(पिछले 20 वर्षों में राजस्थान में स्वास्थ्य व्यवस्था को कैसे संगठित रूप से बर्बाद किया गया है। इस ग्राउंड रिपोर्ट में उस व्यवस्था के वर्तमान प्रक्टिकल रूप को सामने लाने का प्रयास किया है): पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट का पहला भाग …
सुबह के 9 बजे थे। मैं रजिस्ट्रेशन काउंटर से 10 रुपये की ओपीडी की पर्ची कटवाकर चरक भवन पहुंचा। मेरा पिछले 10 दिनों से इस चरक भवन से अच्छा खासा परिचय हो चुका था। मैं चर्म रोग विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ दीपक माथुर के चेंबर के बाहर खड़ा था किंतु आज मैं लाइन से बाहर था। आज मेरी दिलचस्पी इस बात में ज्यादा थी कि आज भी डॉ दीपक माथुर आयेंगे या नहीं?
सिक्योरिटी गार्ड बाहर के कंपाउंड से करीब 70- 80 लोगों को अंदर वाले कंपाउंड में भेज रहा था। यहां मौजूद गार्ड उनकी लंबी लाइन लगवा रहा था। डॉक्टर दीपक माथुर के चेंबर के बाहर भी 70/80 के करीब मरीज की लाइन लग चुकी थी। सुबह करीब 9:30 बजे जूनियर रेजिडेंट डॉक्टरों की चहल कदमी शुरू हुई। एक जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर के हाथ में टॉर्च थी। जबकि केबिन के अंदर एक जूनियर और एक सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर कुर्सी पर विराजमान थी। जूनियर रेजिडेंट पर्चे लाने- ले जाने का काम कर रही थी। अभी 10 मिनट ही नहीं गुजरा था कि जूनियर रेजिडेंट ने 40 के गरीब मरीजों को देख डाला। अगले 10 मिनट में तो जैसे पूरी खेप को देख लिया गया।
इतने ही लोगों की अगली खेप अपनी बारी का इंतजार कर रही थी, वो बाहर वाले कंपाउंड पर खड़े थे। सिक्योरिटी गार्ड की नजर जैसे ही पड़ी उन्होंने तुरंत मरीजों की अगली खेप को डॉक्टर माथुर के चेंबर के बाहर भेज दिया। इस खेप में भी करीब 70/80 मरीज थे और देखते ही देखते अभी 10.30 भी नहीं बजे थे कि जूनियर रेजिडेंट ने अपनी पूरी ताकत से इस खेप को भी देख डाला।
मुझे इस भीड़ को देखकर वैसी ही दिव्य अनुभूति हो रही थी जैसे खाटू श्याम के मेले में खाटू श्याम जी के दर्शन होने पर होती है। जूनियर रेजिडेंट का काम करने का तरीका बड़ा ही अनूठा और रोचक था। वे बिना देरी किए टॉर्च की रोशनी मार- मार कर किसी मरीज को 4 सेकंड 5 सेकंड 6 सेकंड में देख रही थी, शायद ही कोई मरीज ऐसा आया हो जिसके डायग्नोसिस पर 10 सेकंड से ज्यादा समय लगाया हो।
जूनियर रेजिडेंट के बाद तो जैसे चमत्कारी बाबा की करामात ही हाथ लग गई हो। अभी 11 भी नहीं बजे कि तकरीबन 200 से ज्यादा मरीजों को देखा जा चुका था। अंदर टेबल पर दूसरी जूनियर/सीनियर रेजिडेंट मौजूद है। बाहर वाली डॉक्टर टॉर्च मारकर जोर से बीमारी बता देती है। अंदर वाली तुरंत दवा लिख देती है। जैसे ही 8/10 मरीजों के पर्चे लिखे जाते हैं। अंदर वाली रेजिडेंट डॉक्टर वो पर्चे बाहर लाकर दे देती है। और अन्य प्रक्रिया वैसे ही जारी रहती है।
मैं इस विशुद्ध स्थिति का आंखों देखा गवाह बना था। मैं सोच रहा था कि पूरे हिंदुस्तान के डॉक्टरों के पास यह करामात क्यों नहीं है? इतनी बड़ी ताकत अभी तक छुपी हुई है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया को यहां आकर के इस काबिलियत को पहचानना चाहिए। इस 4 सेकंड 5 सेकंड और 8 सेकंड के जादुई आंकड़े को अपनी आंखों से निहारना चाहिए। क्या पता जीवन में उनको कभी यह दिव्य अनुभूति हो या ना हो।
मैं ये बात दावे के साथ कह सकता हूँ कि यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन को ये बता दिया जाये कि राजस्थान, जयपुर स्थित सवाई मानसिंह सुपर स्पेशलिटी अस्पताल और मेडिकल कॉलेज के चर्म रोग विभाग, जो कि स्पेशलिटी सेन्टर हैं, वहां 10 सेकंड में डायग्नोसिस बन जाती है तो विश्व स्वास्थ्य संगठन के अगली कई पुश्तों तक का अध्यक्ष इन्ही जूनियर रेजिडेंट में से कोई एक होगा। क्योंकि जब स्पेशलिटी सेन्टर में डायग्नोसिस बनाने में 1 मिनट नहीं लगता तो फिर सामान्य विभाग/ सेन्टर तो मुश्किल से 1 सेकंड में मरीज देख लेते होंगे।
तय प्रक्रिया
पूरी दुनिया के चिकित्सा जगत में तय पैमाने और स्टैंडर्ड प्रोसीजर हैं। मरीज के डायग्नोसिस से लेकर उसके ट्रेटमेंट और पोस्ट क्योर की स्थिति तक। हमारे यहां दिक्कत इस बात को लेकर है कि यहां स्वास्थ्य और कानून जैसे विषयों पर बात करने का एकमात्र अधिकार डॉक्टर्स और वकील को माना जाता है। जिनके पास लंबी चौड़ी डिग्री हो और दो- चार कानूनों की समझ हो।
चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े किसी मामले में जब कोई मरीज अस्पताल जाता है तो उसकी सबसे पहली कड़ी डायग्नोसिस से शुरु होती है, जो सबसे महत्वपूर्ण पक्ष होता है। यदि डायग्नोसिस सही बनी तो ईलाज भी सही होगा, क्योंकि ईलाज करने के हमारे स्टैंडर्ड मेथड्स और प्रक्रिया हैं। सबसे पहले मरीज की केस हिस्ट्री बनाई जाती है। दिल्ली एम्स अस्पताल में ये काम सभी विभागों के जूनियर/सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर करते हैं। जब आप किसी विभाग में किसी डॉक्टर को दिखाने जाएंगे तो, डॉक्टर के आने से पहले वहां मौजूद रेसिडेंट डॉक्टर आपसे बात करेंगे, आपकी मेडिकल हिस्ट्री लिखेंगे व उन्होंने क्या सोचा, क्या अध्ययन किया इसको लिखेंगे। उसके बाद जब सीनियर डॉक्टर आ जाएंगे तो आपको/मरीज को दोबारा बुलाया जाएगा और उस केस को डॉक्टर को बताया जायेगा। वे उसको देखकर अपनी टिप्पणी देंगे कि उनका डायग्नोसिस कितना सही है।
ये जो रिकॉर्ड तैयार हुआ है। ये रिकॉर्ड रेजिडेंट डॉक्टर्स की पढ़ाई है। यही उनकी प्रैक्टिस है। यही वो तरीका है जो डॉक्टर्स की थ्योरी की पढ़ाई को उनके क्लीनिकल प्रक्टिकल अनुभव से जोडती है। यही केस अध्ययन बनते हैं, जिनको विभाग के प्रोफेसर अपने व्याख्यानों में, विभिन्न क्लास लेक्चर में जूनियर डॉक्टर्स और अपने स्टूडेंट्स को बताते हैं। यही तथ्यात्मक रूप से सही सामाग्री आगे शोध का आधार बनती है।
यही वो कड़ी है जो डॉक्टर और मरीज के सम्बन्धों को बनाती है। हम लोग डॉक्टर और मरीज को एक दूसरे से बहुत दूर रखते हैं जबकि स्वास्थ्य क्षेत्र में ये बात तथ्यों व शोधों से प्रमाणित हो चुकी है कि यदि डॉक्टर और मरीज का मानसिक रिश्ता सही है तो मरीज के ठीक होने की दर कई गुना बढ़ जाती है। हम जितनी भी रक्त के जांच की रिपोर्ट देखते हैं, रेडियोलोजी विभाग की जांच करवाते हैं या फिर एक्सरे या कोई अन्य जांच करवाते हैं तो उस पर अंत में एक लाइन लिखी होती है कि उपयुक्त जांच को क्लीनिकल्ली करेक्ट करें/ देखें। मतलब जांच की रिपोर्ट को भी मरीज की स्थिति से जोड़कर देखते हैं, वो अकेले अपने आप मे कुछ भी नही हैं।
लेकिन क्या चर्म रोग विभाग में ऐसा कुछ हुआ? क्या स्टैंडर्ड प्रोसीजर और मेथड्स केवल कागजों की शोभा बढ़ाने के लिए हैं? क्या सरकारी अस्पताल में आने वाले लोगों के जीवन की कोई कीमत नही हैं? सबसे बड़ी बात इसकी कीमत कौन चुकायेगा? जब पढ़ाई होगी नहीं, शोध में जीरो रहेंगे तो फिर हम हर छोटे बड़े टीके और दवा की खोज के लिए विदेशों की तरफ ही मुँह फाड़ेंगे।
मैंने करीब 11 बजे वहां मौजूद जूनियर रेजिडेंट से पूछा कि डॉक्टर दीपक माथुर कब आयेंगे? क्योंकि सुबह 9 बजे ही मैंने, हॉस्पिटल में दाखिल होते ही उनको व्हाट्सअप किया था। चूंकि जूनियर रेजिडेंट को पता था कि मैं मीडिया से संबंधित हूँ। उनका कहना था कि ‘देखिए वह विभाग के अध्यक्ष हैं और हम जूनियर रेजिडेंट अगर हमें यहां पढ़ाई करनी है तो हमें उन्हीं सब बातों पर चलना होगा जो वह चाहते हैं। अन्यथा ना तो हम पढ़ाई कर पाएंगे ना हम विभाग में रह पाएंगे। हम सवाल पूछने के लिए नहीं बने, हम केवल आज्ञा सुनने के लिए बने हैं। हमें सुबह 11:30 बजे के बाद दूसरे काम निपटाने होते हैं इसलिए हम 2 घंटे में मरीजों को देख लेते हैं। वैसे तो उसके बाद भी 2 बजे तक मरीजों को देखते हैं किंतु तब तक कम मरीज आते हैं।
मैंने लंच समय तक उनका इंतजार किया उसके बाद मैंने करीब 1.30 बजे डॉक्टर दीपक माथुर को मोबाइल पर फोन किया। उनसे पूछा कि वह विभाग में किस समय आएंगे? मैं उनके विभाग में पिछले 3 दिन से आ रहा हूं। मैंने उनसे पूछा जब वे विभाग में आ ही नहीं रहे तो अपनी ओपीडी को रनिंग में क्यों दिखा रहे हैं? उन्होंने मुझे कहा कि कोरोना महामारी चल रही है तो मैं ज्यादातर पेशेंट घर पर ही देखना पसंद कर रहा हूं। उन्होंने मुझे लैंड लाइन नम्बर दिया और कहा कि आप अपना अपॉइंटमेंट ले लीजिए। मैंने उन लैंड लाइन नम्बर पर बात करके, तय समयानुसार शाम 5 बजे बापू नगर, जयपुर स्थित उनके घर पहुंच गया।
वहां पर मेरे जैसे 25/30 मरीज पहले से मौजूद थे। अपनी बारी आने पर मैंने डॉक्टर माथुर को दिखाया तो उन्होंने कुछ मुझे दवा लिखी और 300 रुपया फीस भी चार्ज की। ये सब तब हो रहा था जब उनको पता है कि मैं मीडिया से सम्बंधित हूँ। मैंने उनसे पूछा कि जब आप विभाग के मौजूद नहीं है तो आप ओपीडी क्यों दिखा रहे हैं? पूरे विभाग का दायित्व अपने जूनियर रेजिडेंट पर डाला हुआ है, उनको भी अभी ठीक से प्रैक्टिस का नहीं पता। वहां हर दिन कई सैंकड़ो लोग आते हैं मतलब आप उन लोगों के जीवन के ऊपर एक्सपेरिमेंट करवा रहे है? क्या यही मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की गाइडलाइंस हैं, क्या यही मेडिकल एथिक्स है, क्या यही आपका स्टैंडर्ड प्रोसीजर है?
चर्म विभाग में मौजूद एक ड्यूटी डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर मुझे बताया कि डॉक्टर दीपक माथुर पिछले 2 महीने छोड़िए मार्च के महीने से नहीं बैठे हैं। वह आते भी हैं तो 5 मिनट 10 मिनट या कभी कबार आधे घंटे के लिए। वह तब आते हैं जब उनको दो चार लोगों को देखना होता है या विभाग के उनके कोई काम निपटाने होते हैं। देखिए हमारी मेडिकल एजुकेशन में जो हम क्लिनिकली करेक्ट करते हैं। जो चीजें हम थ्योरी में पढ़ते हैं, उनको यहां प्रैक्टिस में करेक्ट करते हैं। हमने वहां क्या पढ़ा था और प्रैक्टिकल में हम क्या देख रहे हैं यह हम इसी प्रैक्टिस के दौरान सीखते हैं। हम केवल पेशेंट नहीं देख रहे हैं बल्कि हम तो अलग अलग केस अध्यन्न करते हैं लेकिन यहां तो कुछ हो ही नहीं रहा।”
वे आगे हमे बताती हैं कि “हम कुछ बोल नहीं सकते अगर बोलेंगे तो ना हमारी थ्योरी होगी और प्रैक्टिकल तो गया ही। हमारा पूरा जीवन इसी भरोसे है और सबसे बडी बात है कि जो लाखों लोगों का जीवन है वह भी इसी भरोसे पर टिका हुआ है। ऐसा नहीं है कि केवल डॉ दीपक माथुर ही ऐसा कर रहे हैं। आप पूरे चर्म रोग विभाग में देख लो सारे प्रोफेसर की यही हालत है। सब के सब पैसा बनाने में लगे हैं। उनको टीचिंग, एक्सपर्टीज, डिपार्टमेंट से कोई वास्ता ही नहीं है। आप चिकित्सा के क्षेत्र में शोध की बात कर रहे हैं, हमारे यहां तो सामान्य क्लास ही नहीं हो रही है। पढ़ाई नहीं हो रही है, शोध की बात तो बहुत आगे की है। हमारा पूरा जीवन ही इन लोगों के ऊपर टिका हुआ है और एक नहीं 15 के 15 लोगों की वही हालत है।”
बात केवल चर्म रोग विभाग और न ही उन चंद डॉक्टर तक सीमित है बल्कि अस्पताल में इस अव्यवस्था और बेहूदगी को ही वहां की कार्य संस्कृति बना दिया गया है। अस्पताल के सभी विभागों की यही हालत है। मेरे द्वारा पिछले 1 महीने में 8 विभागों के 15 सीनियर प्रोफेसर की ओपीडी का अध्ययन किया गया है। आपातकालीन विभाग व आईपीडी की स्थिति को अपने आंखों से देखा है। पिछले महीने अक्टूबर के दूसरे सप्ताह में मैं नाक, कान और गला विभाग के जाने माने चिकित्सक डॉक्टर सुनील सिंह जो कि कान के जाने-माने वरिष्ठ चिकित्सक व प्रोफेसर है, से पिछले एक सप्ताह से मिलने की कोशिश में लगा था। मैं अपने पिताजी के कान के सम्बंध में उनसे कुछ कंसल्ट करना चाहता था। किन्तु पिछले एक सप्ताह से मुझे इस मामले में कोई सफलता हासिल नही हुई।
एक सप्ताह के प्रयास के बाद मुझे उनका मोबाइल नंबर प्राप्त हुआ। मैंने वहां उनके जूनियर व सीनियर रेजिडेंट से बात की, कि मुझे अपने पिताजी को डॉक्टर सुनील सिंह को दिखाना है। उनके कान में पिछले कुछ समय से प्रॉब्लम है, क्योंकि उनकी उम्र 60 से ऊपर हो चुकी है इसलिए मुझे उनसे कंसल्ट करना है। मैंने यहां से ओपीडी स्लिप तो बनवा ली है किंतु वे तो मिलते ही नहीं हैं। इस विभाग की भी वही हालत है।
मैंने 13 अक्टूबर को उनके नंबर पर व्हाट्सएप मैसेज भेजा। 14 अक्टूबर को सुबह उनका मैसेज प्राप्त हुआ कृपया आप मुझे फोन करें। मैंने 14 अक्टूबर को सुबह उनको फोन किया तो उन्होंने कहा मैं कोरोना के समय घर पर ही मरीज देखता हूँ, विभाग में कम जाता हूँ। मुझे ये सुनकर अच्छा लगा कि डॉक्टर लोगों के लिए कितना सोच रहे हैं। उन्होंने मुझे कहा कि क्या आज आप शाम में 5 बजे आ सकते हैं? मैंने उनसे आग्रह किया कि आज तो नहीं आ पाउंगा, आप कल का समय दे दीजिए। उन्होंने कहा कि कल शाम (15 अक्टूबर) मेरे सरकारी आवास पर आ जाइये। उन्होंने पूछा कि क्या आपने मेरा रेजिडेंस देखा है तो मैंने कहा कि नहीं। उन्होंने कहा कि चरक भवन में जो आवासीय रेजिडेंस बने हुए पीछे की तरफ वहीं पर ही आ जाइए।
मैं अगले दिन 15 अक्टूबर की शाम 5 बजे अपने पिताजी के साथ उनके रेजिडेंस पर पहुंचा। उन्होंने उनको देखा और 300 रूपये चार्ज लिया। मैंने उनसे कहा कि आप ओपीडी में नहीं बैठ रहे ठीक है किंतु आप फिर उसे रनिंग में कैसे दिखाते हैं और वहां जो मरीज आना चाहते हैं आप उन्हें घर बुलाकर उनसे फीस वसूलते हैँ। मैं इन दोनों ही केस में अपने आप को ठगा महसूस कर रहा था। मैं यह सोच रहा था कि जब मेरे साथ यह स्थिति है। मैं मीडिया से जुड़ा हूं तो कम से कम इन प्रोफ़ेसर को बिना डरे सवाल पूछ सकता हूं। उनको फ़ोन कर सकता हूँ। आखिर ऐसे कितने लोग होंगे जिनके पास उनका फोन नंबर होगा? कितने लोग होंगे जो फोन करके उनसे यह सवाल पूछ पाएंगे कि आप ओपीडी में क्यों नहीं आ रहे हैं? कितने लोग होंगे जो उनसे यह सवाल कर पाएंगे कि जब आप ओपीडी में आते ही नहीं तो ओपीडी को रनिंग में क्यों दिखाया हुआ है। जब मुझे घर पर बुला कर फीस ली जा रही है तो उस आम व्यक्ति की क्या स्थिति होगी जो 300 किलोमीटर 400 किलोमीटर से बसों के धक्के खाते हुए आते हैं।
महज क्लीनिक नहीं
सवाई मानसिंह अस्पताल एवं मेडिकल कॉलेज की स्थापना 1934 ई में हुई थी। ये राजस्थान का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल हैं जिसमें 6 हज़ार बेड की क्षमता हैं। यहां 40 विभाग कार्यरत हैं जिनमें 5 स्पेशलिटी सेन्टर हैं। इसमें 43 वार्ड हैं। यहां 255 डॉक्टर व 660 नर्सिंग स्टाफ कार्यरत है। ये राज्य का सुपर स्पेशलिटी व चिकित्सा का एक्ससलेंस सेन्टर हैं। इससे ज्यादा बड़ी बात स्वाभिमान सिंह अस्पताल शायद हिंदुस्तान का एकमात्र मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल हैं जहां के अस्सिटेंड मेडिकल सुपरिटेंडेंट ओर डिप्टी सुपरिटेंडेंट भी बाहर प्रैक्टिस करते हैं।
हम भूल जाते हैं कि ये महज क्लीनिक नहीं है कि मरीज आया, उससे फ़ीस ली और दवा देकर रवाना कर दिया। ये चिकित्सा शिक्षा का हायर सेन्टर है, गुणवत्ता का एक्सीलेंस सेंटर हैं, यहां के बाद चिकित्सा क्षेत्र में कहां जाएंगे? जैसे हमारी न्याय व्यवस्था में सुप्रीम कोर्ट है, वैसे ही शिक्षा के मामले में मेडिकल कॉलेज है। इन दोनों के बाद आप सम्बंधित विभाग में कहीं नहीं जा सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट के जो निर्णय हैं वह सब हाईकोर्ट और अधीनस्थ न्यायपालिकाओं पर लागू होते हैं। यही स्थिति मेडिकल कॉलेज की होती है। यहां होने वाले शोध को ज़िले के तमाम डॉक्टर फॉलो करते हैं। जब यहां विभाग की ऐसी स्थिति होगी, तो इनसे जो नीचे वाले सेंटर, जिला अस्पताल, पीएचसी या सीएचसी है वहां डॉक्टर क्या सीखेंगे? वहां क्या प्रोसीजर फॉलो किया जाएगा?
अश्वनी कबीर
स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं और घुमन्तू समुदायों के लिए काम करने वाली संस्था नई दिशाएँ के संयोजक हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ हैडलबर्ग में घुमंतू समुदायों पर रामचन्द्र गुहा और शेखऱ पाठक के शोध छात्र हैं। न्यायायिक सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘कंपेनिंग फ़ॉर ज्यूडिशियल अकॉउंटेबिलिटी एंड ज्यूडिशियल रिफार्म की राजस्थान शाखा के अध्यक्ष हैं। मीडिया विजिल में रेगुलर रिपोर्ट लिखते हैं।