(पिछले 20 वर्षों में राजस्थान में स्वास्थ्य व्यवस्था को कैसे संगठित रूप से बर्बाद किया गया है। इस ग्राउंड रिपोर्ट में उस व्यवस्था के वर्तमान रूप को सामने लाने का प्रयास किया है): पढ़िए ग्राउंड रिपोर्ट का दूसरा भाग…
किसी संस्थान या व्यवस्था की कार्यप्रणाली को अगर जानना हो तो संस्थान या व्यवस्था की सबसे ऊंची कड़ी या फिर सबसे अंतिम कड़ी की स्थिति को देख लें तो उसकी हकीकत हमारे सामने आ जाती है। व्यवस्था को लेकर बढ़ा चढ़ाकर दावे किए जाते हैं, झूठ का एक पूरा किला खड़ा किया जाता है। ऐसा ही झूँठ का किला स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर बनाया गया है। राजस्थान के सवाई मानसिंह अस्पताल एवं रिसर्च सेंटर को ही लें, जो स्वास्थ्य एवं चिकित्सा क्षेत्र का एक्सीलेंस सेंटर है। यह राज्य की चिकित्सीय पढ़ाई का उच्च शिक्षण संस्थान हैं। यह उम्मीद की किरण है उन लाखों लोगों के जीवन का, जो समझते हैं कि यदि यहां पहुंच गए तो हमें दवा- दारू मिल पाएगी जो हमारे जीवन को बचा सके। लेकिन यहां जो चिकित्सा सुविधा उपलब्ध होनी चाहिए, उसे पूरा करने में यह केंद्र पूरी तरह से नाकाम हो रहा है।
किसी भी राज्य का ये पहला दायित्व है कि वो अपने सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाओं तक समान पहुंच उपलब्ध करवाये, उनको गुणवत्ता युक्त स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करवाये। यही हमारे संविधान की मूल आत्मा है। सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात को कई दफा रेखांकित भी किया है। राजस्थान में 3 वर्ष पहले भी स्वास्थ्य सेवाओं की यही हालत थी। आज भी वही है, और आगे की कोई संभावना भी दिखाई नहीं पड़ती।
स्वास्थ्य व्यवस्था की पूरी पोल यहां का आपातकालीन विभाग खोल देता है। आपातकालीन स्थिति 24 घंटे जारी रहती है, मुझे उसकी स्थिति पर यहां के एक जूनियर रेजिडेंट ने अवगत करवाया तो मेरे लिए विश्वास करना नामुमकिन था। मैं स्वयं उसको देखना चाहता था।
मैं सुबह करीब 11 बजे आपातकालीन विभाग पहुंचा। क्योंकि मेरे पास मीडिया का टैग था तो सिक्योरिटी गार्ड ने मुझे रोकने की जहमत नहीं उठाई। इमरजेंसी वार्ड की स्थिति बहुत भयानक थी। वहां की स्थिति देखने के लिए आपके पास दोहरा कलेजा होना चाहिये। चारों तरफ खून, मौत और जिंदगी के बीच झूलते लोग, रोते बिलखते परिजन और कागजी कार्यवाही में लगे तीमारदार तथा मौत को रोकने में लगे जूनियर व सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर। ऐसी स्थिति में जब सीनियर प्रोफेसर/डॉक्टर लेवल का व्यक्ति प्लास्टर करने का 30/40 रुपये से लेकर 200 रुपये तक बटोर रहा हो, सिटी स्कैन के लिए वार्ड बॉय स्ट्रेचर चलाने का 10 रुपया मांग रहा हो। प्लास्टर करने, ऑपरेशन करने के लिए बाहर से दवा, इंजेक्शन व अन्य जरूरी उपकरण लाने का दबाव बनाया जा रहा हो, वो भी तब जब सभी सामान अस्पताल में बल्क मात्रा में उपलब्ध हों।
एक जवान लड़का (मुरारी) जिसकी उम्र करीब 35 वर्ष होगी। एक्सकेडेन्ट हुआ था। उसको जब आपातकालीन विभाग में लाया गया तो वह लगभग अचेत अवस्था में था, किंतु बीच बीच में कुछ बड़बड़ा रहा था। उसके पैर का घुटना लगभग समाप्त हो चुका था। दाएं कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी। उस लड़के के बूढ़े पिता बिलख रहे थे। उनके कपड़े देखकर ये आसानी से हिसाब लगाया जा सकता था कि वो बहुत गरीब हैं। उस बूढ़े व्यक्ति ने बताया कि ये मोटरसाइकिल पर आ रहा था तो ट्रक ने टक्कर मार दी। उसके परिवार में 5 सदस्य हैं। यही एक कमाने वाला था। कम्पनी में नौकरी करता था किंतु लोकडॉउन में काम छूट गया था। अभी नये काम की तलाश में इधर उधर जाता था।
उस बूढ़े व्यक्ति को मैंने 100 रुपये दिए कि आप चाय पानी पी लीजियेगा। वहां ऑर्थो के एक सीनियर प्रोफेसर मौजूद थे। उन्होंने कहा कि हम पैर का प्लास्टर करते हैं। कूल्हे की हड्डी को वैसे ही खींच कर चढ़ाने की कोशिश की जा रही थी किन्तु वो टूट चुकी थी। प्रोफेसर ने सीधा उस बूढ़े से पूछा कितना पैसा है। उसने कहा कि ये 40 रुपये है। उस डॉक्टर ने उससे वो 40 रुपया भी ले लिया। जब मुझे पता चला कि उनके साथ ऐसा हुआ तो मैं तुरंत आपातकालीन विभाग के अंदर पहुचा किन्तु उस लड़के को सिटी स्कैन के लिए ले जाया गया था। मेरी इस सारी छटपटाहट को एक जूनियर रेजिडेंट दूर से देख रहा था। मैं कुछ समय से उस विषय को कवर कर रहा था तो उसने सहज तरीके से मुझसे पूछा। मैंने उनको बताया कि मैं इस विषय को मीडिया के जरिये लोगों के समक्ष लाना चाहता हूं, लेकिन मैं इस सारे खेल को समझ नहीं पा रहा।
उस जूनियर रेजिडेंट ने कहा कि मैं ड्यूटी के बाद आपसे मिलूंगा। उसने मुझे बताया कि हम हर रोज ये खेल देखते हैं। ये (गाली…) प्रोफेसर 30 रुपये से लेकर 200 रुपये तक जो मिल जाये। हर मरीज के परिवार वालों से पैसा वसूलता है और ये सब धड़ल्ले से चलता है। सीनियर डॉक्टर ऑपरेशन के जरूरी अलाइनमेंट मंगवाते हैं, इंजेक्शन व अन्य दवाएं मंगवाते हैं, उनमें अधिकांश यहां फ्री में उपलब्ध हैं किंतु जानबूझकर ऐसा किया जाता है। फिर उसको बाहर बेच देते हैं। अब मरीज के परिजनों को क्या पता क्या लगेगा? जांच के नाम पर अलग खेल चलता है। वार्ड बॉय जब ये सब देखता है तो वो स्ट्रेचर खींचने का 10 रुपये मांगता है। नर्सिंग स्टाफ बेड उपब्ध करवाने का रेट फिक्स करता है।”
रेजिडेंट डॉक्टर आगे बताते हैं कि “मैं पिछले एक वर्ष से ये खेल देख रहा हूँ। मेरे सीनियर बताते हैं कि यदि तुम्हें अपना इंटरशिप पूरा करना है तो इसकी आदत डाल लो। ये काम तो हमारे समय से चल रहा है और ऐसे ही चलता रहेगा। किसको कहोगे मंत्री से लेकर मेडिकल सुपरिटेंडेंट और विभागाध्यक्ष सबका हिस्सा फिक्स है।
जब विभाग के प्रोफेसर की ये हालात है तो फिर हम नर्सिंग स्टाफ से कैसे उम्मीद करेंगे कि वो अपना काम करेंगे, वार्ड बॉय अपनी ड्यूटी करेंगे। हालात ये हो गई है कि आप जितना भी काम देखते हैं वो सब जूनियर रेजिडेंट डॉक्टर या फिर सीनियर रेजिडेंट के भरोसे चल रहा है। हमारी हालात तो नर्सिंग स्टाफ से भी बुरी है, हम किसी को बोल नहीं सकते। हम अपनी इंटरशिप में हैं या फिर कॉन्ट्रैक्ट पर रेसिडेंटशिप कर रहे हैं। जबकि नर्सिंग परमानेंट हैं। उन लोगों की ज्यादा चलती है।”
रेजिडेंट डॉक्टर मुझे इन सारी अव्यवस्थाओं को इस उम्मीद में कहे जा रहा था कि मैं इसे पूरी दुनिया को दिखाकर जैसे कि सब समाधान कर दूंगा। उसने मुझे आगे कहा कि आप 30/ 40 रुपये का खेल देख रहे हैं। आपको असल खेल जानना है तो जो मरीज हमारे यहां भर्ती हैं उनको जाकर देखिये। 15- 15 दिन में भी डॉक्टर राउंड पर नहीं आता है। जबकि कागजों में दिखलाते हैं कि दिन में दो बार कंसलटेंट राउंड पर आ रहा है। सब कार्यवाही सीनियर रेजिडेंट के कंधों पर हैं वे इसे हमारे कंधों पर डाल देते हैं। वे अकेले क्या क्या संभाले? हम लोग अपनी समझ पर मरीज पर एक्सपेरिमेंट करते रहते हैं। मरीज कराहते रहते हैं और हम अपने काम में लगे रहते हैं। क्या करें हमारे हाथ में कुछ है ही नहीं।
हमें सोचना चाहिए कि हम इन यंग डॉक्टर्स को ये कैसी अनुभूतियां दे रहे हैं? यंग डॉक्टर्स जो इतने बड़े आदर्शों को लेकर आये हैं। जिसके लिए डॉक्टरी का पेशा लोगों की सेवा है। जो उस गरीब मरीज में अपने माँ बाबूजी की छवि देखते हैं। हम उन्हें तेल साबुन की दुकानदारी सीखा रहे हैं जो पूरी तरह से स्किन को गोरा करने जैसे फर्जी दावे पर टिकी है। हम उनको कैसा ट्रांसफॉर्म करेंगे? उस प्रोफेसर का काम केवल बीमारी का इलाज करना ही सीखाना नही हैं बल्कि वो तो लीडरशिप को तैयार करता है। सीखता तो बच्चा अपने आप से ही है। लेकिन वो क्या सीखा, इतनी कटुता लेकर अपने जीवन के अगले 40- 50 साल प्रैक्टिस करेगा। वो महज नोट बटोरने की मशीन बनकर रह जायेगा। इन तथाकथित प्रोफेसर के इस नाकारेपन की कीमत न जाने हमारी आने वाली कितनी पुस्ते चुकाएंगी?
ऐसा नहीं है कि इस एक्सलेंस सेन्टर की ऐसी हालत कोविड 19 के दौरान हुई है या कांग्रेस के राज में हुई है। 3 साल पहले बीजेपी के शासन में भी यही हालत थी। इसमें रत्ती भर भी परिवर्तन नहीं आया। भिलवाड़ा ज़िले के रहने वाले रमेश उम्र 66 वर्ष, पिछले 4 वर्ष से मधुमेह का इलाज करवा रहे हैं। रमेश इस सारी व्यवस्था को मुँह जबानी सुनाते हैं।
रमेश हमें बताते हैं कि “वे भिलवाड़ा से रात में निकलते हैं, पहले ट्रेन आती थी तो 100 रुपये में आ जाते थे किंतु कोरोना के कारण ट्रेन बन्द है तो अब बस से आना पड़ता है। उसका किराया 200 रुपये लगता है। वे सुबह लाइन में लगकर 10 रुपये की पर्ची कटवाते हैं। उस पर्ची को लेकर मधुमेह के डॉक्टर की लाइन के लगते हैं जहां उनको रक्त जांच लिखकर दी जाती है। वे उन जांचों की स्लिप लेकर, उनकी पेमेंट करते हैं। फिर उस पेमेंट स्लिप को लेकर जांच करवाने की लाइन में लगते हैं। तब रक्त देते हैं। उनकी रिपोर्ट 5 बजे आती है। जब तक डॉक्टर की ड्यूटी समाप्त हो जाती है। अब रिपोर्ट को लेकर डॉक्टर के घर पर जाते हैं। डॉक्टर 300 रुपया फीस लेकर दवा लिखता है। यदि हम ये 300 रुपया बचाने की सोचें तो रात में किसी धर्मशाला में रुकना पड़ेगा। वहां भी एक रात का 200/300 रुपया लग जायेगा। इससे अच्छा है कि ये 300 रुपया देकर जान छुड़वाओ। पता नहीं कल डॉक्टर दोबारा मिले या कोई नई जांच लिख दें”।
रमेश आगे बताते हैं कि “हमें घर पर इसलिए भी दिखलाना पड़ता है कि यहां डॉक्टर मिलेंगे जबकि अस्पताल में जूनियर डॉक्टर ही दवा लिख देते हैं। वहां कभी बड़े डॉक्टर मिलते ही नहीं हैं। इसलिए हम लोग अस्पताल की पर्ची बना लेते हैं जिससे कम से कम हमारे खून की जांच और दवा निशुल्क मिल जाती है। हमारे पास इतना पैसा होता तो प्राइवेट में ही चले जाते।”
जब हमने इस दावे का परीक्षण किया तो एक दम सही पाया। मधुमेह विशेषज्ञ डॉक्टर बलराम शर्मा के घर, जवाहर कला केंद्र के पीछे के गेट पर दिन भर बहार छाई रहती है। डॉ बलराम शर्मा अपने विभाग में न के बराबर जाकर प्राय घर पर ही पाये जाते हैं। बलराम शर्मा ने एक नियम निकाला हुआ है कि बाहर के मरीज किसी भी समय आ सकते हैं जबकि अस्पताल के सभी मरीज शाम 5 बजे के बाद ही घर आयें।
इस पूरे खेल को विभाग के सीनियर रेजिडेंट समझाते हैं। सीनियर रेजिडेंट हमें कहते हैं कि “सामान्य शुगर फास्टिंग की जांच रिपोर्ट तो 2 घण्टे में आ जाती है। बहुत कम ऐसे केस रहते हैं जिसमें हम ऐसे टेस्ट लिखते हैं जिनकी रिपोर्ट आने में 4- 5 घण्टे लगते हैं। जांच रिपोर्ट यदि पहले दे देंगे तो मरीज उस रिपोर्ट को लेकर यहां दोबारा आ जायेंगे और इन सभी प्रोफेसर की दुकानदारी बन्द हो जाएगी इसलिए ये सख्त हिदायत है कि रिपोर्ट 5 बजे ही मिलनी चाहिए। जबकि ओपीडी तो 2 बजे से पहले ही समाप्त हो जाती है।”
रेजिडेंट डॉक्टर आगे बताते हैं कि “अब मरीज क्या करेंगे? इन मरीजों में 90 फीसदी तो जयपुर से बाहर के जिलों से यहां आते हैं। वे रात में कहां रहेंगे? जितना पैसा रात में रहने में खर्च करेंगे उतना वे उस डॉक्टर को देने में भलाई समझते हैं। हम जैसे जितने भी सीनियर रेजिडेंट डॉक्टर हैं। हम अच्छा करना चाहते हैं और जितना कर सकते हैं उतना करते भी हैं। लोग भी हमारी नहीं सुनते, हम सीधा तो बोल नहीं सकते। हमारी लिखी दवा को भी दिखाने वे इन प्रोफ़ेसर के घर जाते हैं। ऐसा नहीं है कि केवल बलराम शर्मा ऐसा करते हैं बल्कि सभी लोगों की फिक्स प्रैक्टिस है। सरकारें बदल जाये, मेडिकल सुपरिटेंडेंट बदल जाये ये सब ऐसे ही चलता है।”
राजस्थान नागरिक मंच के कार्यकर्ता अनिल गोस्वामी कहते हैं कि “मैं पिछले 20 वर्षों से इस स्थिति को देख रहा हूँ। शासन का केवल चेहरा बदलता है जबकि शासन का चरित्र वही का वही रहता है। अब हमने भी बोलना छोड़ दिया है। हमने ये भी स्वीकार कर लिया है कि सब कुछ ऐसे ही चलेगा। जो दबंग है उनको सरकार पसंद नहीं करती। डॉ समित शर्मा को वापस क्यों नहीं लाते जिन्होंने गहलोत साहब की पिछले सरकार में स्वास्थ्य क्षेत्र में इतना महत्वपूर्ण काम किया। उनको क्यों नहीं पूछते?
अनिल आगे कहते हैं कि “अभी चार महीने पहले अखिल अरोड़ा को स्वास्थ्य विभाग का प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाया गया किन्तु उनको वहां से हटा दिया क्योंकि वे फर्जी काम नहीं करते, जैसे ही वो स्वास्थ्य विभाग की गड़बड़ियों को सामने लाने लगे उनको वहां से हटा दिया गया और उनके स्थान पर एक ऐसे व्यक्ति को प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाया गया है जो पहले से विवादों में रहे हैं। जिनको उसी तिकड़ी का हिस्सा माना जाता है। जिसमें स्वास्थ्य मंत्री, मेडिकल सुपरिटेंडेंट और प्रिंसिपल सेक्रेटरी शामिल हैं। जो गलत को सही और सही को गलत करने में एक सेकंड का समय नहीं लगाते।”
मैंने इस पूरी स्थिति को अस्पताल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉक्टर राजेश शर्मा के समक्ष रखा। उनसे विभाग में जाकर मिला। उनको बाद में व्हाट्सअप भी किया। उनको फ़ोन भी किया। उनसे इन सभी बिंदुओं पर उनकी राय जानना चाहा। डॉ राजेश शर्मा ने कहा कि “इन सवालों का जवाब मंत्री महोदय देंगे। आप उनसे ये सवाल पूछे मैं व्यस्त हूँ।”
इतना ही नहीं इस पूरी स्थिति को स्वास्थ्य विभाग के प्रिंसिपल सेक्रेटरी, सिद्धार्थ महाजन को उनके ऑफिसियल मोबाइल (व्हाट्सअप नम्बर) पर भेजा। उनसे कुछ सवाल भी पूछे। उनको फ़ोन भी किया। उन्होंने सभी व्हाट्सअप पढ़े किन्तु किसी का रिप्लाई नहीं दिया। मैंने उनको फ़ोन भी किया किन्तु उसको भी उठाया नहीं। आखिर प्रिंसिपल सेक्रेटरी जवाब क्यों नहीं देना चाहते? उनको सब पता होते हुए कोई कार्यवाही क्यों नहीं हो रही? इस खेल में तार बहुत गहरे हैं।
अश्वनी कबीर
स्कॉलर एवं एक्टिविस्ट हैं और घुमन्तू समुदायों के लिए काम करने वाली संस्था नई दिशाएँ के संयोजक हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ हैडलबर्ग में घुमंतू समुदायों पर रामचन्द्र गुहा और शेखऱ पाठक के शोध छात्र हैं। न्यायायिक सुधारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘कंपेनिंग फ़ॉर ज्यूडिशियल अकॉउंटेबिलिटी एंड ज्यूडिशियल रिफार्म की राजस्थान शाखा के अध्यक्ष हैं। मीडिया विजिल में रेगुलर रिपोर्ट लिखते हैं।