेकर, अपनी शिकायत अदालतों के पास लाएगा, तो अदालत मुंह नहीं मोड़ कर सकती।

इसके साथ ही जस्टिस रमना ने ये भी कहा कि बड़ी अदालतों के पास सर्वाधिक मामले ऐसे हैं, जिनमें एक पक्ष सरकार या कार्यपालिका है।

50 फ़ीसदी के लगभग मामलों में सरकार-कार्यपालिका एक पक्ष

जस्टिस रमना ने देश में सरकारों और कार्यपालिका के अलग-अलग अंगों के काम करने के ढंग पर सवाल उठाते हुए कहा कि देश में 50 फीसदी के आसपास ऐसे मामले आते हैं, जहां पर या तो कार्यपालिका का कोई अंग, केस में एक पक्ष है या फिर विधायिका का। ऐसे में सवाल ये उठता है कि ये क्यों हो रहा है? अगर सभी अपना काम ठीक ढंग से करेंगे, तो ये स्थिति आनी ही नहीं चाहिए। अगर ये हो पाएगा तो अदालत पर बोझ अपने आप कम हो जाएगा।

लक्ष्मण रेखा का ध्यान रहे पर कैसे?

जस्टिस रमना ने कहा कि संविधान न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका तीनों के ही कार्य और अधिकार क्षेत्र का स्पष्ट बंटवारा करता है लेकिन फिर भी लगातार ऐसा होता है कि इनके बीच की लक्ष्मणरेखा लांघी जाती है। उन्होंने स्वतंत्र भारत के पहले सीजेआई सर हरिलाल जेकिसुनदास कानिया की कही बात याद दिलाते हुए कहा कि अगर गवर्नेंस का कामकाज कानून के मुताबिक़ हो तो न्यायपालिका कभी उसके रास्ते में नहीं आएगी. अगर नगरपालिका, ग्राम पंचायत अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन करें, पुलिस उचित तरीके से केस की जांच करे और ग़ैर-क़ानूनी कस्टोडियल प्रताड़ना या मौतें ना हों तो लोगों को कोर्ट आने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी.

इसके अलावा सीजेआई ने पीआईएल को लेकर भी गंभीर टिप्पणी की है। उन्होंने कहा कि हालांकि जनहित याचिकाएं, जनता को न्याय दिलाने के लिए अहम हैं। लेकिन कई मामलों में ये सिर्फ संस्थानों को परेशान करने या फिर कारपोरेट की आपसी प्रतिस्पर्धा के लिए इस्तेमाल की जाने लगी हैं। इससे भी अदालत पर बोझ बढ़ा है हालांकि अब ज़्यादातर न्यायाधीश जानते हैं कि इन्हें कैसे देखना है।


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