कैंब्रिज युनिवर्सिटी में राहुल गाँधी के भाषण को लेकर बीजेपी हमलावर है। उसका कहना है कि राहुल गाँधी ने चीन की तारीफ़ की है। जबकि राहुल गाँधी ने अमेरिकी और चीनी सभ्यता के मूल तत्वों का दार्शनिक विश्लेषण किया था। यहाँ प्रस्तुत है भाषण का वह अंश जिस पर विवाद हो रहा है–
…चलिए दो अलग-अलग अवधारणाओं पर बात करते हैं, वे दो अवधारणाएं जो शक्तिशाली हैं। अमेरिका की अवधारणा और चीन की अवधारणा… हम जानते हैं कि संयुक्त राज्य अमेरिका विश्व स्तर पर एक प्रमुख महाशक्ति है और इसका 1940 के दशक में समृद्धि और विकास का ज़बरदस्त रिकॉर्ड था। ये समृद्धि और विकास विकास एक लोकतांत्रिक वातावरण में हुआ था…..यह सब एक लोकतांत्रिक ढांचे में हुआ करता था और मेरे विचार से यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। अमेरिका का इतिहास हर कोई जानता है, लोग यूरोप से गए, इंग्लैंड से गए क्योंकि उन्हें सताया गया था। यहीं वजह है कि अमेरिका में व्यक्तिगत स्वतंत्रता की अवधारणा की जड़ें बहुत गहरी हैं। अमेरिकी कम से कम उसके नागरिक स्वतंत्रता की इस अवधारणा की पुरज़ोर तरीक़े और बहुत मज़बूती से रक्षा करते हैं। अन्य अवधारणा जो अमेरिकी अवधारणा में प्रमुख है, वह है खुलेपन की अवधारणा। इस अवधारणा के तहत कोई भी व्यक्ति अमेरिका में आकर अमेरिकी नागरिकों की तरह अपने सपने साकार कर सकता है।
मैं अमेरिका में पढ़ा-लिखा था और मुझे याद है कि में वहां का खुलापन देखकर हैरान हो गया था। मैं आपको एक किस्सा सुनाता हूं। मेरे पिता का निधन हो गया था, मेरा मतलब है कि उनकी हत्या हो गई थी। मैं अमेरिका में एक कॉलेज में था और थोड़ा परेशान था इसलिए मेरे अभिभावक ने मुझे बोस्टन से अटलांटा आने के लिए कहा। मुझे याद है कि सुबह 3-4 बजे मैं उठा और लोगन एयरपोर्ट के लिए कैब ली। रास्ते में मैं टैक्सी ड्राइवर से बात करने लगा जो हैती देश से था। उसने कहा कि क्या आप जानते हैं कि अमेरिका ने मुझे मेरा जीवन दे दिया… अमेरिका ने मुझे सब कुछ दिया है, मेरे पास हैती में कुछ भी नहीं था। मैं यहां आ गया और वे मुझसे प्यार करते हैं और मेरे साथ इज़्ज़त से पेश आते हैं। एयरपोर्ट पहुंचने पर मैंने अपना सूटकेस निकाला। अंदर एक आदमी खड़ा था और उसके सामने सूटकेस रखा हुआ था और उसने पूछा कि आप कौन सी एयरलाइन से जा रहे हैं। मुझे थोड़ा शक हुआ। उसने कहा कि आप कर्बसाइड चेक इन कर सकते हैं और अपना बैग यहां छोड़ सकते हैं। मेरे लिए यह हैरान करने वाली बात थी…मेरा बैग यहाँ छोड़ दूं….?
मैंने कहा-नहीं! और उसने कहा नहीं-नहीं, आप अपना बैग यहां छोड़ सकते हैं! मैंने पूछा कि तुम कौन हो और उसने अपनी एयरलाइन आईडी निकाली। यह बहुत दिलचस्प बात थी, मैं बैग छोड़ कर चला गया और मुझे याद है कि मैं सोच रहा था कि ये लोग कब मेरी आईडी की जांच करेंगे। मेरे पास मेरा पासपोर्ट था, मेरे कॉलेज की आईडी थी। उन्होंने विमान में भी मेरी आईडी की जांच नहीं की। यह 9/11 से पहले की बात है। आप में से बहुत से लोगों को यह याद नहीं है लेकिन मुझे ऐसा लगा कि क्या हो रहा है….क्यों ये लोग मेरी आईडी की जांच नहीं करेंगे…. मेरे अपने देश में तो वे मेरी आईडी की जांच करते हैं, वे तुरंत मेरा पासपोर्ट और आईडी मांगते हैं लेकिन यहां नहीं। मुझे याद है मैं विमान में बैठा था और सोच रहा था कि हे भगवान यह अद्भुत जगह है। मैं यहां कुछ महीने पहले ही आया था और उन्होंने मुझे हवाई अड्डे से जाने दिया और उन्होंने मेरी जांच भी नहीं की, वे मुझ पर भरोसा करते हैं, वे मुझ पर विश्वास करते हैं …।
ये दो अवधारणाएं अमेरिकी की मूल अवधारणा हैं। अमेरिका में वे आपको सहज महसूस कराएंगे और आपकी रक्षा करेंगे… हां, अमेरिका के बाहर अक्सर ऐसा नहीं होता है। अमेरिका के बाहर वे आपके साथ बुरा कर सकते हैं लेकिन अमेरिका में वे आपकी रक्षा करेंगे। मेरे लिए ये अमेरिका की प्रमुख अवधारणा है जो बहुत शक्तिशाली है और यह सफल रही है। इसी वजह से अमेरिका एक महाशक्ति बना है और इसने एक ऐसी व्यवस्था बनाई है जिसमें बहुत से लोग आते हैं, बड़े स्तर पर नवाचार होता है और तकनीकी प्रगति होती है। लेकिन अब एक समस्या है, मेरे विचार से दो समस्याएं हैं, एक समस्या 9/11 के बाद की है। इस अवधारणा को कि कोई भी यहां आ सकता है, चुनौती दी गई है, इस पर सवाल उठाए गए है। विश्व व्यापार केंद्र पर बिन लादेन द्वारा प्रायोजित हमले के बाद लोगों में ग़ुस्सा और दहशत पैदा हो गई। अमेरिकियों की ये आशंका कि बाहर से लोग यहां आकर जाने क्या कर दें, बिल्कुल सही है। आप देख सकते हैं कि देश की सुरक्षा के लिए पुख़्ता इंतज़ाम कर दिए गए हैं। यह एक बड़ा परिवर्तन हुआ है। दूसरा जो बड़ा परिवर्तन हुआ है वह ये है कि अमेरिका में उत्पादन और निर्माण की अवधारणा, जो अमेरिका की ताकत हुआ करती थी, वह अमेरिका से कहीं और चली गई। यह अवधारणा उस देश में पलायन कर गई जो वैश्विक शक्ति बनना चाहता है और जिसका आज उत्पादन-निर्माण क्षेत्र में दबदबा है।
मैंने चीनियों के बारे में काफी कुछ पढ़ा है, उनका अध्ययन किया है, वरिष्ठ नेताओं से बात की है, चीन के बारे में सोचने वाले लोगों से बात की है। मैं एक विशेषज्ञ नहीं हूं लेकिन मेरे पास अच्छी ख़ासी समझ है। जिस तरह अमेरिकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को महत्व देते हैं, चीनी सद्भावना को महत्व देते हैं। व्यक्तिगत स्वतंत्रता उनकी अवधारणा के केंद्र में नहीं है। उनकी अवधारणा का सरोकार समाज में सद्भाव से अधिक है। इसकी वजह ये है कि उन्होंने भारी उथल-पुथल देखी है, उन्होंने बहुत कष्ट झेले हैं, वहां क्रांतियाँ हुईं, गृहयुद्ध हुए हैं, सांस्कृतिक क्रांति हुई है और इसलिए वे नहीं चाहते कि स्थितियां नियंत्रण से बाहर हो जाएं और अव्यवस्था पैदा हो जाए। ये सोच उतनी ही वैध है जैसे कि अमेरिका के लिए व्यक्ति की स्वतंत्रता।
चीन के बारे में एक बातचीत ने मेरी सोच बदल दी। बात हो रही थी कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ सज्जन से। मैंने उनसे पूछा कि मुझे बताओ कि चीन क्या है, चीन क्या देश है? उन्होंने कहा-हाँ। मैंने कहा क्या चीन एक राष्ट्र है? और उन्होंने जवाब दिया-हां। मैंने कहा नहीं, आप मुझे एक चीनी स्पष्टीकरण दें कि आप क्या हैं?
उन्होंने कहा मिस्टर गांधी, मैं आपको समझाता हूं। यलो रिवर (पीली नदी) हिमालय से नीचे आकर बहती है। इसमें असीम शक्ति और असीमित ऊर्जा होती है। उन्होंने कहा कि अगर चीनी सभ्यता खुद को व्यवस्थित करे और प्रभावी ढंग से संगठित करे…और चीन जब नदी की शक्ति का प्रभावी ढंग से उपयोग करता है, तो प्रगति होती है। वह कहते हैं कि कभी-कभी क्या होता है कि जब पीली नदी अपनी पूरी ऊर्जा के साथ आती है और चीन अपनी ऊर्जा का उपयोग करने के लिए खुद को व्यवस्थित नहीं कर पाता है, चीन में अव्यवस्था फैल जाती है और नदी समुद्र में मिलकर बर्बाद हो जाती है।
यह देश के बारे में सोचने का बिल्कुल अलग तरीका है। मैंने कभी पश्चिमी राजनेताओं से इस प्रकार की कोई बात नहीं सुनी। चीन ऊर्जा को देखता है, चीन प्रवाह को देखता है, चीन प्राकृतिक संसाधनों को देखता है और उनका उपयोग करने की कोशिश करता है। अब यदि आप उस रूपक का उपयोग करते हैं, तो आप देख सकते हैं कि उनकी कुछ क्रियाएं इसी से प्रवाहित हो रही हैं। चीनी सभ्यता ऊर्जा का उपयोग करती है और ऊर्जा सीधे एशिया में बहने लगती है। आप समझ सकते हैं कि तीन गॉर्ज बांध क्या है। मुझे लगता है, हो सकता है कि मैं ग़लत हूं, कि जो बुनियादी ढांचा आप चीन में देखते हैं जैसे रेलवे, हवाईअड्डे, बांध, वे वास्तव में प्रकृति से ही जन्मे हैं। वे नदी की शक्ति से निकल रहे हैं। एक मायने में, चीन खुद को प्रकृति की शक्ति के रूप में देखता है जिसमे वो रचा-बसा है। जबकि पश्चिम स्वयं को प्रकृति में रचाबसा नहीं देखता, वह स्वयं को प्रकृति के परे देखता है।
यह पूरी तरह आपकी सोच को बदल देता है कि आप चीजों के बारे में कैसे सोचते हैं। मुझे लगा कि चीनी क्यों सद्भाव में इतनी दिलचस्पी लेंगे और वे इसके बारे में कैसे सोचेंगे। ऐसा नहीं है कि बातचीत एकदम दिलचस्प थी। मैंने दूसरे सज्जन से आईपी (बौद्धिक संपदा) के बारे में पूछा कि आप आईपी के बारे में क्या सोचते हैं? उन्होंने कहा कि हम आईपी से पूरी तरह सहमत हैं और बौद्धिक संपदा का तुक भी बनता है, यह बुनियादी चीज़ है। मैंने जब उनको एक दो बार फिर कुरेदा तो उन्होंने दो बहुत ही दिलचस्प बात कीं। उन्होंने कहा कि ‘मिस्टर गांधी, लोग चीज़ों का आविष्कार नहीं करते हैं, चीज़ें ख़ुद ब ख़ुद उभरती हैं। ये पूरी तरह से एक अलग नज़रिया था। अमेरिका में स्टीव जॉब्स कुछ आविष्कार करते हैं, चीन में चीजें ख़ुद ब ख़ुद उभरती हैं, मतलब एक प्रक्रिया होती हैं और इसी प्रक्रिया से चीजों रा अविष्कार होता है। अगर चीजों का आविष्कार भी हो जाता है, तो जिस व्यक्ति ने वह आविष्कार किया है, उसका उस पर एकाधिकार क्यों होना चाहिए? तो क्या हुआ अगर उसने इसका आविष्कार किया है? उस चीज़ के लाभों पर उसका एकाधिकार क्यों होना चाहिए? मेरे लिए यह काफी महत्वपूर्ण बयान है। मैंने कहा कि तर्क यह है कि आपको उन्हें प्रोत्साहन देने का अधिकार दिया जाता है ताकि वह फिर से आविष्कार करें। मैंने कहा कि आप प्रोत्साहन के बारे में कैसे सोचते हैं? उन्होंने कहा बहुत आसान है, जो तेज दौड़ता है, वही जीतता है। हमें परवाह नहीं है कि इसका आविष्कार किसने किया। यदि वह काफ़ी तेज़ी से दौड़ सकता है और दूसरे लोग उसके समाने टिक नहीं पाते तो यह उसके लिए काफी अच्छा प्रोत्साहन है।
यहां आप दो पूरी तरह से अलग दो अवधारणाएं देखते हैं। प्रक्रियाओं से निकल रही चीजें उनकी विश्वदृष्टि को पूरी तरह से अलग बनाती हैं। आप अमेरिका के संगठन संबंधी जिस सिद्धांत के साथ गहराई से जुड़े हुए हैं, वह सहयोग है। आपका जीवन सहयोग, बिक्री और विपणन के बारे में होगा। इस तरह अमेरिका खुद को व्यवस्थित करता है। मुझे लगता है कि इसमें अंतर्निहित चीन का केंद्रीय नवाचार है।
सोवियत संघ के बिखराव से पहले, मोटे तौर पर ग्रह की दो संगठन प्रणालियाँ थीं। सहयोग वाली अमेरिकी और पश्चिमी प्रणाली तथा सोवियत प्रणाली थी। उन दिनों चीनी प्रणाली भी थी जिसके तहत सरकार वो करती थी जो दो पश्चिमी देशों के बीच सहयोग से हुआ करता था। सोवियत संघ के विखराव के बाद चीनियों ने कुछ नया किया। आपने तंग श्याओ फ़िंग का उद्धरण सुना होगा कि बिल्ली जब तक चूहे को पकड़ती है तब तक कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उसका रंग क्या है। तो वह मूलत: कह रहे थे कि हम पश्चिम की तरह ही सहयोग से स्वयं को संगठित करेंगे लेकिन हम एक और काम करेंगे, सहयोग के अंदर हम कम्युनिस्ट पार्टी को जोड़ेंगे। तो ये पूरी तरह देसी विचार था। जहां तक सहयोग का संबंध है, तो यह बिल्कुल वैसा ही है जैसा कि अमेरिका में होता है। इसमें वैसा ही जादुई असर है जो सहयोग के अंदर होता है, जिसे वे लोगों द्वारा बनाई गई व्यवस्था कहते हैं और जिसे हम कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ चाइना कहते हैं।
इस देसी विचार में कुछ मौलिक बाते हैं। यह चीन की कम्युनिस्ट पार्टी को देश में सूचना पर पूर्ण एकाधिकार की अनुमति देता है जो अमेरिकी सरकार के पास या भारत सरकार के पास नहीं है या अधिकांश देशों की सरकारों के पास नहीं है क्योंकि राज्य और सहयोग के बीच अलगाव है। इससे चीन को आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर वारफेयर आदि में बहुत बड़ा फायदा होता है।
कुछ बातें बहुत स्पष्ट हैं। पहली बात यह है कि जो लोग कह रहे हैं और जो निहित स्वार्थ से प्रभावित मीडिया कह रहा है, उसके बीच संवाद की एक बड़ी खाई है। ये बिल्कुल परस्पर विरोधी है जो एक बड़ी समस्या है क्योंकि कम से कम हमारे देश में और मुझे यक़ीन है कि पश्चिमी देशों में भी, लोग क्या महसूस कर रहे हैं और मीडिया क्या कह रहा है, दोनों के बीच कोई संबंध नहीं है। दूसरी बात यह है कि हर कोई जानता है कि कम से कम पश्चिमी दुनिया और भारत में बहुत असमानता पैदा की जा रही है। धन और आय का केंद्रीयकरण और बेरोजगारी बढ़ रही है। सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि अगर ये दो अवधारणाएं एक दूसरे से टकराते हैं तो हर व्यक्ति के लिए परेशानी पैदा हो जाएगी और ये किसी के हित में नहीं होगा। ये अवधारणाएं अपनी अपनी जगह हैं और इनका प्रस्थान फ़िलहाल नज़र भी नहीं आता लेकिन अगर वे टकराती हैं तो तबाही हो जाएगी।
इंडिया न्यूजरूम.इन से साभार। अनुवाद फ़ीरोज़ शानी ( नई दिल्ली) ने किया है.