हाई कोर्ट की इजाजत के बिना वापस नही होंगे एमपी-एमएलए के खिलाफ दर्ज मुकदमे-सुप्रीम कोर्ट

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सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संसदों और विधायकों के खिलाफ अपराधी  मुकदमों को लेकर एक बड़ा फैसला सुनाया है। इस फैसले के तहत अब  हाई कोर्ट की इजाजत के बिना राज्य सरकारें सांसदों और विधायकों के खिलाफ दर्ज मुकदमा वापस नहीं ले सकेंगी। राजनीतिक पार्टियों को उम्मीदवारों के एलान के 48 घंटे के भीतर उनके ऊपर दर्ज मुकदमों की जानकारी जारी करनी होगी। जस्टिस रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि हम यह निर्देश देना उचित समझते हैं कि संबंधित उच्च न्यायालय की अनुमति के बिना सांसदों और विधायकों के खिलाफ कोई भी मुकदमा वापस नहीं लिया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कांग्रेस, भाजपा, एनसीपी व माकपा पर जुर्माना भी लगाया है।

इन मामलों पर सुनवाई कर रहे जजों को हटा नही सकते..

सुप्रीम कोर्ट  ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि सांसद और विधायकों से जुड़े आपराधिक मामलों की सुनवाई कर रहे, जजों को सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिना उनके मौजूदा पद से न तो हटाया जाएगा और न ही उनका ट्रांसफर होगा। सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी जिसमें कहा गया था कि मौजूदा सांसदों और विधायकों के खिलाफ दर्ज मुकदमों का स्पेशल कोर्ट में स्पीडी ट्रायल होना चाहिए। मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सभी हाई कोर्ट के रजिस्टार जनरल अपने चीफ जस्टिस को सांसद और विधायकों के खिलाफ लंबित निपटारे की जानकारी दें।

सुप्रीम कोर्ट का आदे राज्य सरकारों द्वारा शक्ति के दुरुपयोग पर रोक..

हाई कोर्ट की मर्जी के बिना मुकदमा वापस नहीं लिए जाने का सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत राज्य सरकारों द्वारा शक्ति के दुरुपयोग पर रोक लगाता है। कोर्ट ने यह आदेश न्याय मित्र, वरिष्ठ अधिवक्ता विजय हंसरिया के अनुरोध के बाद दिया। उन्होंने ने कोर्ट में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और महाराष्ट्र के कुछ उदाहरणों को रखा जहां प्रक्रिया संहिता की धारा 321 के तहत आदेश जारी किए गए थे।

उत्तर प्रदेश में पिछले साल यूपी सरकार ने साध्वी प्राची और तीन मौजूदा विधायकों संगीत सोम, सुरेश राणा और कपिल देव के खिलाफ 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के दौरान भड़काऊ बयान देने के लिए मुकदमा वापस लेने का फैसला किया था। इसी तरह न्याम मित्र ने कई अन्य राज्यों के उदाहरण कोर्ट के सामने रखे थे। हंसारिया ने कोर्ट को बताया कि देश भर में वर्तमान और पूर्व सांसदों/विधायकों के खिलाफ 4,800 से ज़्यादा केस लंबित हैं।

सुप्रीम कोर्ट में निगरानी के लिए विशेष पीठ गठित करने पर विचार

प्रधान न्यायाधीश एन वी रमना की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह भी कहा कि वह नेताओं के खिलाफ मामलों की निगरानी के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष पीठ गठित करने पर विचार कर रही है। पीठ वकील और भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा 2016 की एक जनहित याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें सांसद और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुकदमे में तेजी लाने के अलावा दोषी नेताओं पर चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबंध लगाने की मांग की गई थी।

कल भी केंद्र सरकार पर थी सुप्रीम कोर्ट की नाराज़गी..

 हाई कोर्ट में जजों के खाली पड़े पदों को लेकर नाराज़ सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को केंद्र सरकार पर गाज गिराई थी। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार के इस रवैया से प्रशासनिक कामकाज बाधित हो जाने की बात भी कही। कोर्ट ने कहा, जजों की नियुक्ति नहीं करके केंद्र ने लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ (Judiciary) को ठप कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट में पीठ एंटी डंपिंग शुल्क मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ केंद्र द्वारा दायर एक अपील पर सुनवाई कर रही थी।

तभी जस्टिस संजय किशन कौल और हृषिकेश रॉय की पीठ ने केंद्र सरकार की ओर से पेश एडिशनल सॉलिसिटर जनरल माधवी दीवान से कहा कि जजों की भारी कमी है, लेकिन आप इसमें दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं। यदि न्यायाधीशों की नियुक्ति नहीं की गई तो महत्वपूर्ण मामलों का त्वरित निस्तारण भी लगभग असंभव हो जाएगा। सरकारी अथॉरिटी को यह समझना चाहिए कि इस तरह से काम नहीं चलेगा। आपने अब हद पार कर दी है। अगर आप न्यायिक व्यवस्था को ठप करना चाहते हैं तो आपकी व्यवस्था भी चौपट हो जाएगी। आपके इस रवैया से प्रशासनिक कामकाज भी बाधित हो जायेंगे। आप लोकतंत्र के तीसरे स्तंभ को ठप नही कर सकते।

केंद्र सरकार का तर्क खारिज..

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार की ओर से भेजे गए माधवी दीवान ने तर्क रखा कि एंटी डंपिंग के विशेषज्ञ निकाय के समक्ष देरी का कारण उच्च न्यायालय में लंबित मामला हो सकता है। लेकिन बेंच ने इस तर्क को खारिज करते हुए कहा, सरकार यह तर्क नहीं दे सकती कि कोई जज मामले की शीघ्रता से सुनवाई करने में सक्षम नहीं है, क्योंकि सरकार हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति ही नहीं करती है।

25 उच्च न्यायालयों में 455 पद खाली..

यह कोई पहली बार नही है जब कोर्ट ने केंद्र सरकार के कामों पर सवाल उठाए हो, इससे पहले भी लगातार कई मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट केंद्र सरकार की आलोचना करती आई हैं। चाहे वह कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी का मामला हो या व्यवस्था का कोर्ट की नाराज़ग केंद्र पर बनी हुई है। बीते शुक्रवार को चीफ जस्टिस एनवी रमण ने भी न्यायाधिकरणों के न्यायिक सदस्यों की नियुक्तियों में देरी पर केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना की थी। यहां तक कि सरकार से यह सवाल भी किया था कि वह न्यायाधिकरण को जारी रखना चाहती है या नहीं है।

  • देश भर के 25 उच्च न्यायालयों में जजों के कुल 455 पद खाली हैं।
  • कुल स्वीकृत पद 1098 हैं।

देश में जजो के तकरीबन 40% पद खाली हैं। दिल्ली, इलाहाबाद, कलकत्ता, मध्य प्रदेश, पटना सुप्रीम कोर्ट की हालत बहुत ही खराब है। देश के लोकतंत्र का तीसरे स्तंभ कहे जाने वाले न्यायपालिका का कार्य बनाए गए कानूनों की व्याख्या करना व कानून का उल्लंघन होने पर सज़ा का प्रावधान करना है। इससे कोई भी व्यक्ति शक्ति के आधार पर कानून का उल्लंघन करने में असमर्थ हो जाता है। लेकिन सरकार का हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति को लेकर लापरवाही भरा रवैया कुछ और ही इशारा कर रहा है।