सरकारी संग्रहालय में रखा सेंगोल प्रधानमंत्री को किसने, कैसे, क्यों ‘भेंट’ किया इसके बिना खबर क्या है?
द टेलीग्राफ में आज लीड का शीर्षक है, शैडो ऑफ एम्पेरर ऑन हाउस (सदन पर की साहेब की छाया)। फ्लैग शीर्षक है, राष्ट्रपति, राज्यसभा के सभापति और ज्यादातर विपक्ष के बिना उद्घाटन। इसके साथ की खबर का शीर्षक है, नेहरू को उपहार जिसे सरकार ने निकाल लिया है। सेंगोर को नेहरू को उपहार में मिले होने के समर्थन में द टेलीग्राफ ने फ्रीडम ऐट मिडनाइट के अंश का उल्लेख किया है और बताया है कि डोमिनक लपायर और लैरी कॉलिन्स ने नेहरू जी की धर्मनिरपेक्षता के बारे में क्या कहा था। बैंगलोर डेटलाइन से केएम राकेश की इस खबर में कहा है कि इस सेनगोर को पंडित नेहरू को सौंपे जाने का संबंध सत्ता के हस्तातंरण से होता तो समारोह संसद भवन या वायसराय के घर (अब राष्ट्रपति भवन) में हुआ होता न कि नेहरू जी के घर पर। और यही कारण है कि यह सेंगोल इलाबाबाद स्थित नेहरू संग्रहालय में गया। टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर लीड के बराबर में टॉप पर सेकेंड लीड है और खबर का शीर्षक है, बायकाट की विपक्ष की अपील से बेपरवाह मोदी आज नई संसद का उद्घाटन करेंगे।
टाइम्स ने नीति आयोग की कल की बैठक की खबर को लीड बनाया है और बताया है कि प्रधानमंत्री ने राज्यों से अपील की कि वे वित्तीय विवेक दिखाएं। इसमें शीर्षक या इंट्रो में विपक्षी दलों के मुख्यमंत्रियों के बायकाट की सूचना नहीं है। बायकाट की खबर अलग से है और शीर्षक में भाजपा का जवाब, कदम जनविरोधी है और राज्यों को आवाज से वंचित करता है। ऐसा शीर्षक और ऐसी खबर आज किसी अन्य अखबार में नहीं है। आज के अखबारों में इन्हीं दो खबरों को खास महत्व दिया गया है। एक नए संसद भवन का उद्घाटन है जबकि दूसरा नीति आयोग की बैठक से सबंधित है। पहले इन दोनों खबरों और इनके शीर्षक की चर्चा कर लूं फिर दूसरी खबरों की बात करता हूं। हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर का शीर्षक है, “भारतीय लोकतंत्र के ऊंचे मुकाम को आज एक नया पता मिलेगा”। मुझे लगता है कि इसमें पता तकनीकी तौर पर गलत है, भवन होना चाहिए था और पुराने संसद भवन के करीब इस नए संसद भवन को इसी नाम से जाना जाएगा। और यही इसका पता होगा। इसलिए पता नहीं बदला है, भवन बदल गया है और वह स्थान बदलने की तरह है। इसे पता बदलना नहीं कहा जा सकता है। नवोदय टाइम्स ने इस खबर का शीर्षक बनाया है, आज खुलेगा लोकतंत्र का नया भव्य मंदिर।
इस और आगे उल्लिखित एक अन्य शीर्षक से लग रहा है कि प्रधानमंत्री ने गैर जरूरी संसद भवन बनाने की जबरदस्ती क्यों की होगी। अगर यह लोकतंत्र का नया भव्य मंदिर है तो अयोध्या के मंदिर को वोट बैंक का मंदिर कहा जाएगा और इंडियन एक्सप्रेस की एक खबर का शीर्षक है, “अगर लोग हमसे पूछेंगे कि हमने क्या किया, (तो) हम कह सकेंगे कि हमने संसद बनाई।” जाहिर है कि ऐसा कह सकने की आवश्यकता महसूस की गई होगी वरना इतिहास में यही दर्ज होता कि लोकतंत्र में एक निर्वाचित राजा ने मंदिर बनवाया था और पूरी कहानी को जो पढ़ेगा या जानता है वह समझ जाएगा कि मंदिर बनवाने के नाम पर मिले बहुमत का दस साल जो उपयोग या दुरुपयोग किया गया उस दौरान काम क्या हुआ यह कहने दिखाने के लिए एक आवश्यकता थी और नया संसद भवन इसी जरूरत को पूरा करता है। भले ही अच्छे वास्तु के लिए प्रचारित इस भवन के बाद दोनों इमारतों का आकार किसी आधुनिक ताबूत जैसा लगता है।
विपक्ष ने नए भवन का उद्घाटन राष्ट्रपति से कराने की मांग की और जवाब न देने की खास नरेन्द्र मोदी शैली में सुनवाई नहीं हुई तो उद्घाटन समारोह का बायकाट करने का निर्णय हुआ और इसके जवाब में कुछ सरकार समर्थक ट्रोल ने सोशल मीडिया पर लिखा कि बायकाट करने वालों को संसद का बायकाट करना चाहिए (उन्हें संसद और संसद के उद्घाटन में अंतर समझ में नहीं आया या वे समझना ही नहीं चाहते हैं) और संसद में नहीं जाना चाहिए। हिन्दूवादियों ने व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड में कहा कि नए भवन का वास्तु इतना ‘अच्छा’ है कि विरोध (विपक्ष) इसके उद्घाटन में भी शामिल नहीं हो रहा है। यह सब फिलहाल राज करने और सत्ता में बने रहने के लिए तो ठीक है पर इतिहास में इसी तरह दर्ज न हो इसलिए इसे नरेन्द्र मोदी की कोशिश और सफलता के रूप में प्रस्तुत और दर्ज करने के प्रयास चल रहे हैं। सफलता मिलना या नहीं मिलना बाद की बात है। वास्तु से याद आया कि यह चर्चा पहले से रही है कि संसद के पुराने भवन का वास्तु कतिपय लिहाज से ठीक नहीं है।
नीति आयोग की बैठक से संबंधित खबर का शीर्षक नवोदय टाइम्स में, “राज्यों से ही विकास है”। फ्लैग शीर्षक के अनुसार, यह मोदी का बताया आगे बढ़ने का मंत्र है। द हिन्दू में इस खबर का शीर्षक है, “प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों से अपील की कि वे टीम इंडिया के रूप में काम करें”। वैसे तो यह बड़ी अच्छी बात है लेकिन नरेन्द्र मोदी टीम के रूप में काम नहीं करते हैं और टीम अगर कोई हो या है तो उसका नेतृत्व उन्हें ही करना है। लेकिन उनकी कार्यशैली डबल इंजन वाली है और उसमें भी सब कुछ सामान्य नहीं है। दिल्ली सरकार के मामले में आप जानते ही हैं कि पूरी कोशिश करके भी चुनाव हार जाते रहे हैं पर हार स्वीकार करने और मिलकर टीम के रूप में काम करने की बजाय विरोधियों या विपक्षी दलों से दुश्मन की तरह व्यवहार करते हैं। दिल्ली सरकार को उसका अधिकार नहीं मिल रहा था तो उसने सु्रीम कोर्ट की शरण ली और सुप्रीम कोर्ट में दिल्ली सरकार जीत गई या भाजपा हार गई तो अध्यादेश लाकर दिल्ली सरकार को अधिकार नहीं दे रहे हैं या अपने एलजी के जरिये खुद नियंत्रित कर रहे हैं।
इन सब कारणों, स्थितियों या नीतियों की वजह से अगर दस गैर भाजपाई मुख्यमंत्रियों ने प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में नीति आयोग की बैठक का बायकाट किया तो यह शीर्षक भी नहीं है। बायकाट का मकसद और कारण तो छोड़ दीजिये। इंडियन एक्सप्रेस ने आज नीति आयोग की बैठक के बायकाट की खबर को लीड बनाया है और इसका शीर्षक है, 10 गैर भाजपाई मुख्यमंत्री नीति आयोग कौंसिल की बैठक में शामिल नहीं हुए। फ्लैग शीर्षक है, केंद्र और राज्य टीम इंडिया हैं – प्रधानमंत्री। कहने की जरूरत नहीं है कि नरेन्द्र मोदी का काम ऐसे नहीं होता है और अच्छी बातें तथा आदर्श वाक्य कहने में तो वे उस्ताद हैं ही। लीड का उपशीर्षक है, प्रधानमंत्री ने जलवायु परिवर्तन को रेखांकित किया, कृत्रिम बुद्धिमत्ता की रुकावटों को संभावित बाधा कहा और वित्तीय बुद्धिमानी की अपील की। इंडियन एक्सप्रेस में नए संसद भवन के उद्घाटन की अलग से कोई खबर नहीं है।
सिंगल कॉलम में नई संसद का उद्घाटन आज शीर्षक से कार्यक्रम दिया गया है और उसके साथ यह तस्वीर तथा उसके नीचे खबर है। कार्यक्रम की शुरुआत सुबह 7:30 से बताई गई है और उद्घाटन से पहले सुबह 9:00 सेंगोल को लोकसभा के अंदर स्थापित किया जाना है। 9:30 बजे से बहुधर्म प्रार्थना सभा होगी। इंडियन एक्सप्रेस में उद्घाटन कार्यक्रम के साथ प्रकाशित तस्वीर और उसके नीचे प्रकाशित खबर से यही दिख रहा है कि नरेन्द्र मोदी को सत्ता के साथ राजदंड – दिया नहीं गया, मिला नहीं, तो भी उन्होंने ‘प्राप्त’ कर लिया है। पिछले दिनों की खबरों, प्रचार, ट्रोल और व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड से इसे (इसका प्रदर्शन और संरक्षण) संस्कृति और संस्कार से भी जोड़ दिया गया है। हालांकि, कुछ लोगों की राय में यह भाजपा को दक्षिण भारत से बाहर कर दिए जाने के बाद किसी तरह पांव भारी करके वहां पांव जमाने की कोशिश लग रही है और बहुमत की आड़ में सही ठहराई जा चुकी है। फिर भी, यहां राजधर्म की याद आती है।
इंडियन एक्सप्रेस ने इस सरकारी प्रचार को आज खबर के रूप में पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापा है और इसका शीर्षक है, “अगर लोग हमसे पूछेंगे कि हमने क्या किया, (तो) हम कह सकेंगे कि हमने संसद बनाई।” कहने की जरूरत नहीं है कि यह बिल्कुल बेकार की बात है और संसद पहले से थी। इसकी कोई जरूरत कभी नहीं महसूस की गई। और इस सरकार ने तमाम वो काम नहीं किए हैं जो उसे करने चाहिए थे, उसी के थे और फिर भी नहीं किया और इतने पर ही नहीं रुकी। पीएम केयर्स के बावजूद नहीं किया जबकि सीएसआर से कुछ हो पाता तो उसका भी पैसा लेकर रख लिया या (अपनी इच्छा से, अपने या पार्टी या परिवार के लाभ के लिए) खर्च कर दिया। नहीं करने वाले जो काम किए वो अलग हैं।
तस्वीर या (पहले पन्ने पर छपी) खबर में नहीं बताया गया है कि यह सेनगोल प्रधानमंत्री को सौंपने वाले कौन हैं (टाइम्स ऑफ इंडिया के कैप्शन के अनुसार शैवाइट सीर यानी शैव दृष्टा हैं) और यह खरीदा गया है, किसी से मांगा, मंगाया या बनवाया गया है या वही है जिसे संग्रहालय में रख दिया गया था। हालांकि, संग्रहालय में जो रखा गया था वह इलाहाबाद में होने की बात है और अगर यह वही है तो इलाहाबाद (प्रयागराज) के अधिकारी या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री को सौंपना ज्यादा उपयुक्त रहता पर मामला तो दक्षिण भारत की राजनीति का है इसलिए यह सब किया और दिखाया जा रहा है। सवाल एक औऱ है, इस मौके पर (अगर यह कोई है) तो सिर्फ वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण क्यों हैं, बाकी लोग क्यों नहीं हैं पर खबर में बताया गया है कि बीस विपक्षी दलों ने उद्घाटन के बायकाट का निर्णय लिया है।
यही नहीं, खबर में बताया गया है कि हजारों मजदूरों ने दो साल से ज्यादा काम करके इसे तैयार किया है जिसका उद्घाटन आज 28 मई 2023 को होना है। यह दिन क्यों चुना गया यह भी पहले पन्ने की खबर में नहीं है। मुझे लगता है कि खबर पढ़ते हुए कोई अनुत्तरित सवाल नहीं होना चाहिए। ऐसा है तो खबर ठीक नहीं लिखी गई है। इस खबर में राजदंड सौंपने वाले का परिचय नहीं होना भारी चूक है और आज उद्घाटन क्यों है इस बारे में नहीं बताया जाना भी कमी है। तब तमाम पंडित-पुजारी के साथ (भले सर्वधर्म नहीं, बहुधर्म सभा कहा जाए) उद्घाटन हो रहा है तो यह जरूर बताया जाना चाहिए कि यह हिन्दू रीति रिवाज के अनुसार कोई पवित्र दिन है कि नहीं। आखिर धर्म निरपेक्ष भारत मे उद्घाटन हिन्दू कैलेंडर के अनुसार पवित्र दिन क्यों होना चाहिए। आमलोग तो इतवार को ऐसे कामों के लिए ज्यादा उचित मानते हैं। इसलिए जो भी कारण है या नहीं है वह भी जरूर बताया जाना चाहिए था। इसके बिना खबर अधूरा है।
वैसे यह उद्घाटन की खबर भी नहीं है। पर जो है सो यही है और मैं पहले पन्ने का ही हाल लिखता हूं। प्रधान मंत्री को सेंगोल सौंपे जाने से संबंधित खबर हिन्दुस्तान टाइम्स में पहले पन्ने पर है और इस प्रकार है। मामला समझ में आ जाये इसलिए पेश है हिन्दी अनुवाद, नरेंद्र मोदी ने शनिवार को 21 धार्मिक नेताओं (अधिनम) से मिलने के बाद कहा, (शीर्षक है) प्रधानमंत्री अधीनमों से मिले, 5 फीट का सेनगोल सौंपा गया। खबर के अनुसार, “सेनगोल” को लोकतंत्र के मंदिर में अपना योग्य स्थान मिल रहा है। इसे छड़ी के रूप में एक संग्रहालय में दिया गया था। अब नई संसद में स्पीकर की सीट के पास 5-फुट लंबे इस औपचारिक राजदंड को स्थापित किया जाना है। रविवार सुबह नए संसद परिसर के उद्घाटन के दौरान अधीनम शामिल होंगे और ये लोग शनिवार को चेन्नई से विमान के जरिये दिल्ली पहुंचे। कहने की जरूरत नहीं है कि सरकारी खर्च पर आये होंगे और प्रधानमंत्री रहते हुए किसी को निजी घर के निजी आयोजन में भी ऐसा तामझाम नहीं करना चाहिए और बहुत कम लोग कर पाते हैं क्योंकि खर्चीला मामला है।
बहुमत के नाम पर इस गैर जरूरी और खर्चीले काम को सरकारी खर्च पर सरकारी समय और संसाधन लगाकर अंजाम दिया गया क्योंकि सरकारी पार्टी को यह सरकारी काम लगता है और कोविड महामारी में बिना इलाज मरे लोगों को मुआवजा देना सरकार का काम नहीं लगता है। और तो और जन धन खाते के बीमा का लाभ मिला कि नहीं यह भी न देखा गया ना बताया गया। पर वह अलग मुद्दा है। खबर और भाजपा के प्रचार के अनुसार, “पवित्र सेंगोल को वह सम्मान नहीं मिला जिसका वह हकदार था (द टेलीग्राफ की खबर में बताया गया है कि यह पंडित नेहरू को निजी उपहार था और इसका सत्ता हस्तांतरण से कोई संबंध नहीं है। लेकिन भाजपा के प्रचारतंत्र कुछ और कह और कर रहे हैं)। और इसे प्रयागराज के आनंद भवन में छोड़ दिया गया था। वहां यह चलने में सहायता वाली छड़ी के रूप में प्रदर्शित किया गया था। यह वर्तमान सरकार है जो सेंगोल को आनंद भवन से बाहर लाई है”।
खबर के अनुसार 21 धार्मिक अधीनमों के साथ बैठक के बाद प्रधानमंत्री ने यह सब कहा। उन्होंने कहा, “यह (सेंगोल) लोकतंत्र के मंदिर में अपना योग्य स्थान प्राप्त कर रहा है।” सोने और चांदी से बने सेंगोल से एक उग्र राजनीतिक विवाद खड़ा किया गया है। कांग्रेस ने इससे संबंधित सरकार के दावे पर सवाल उठाया पर सरकारी प्रचार समानांतर चल रहा है और कांग्रेस को भारत की संस्कृति के विरोधी के रूप में स्थापित करने की कोशिश चल रही है। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं ने कांग्रेस के आरोप को खारिज करते हुए कहा भी है कि पार्टी “भारतीय संस्कृति को नापसंद करती है”। भाजपा सरकार का यह धार्मिक आयोजन और तामझाम इसलिए भी उल्लेखनीय है कि आज टाइम्स ऑफ इंडिया की एक खबर के अनुसार सीबीआई की चार्जशीट में दिल्ली के मंत्री मनीष सिसोदिया पर यह आरोप है कि उन्होंने उत्पाद शुल्क (या शराब) नीति बनाने के लिए पहले से तय आईडिया के अनुसार काम कर रहे थे और गढ़े हुए जनमत और सुझाव पेश कर रहे थे।
एजेंसी ने कहा है कि सिसोदिया ने फर्जी ईमेल का उपयोग किया और इसमें दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन जाकिर खान की मदद ली। ताकि प्रक्रिया से छेड़छाड़ करके जनता से प्रतिक्रिया ली जा सके। यह प्रतिक्रिया अब वापस ले ली गई है। मुझे लगता है कि सरकार का यह काम है कि वह जो ठीक समझे वैसी नीति बनाए और उसके लिए आवश्यक हो तो जनमत बनाए। केंद्र की भाजपा सरकार कई मायने में ऐसा करती है और इसमें ट्रोल का उपयोग तो जाहिर है। जनमत बनाने के तरीके सही गलत हो सकते हैं पर यह अपराध नहीं है और ना भ्रष्टाचार है। कम से कम ऐसा तो बिल्कुल नहीं कि जमानत ही न हो। पर हो रहा है और भाजपा सरकार वोट बोटरने के लिए वही सब करे, सरकारी खर्च और सरकारी धन के दुरुपयोग से तो वह अपराध नहीं है।
यही नहीं, यह कम सनसनीखेज नहीं है कि इंफाल में रैपिड ऐक्शन फोर्स की एक तिकड़ी को इंफाल में नगालैंड की एक दुकान में आग लगाने के लिए गिरफ्तार किया गया है। यह खबर जितनी महत्वपूर्ण है उतनी प्रमुखता से नहीं छपी है और मणिपुर में जो सब हो रहा है उसे जैसे हैंडल किया जा रहा है और उसपर जो बयान आए हैं उन सबके मद्देनजर यह सामान्य नहीं है कि आरपीएफ वाले जल रहे मणिपाल में आग लगाएं। क्या वे अपने स्तर पर ऐसा कर रहे होंगे। कैसे पता चलेगा। कौन जांच कराएगा। किसी जिम्मेदारी है। पर वह सब तो बाद की बात है, खबर ही नहीं छपे और मांग भी न हो तो क्या कहेंगे? मणिपुर मामले में इंडियन एक्सप्रेस की आज की खबर का शीर्षक है, मणिपुर में मरने वाले 75 हुए, कम से कम 63 शवों का कोई दावेदार नहीं है और यह हिंसा के तीन हफ्ते बाद की स्थिति है। इन खबरों से आप समझ सकते हैं कि शासन के नाम पर कैसी स्थिति है और प्राथमिकता किन कामों को है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।