दिल्‍ली की सर्द रात: रिपोर्टर और आलोचक दोनों हवा में फुग्‍गे उड़ा रहे हैं


ज़िज़ेक और क्रांति की स्ट्रेटजी पर चर्चा मेरे बस की बात नहीं, पर इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि पत्रकारिता के बस में व्यवस्था को धूल चटाना तो दूर, धूल लगाने का भी दम नहीं है. ऐसा न तो इतिहास में हुआ है, न वर्तमान में रोबो-मानव कर सकता है, और भविष्य में तो इसे ऑटो-पायलट मोड पर वैसे भी रहना है.


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प्रकाश के रे

रोबोट, ऑटोमेशन और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के तेज़ विस्तार के मौजूदा डिजिटल आधुनिकता के दौर में मानवीय पत्रकारिता पर असर के बारे में बात करते हुए क्रिस्टोफ़ थन होहेंस्टीन कहना है कि मशीन के सीखने का मतलब है कि सूचना को ढाला जा सकता है और गुणवत्ता के स्तर पर उसको फिर से उसी तरह दुहराया जा सकता है. मशीनें ऐसा कर सकती हैं, पर वे रचनात्मक नहीं हो सकती हैं और कुछ बिल्कुल नया नहीं कर सकती हैं, कोई नया नैरेटिव नहीं गढ़ सकती हैं. यहीं पत्रकारिता और कहानी कहने का अंतर्निहित पहलू है, उम्मीद है कि वह स्थायी पहलू भी है. इसे बचाने के लिए बहस की दरकार है. होहेंस्टीन वियेना स्थित ऑस्ट्रियन म्यूज़ियम ऑफ़ एप्लायड आर्ट्स/कंटेंपोरेरी आर्ट के निदेशक हैं. दिल्ली की ठंड और उससे होनेवाली परेशानियों पर नवीन कुमार की रिपोर्ट तथा उस रिपोर्ट पर अभिषेक श्रीवास्तव की टिप्पणी से गुज़रते हुए होहेंस्टीन की बात याद आयी. लेकिन उस मायने में नहीं, जो वह इंगित कर रहे हैं. मुझे लगता है कि हमारी मुख्यधारा की पत्रकारिता और उस पत्रकारिता की आलोचना भी तो पारंपरिक रूप से एक साँचे में ढाली प्रवृत्ति है, जिसे हम थोड़े-बहुत अंतर से दुहराते चले जा रहे हैं. इस निरंतरता में रचनात्मकता और नये नैरेटिव की गुंजाइश कहाँ है? 

बहरहाल, नवीन कुमार और अभिषेक श्रीवास्तव के लिखे-बोले को ख़ुद बहुत पसंद करता हूँ तथा ऊपर उल्लिखित पारंपरिक साँचे के लिहाज़ से कहूँ, तो वे अपनी पीढ़ी के प्रतिनिधि पत्रकारों में से हैं. टीवी रिपोर्ट और टिप्पणी पर कुछ कहना इस हिसाब से बहुत चुनौतीपूर्ण है कि दोनों ने ही अनेक मुद्दों को अपना विषय बनाया है. नवीन कुमार ठंड से शुरू करते हैं, पर सत्ता की ताक़त, मुफ़लिस की मजबूरी, वर्ग-विभाजन, युवाओं की बेरोज़गारी, उत्तर भारतीय राज्यों में कमाने के मौक़ों का न होना, लेटलतीफ़ ट्रेनें, बसों का न होना, नाइट आउट बनाम फूटपाथ और प्लेटफ़ॉर्म पर रात गुज़ारने की बेबसी, बाघों का शिकार, आवारा कुत्तों से प्यार आदि मसले भी ज़ेरे-ज़िक्र लाते हैं. उस रिपोर्ट का पोस्टमार्टम करते हुए अभिषेक भी टीवी के ग्रामर से शुरू कर रिव्योल्यूशन की ज़रूरत तक फेरा लगा आते हैं. 

टीवी के चार्टर में संवेदना का क्‍वार्टर: दिल्‍ली की सर्द रात की सर्द कहानी

ज़ाहिर है कि मुद्दों और संदर्भों का ऐसा बड़ा दायरा है, तो उस पर कुछ कहने में भी विस्तार की दरकार होगी. मेरी टिप्पणी का मुख्य बिंदु यह है कि कुमार और श्रीवास्तव दोनों का आग्रह एक ही है तथा दोनों एक ही वैचारिकी की भाषा में अपनी बात कह रहे हैं. मतलब यह कि दोनों की बात भी एक ही है. इस तरह से श्रीवास्तव की आलोचना असल में रिपोर्ट का ही हिस्सा है या उसका विस्तार है. चूँकि आधुनिकता, लोकतंत्र और पत्रकारिता, इसलिए पूँजीवाद भी, एक ही विमर्श के हिस्से हैं, इसलिए रिपोर्ट और टिप्पणी भी उदारवादी लोकतांत्रिक प्रक्रिया का ही भाग हैं, भले रिपोर्ट मालिक-ग़ुलाम में बँटे तंत्र को रेखांकित करे या फिर टिप्पणी इस रेखांकन को एक तरह का सेफ़्टी वॉल्व बताये, जिससे रिपोर्टर की बदलाव की आकांक्षाओं का रेचन हो जाये, पत्रकारिता के धर्म का निबाह भी हो जाये और वह अन्यायी तंत्र भी बचा रहे. मुझे लगता है कि लोकतंत्र और लोकतंत्र के नाम पर चल रही व्यवस्था तथा पत्रकारिता को पारंपरिक सुधारवादी और नवजागरण तथा मनुष्यता का मुक्ति-मार्ग समझने की प्रवृत्ति से अलग विवेचित और विश्लेषित करने की आवश्यकता है.  

अपनी टिप्पणी में श्रीवास्तव ने ज़िज़ेक द्वारा उल्लिखित एक चुटकुले का ज़िक्र किया है, लेकिन वह ज़िक्र अधूरा है. जिस भाषण में मंगोलियाई सिपाही के अण्ड-कोष को रूसी किसान द्वारा धूल में सन जाने देने का उल्लेख है, उसी भाषण के दूसरे हिस्से में ज़िज़ेक क्रांतिकारियों का आह्वान करते हैं कि वे पूँजीवाद के अण्ड-कोष में धूल लगाकर संतुष्ट न हों, बल्कि उसका अण्ड-कोष ही काट डालें. इस पर उस सभागार में बैठे लोग ख़ूब तालियाँ बजाते हैं. अभिषेक ने काटने की बात तो लिखी नहीं, पर चूँकि उन्होंने पहला हिस्सा उद्धृत करते हुए पत्रकारीय असंतोष या बेचैनी को अण्ड-कोष में धूल लगाने के समान माना है, तो यह मान लिया जाना चाहिए कि उनकी भी सलाह अण्ड-कोष काट लेने की है. ऐसा इसलिए भी माना जाना चाहिए कि उन्होंने आख़िर में ज़िज़ेक के भाषण के पैरोडी गाने का लिंक भी लगाया है. वैसे भी ज़िज़ेक उनके पसंदीदा दार्शनिक हैं. मुझे लगता है कि इस संदर्भ को इस बहस में नहीं लाया जाना चाहिए था क्योंकि इसमें एक दार्शनिक क्रांतिकारियों को सलाह दे रहा है, न कि उदारवादी लोकतंत्र के मानदण्डों पर निजी क्षेत्र में काम कर रहे पत्रकारों को. दूसरी बात यह कि उस भाषण के पाँच साल के भीतर ही ज़िज़ेक यह भी कहने लगे कि क्रांतिकारियों को अभी दुनिया को बदलने का काम छोड़ कर दुनिया को एकबारगी फिर से समझने की ज़रूरत है. मतलब यह कि अण्ड-कोष में अब धूल भी लगाने की ज़रूरत नहीं है, बल्कि बलात्कार की प्रक्रिया को पढ़ा जाए. ख़ैर, ज़िज़ेक और क्रांति की स्ट्रेटजी पर चर्चा मेरे बस की बात नहीं, पर इतना ज़रूर कह सकता हूँ कि पत्रकारिता के बस में व्यवस्था को धूल चटाना तो दूर, धूल लगाने का भी दम नहीं है. ऐसा न तो इतिहास में हुआ है, न वर्तमान में रोबो-मानव कर सकता है, और भविष्य में तो इसे ऑटो-पायलट मोड पर वैसे भी रहना है. रही बात दायें और बायें ख़ेमों की पत्रकारिता की, तो वह पैंफ्लेटबाज़ी है, पत्रकारिता नहीं. ज़िज़ेक ने एक महत्वपूर्ण बात कही है कि पूँजीवाद और लोकतंत्र का तलाक़ हो चुका है. लेकिन बात अब इससे भी आगे बढ़ चुकी है. मेरा मानना है कि पूँजीवाद और लोकतंत्र में तलाक़ तो हुआ है, पर अभी भी वे साथ रहते हैं, लेकिन पूँजीवाद ने लोकतंत्र का कुकोल्ड भी कर दिया है. पहले वह नव-उदारवाद के साथ अपना और लोकतंत्र का बिस्तर साझा करता था और अब उसने एक संगी और खोज लिया है- धुर-दक्षिणपंथ, जिसे कुछ लोग नव-फ़ासीवाद की संज्ञा भी देते हैं. ऐसे में कितने अण्ड-कोष काटने पड़ेंगे! शायद इसी उधेड़बुन को सुलझाने के लिए ज़िज़ेक दुनिया को फिर से समझने के लिए काटने का सोचना छोड़कर पढ़ने की सलाह दे रहे हैं.   

कुछ समय पहले करण थापर ने एक इंटरव्यू में कहा था कि टेलीविज़न पर एंकर और रिपोर्टर ख़बर के साथ जो अपना नज़रिया दे रहे हैं, ‘एडिटोरियलाइज़’ कर रहे हैं, वह ठीक नहीं है. लेकिन अगर मीडिया ताल ठोंक के यह कहे कि वह लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है, तो फिर उसे नज़रिया देने, उपदेश करे, कचहरी लगाने आदि के अख़्तियार मिल ही जाते हैं. चौथा स्तंभ होने के मुहावरे के जनक टॉमस बेबिंगटन मैकौले ने 1828 में लिखा था कि ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स में जिस जगह रिपोर्टर बैठते हैं, वह जगह राज्य का चौथा स्तंभ बन गयी है. उनके लिखे के तीन स्तंभों पर बतकही से पहले यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि हमारे देश के सबसे पुराने फ़ेक न्यूज़ में से एक लॉर्ड मैकौले के साथ जुड़ा हुआ है. वह यह है कि उन्होंने दो फ़रवरी, 1835 को ब्रिटिश संसद में कहा था कि भारत की प्राचीन शिक्षा व्यवस्था को बदल दिया जाना चाहिए ताकि उसकी रीढ़ की हड्डी तोड़ी जा सके. मज़े की बात यह है कि उस समय वे लंदन में नहीं, कलकत्ते में थे. बहरहाल, मैकौले और मैकौले की संतानें जैसे विशेषण हमारी देशी भाषाओं की आज थाती बन चुके हैं. ख़ैर, राज्य के जिन तीन स्तंभों का विस्तार वे 1828 में कर रहे थे, वे थे- लॉर्ड्ज़ स्पीरिचुअल्स यानी हाउस ऑफ़ लॉर्ड्ज़ में बैठनेवाले चर्च ऑफ़ इंग्लैंड के 28 बिशप, लॉर्ड्ज़ टेम्पोरल यानी उस हाउस के सेक्यूलर सदस्य और हाउस ऑफ़ कॉमंज़ यानी जनता द्वारा निर्वाचित 650 सांसद. उस दौर में जब ब्रिटिश उपनिवेशवाद चरम पर था, यह चौथा खम्भा क्या करा रहा होगा, इसे अभिलेखागारों में जाकर देखा जा सकता है. मुझे किसी ने बताया था कि यह बात मैकौले ने तंज़ में कही थी और प्रेस ने इसे अपना तमग़ा मान लिया. जो भी हो, यह चौथा खँभा हमेशा से सत्ता के साथ और क्षेत्रीय प्रकृति का रहा है. वह टट्टू का घोड़ा है. बहुत हुआ, तो कभी बिदका हुआ या लगाम से बाहर हुआ इदारा है, और यह नहीं है और सत्ता के बरक्स खड़ा है, तो फिर पैंफ्लेटबाज़ी की पत्रकारिता है. 

नवीन कुमार की रिपोर्ट में ‘मालिक’ कौन था, ‘मठ’ किसका था, ‘मिल्कियत’ किसकी थी? वह दिल्ली किसकी दिल्ली है, जहाँ के बाशिंदों के दहाई हिस्से के पास भी छत की मिल्कियत नहीं है! उस दिल्ली का मालिक कौन, जहाँ कोई क़ायदे का कारोबार या कारख़ाना नहीं, पर प्रति व्यक्ति आय मुल्क में सबसे ज़्यादा! इस प्रति व्यक्ति आय का औसत का हिसाब किसके पास? मठ की परिभाषा क्या? और, इंडिया गेट पर ‘दिल्ली की सर्दी’ का मज़ा लेते लोग क्या उन मठों के मठाधीश या मैनेजर हैं? जिस देश में पचास हज़ार का वेतन आपको देश के एक फ़ीसदी शीर्ष के सैलेरीशुदा लोगों में शामिल कर दे, तो  इंडिया गेट से इनर सर्किल तक नवीन कुमार किसकी नुमाइंदगी कर रहे थे? एक फ़ीसदी की, या 99 फ़ीसदी की या फिर किसी मीडिल ग्राउंड की तलाश में थे या किसी ‘मीडिल क्लास गिल्ट’ या फिर ‘यार, एक ह्यूमन एंगल से स्टोरी होनी चाहिए’ की संपादकीयता का निर्वाह कर रहे थे? ऐसे नवीन कुमारों की कमी तो नहीं है हमारी मीडिया में! 

लेकिन इसकी कमी हमारी राजनीति में भी नहीं है, जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं और जिससे कुमार और श्रीवास्तव को बड़ी उम्मीदें हैं. याद करें, आज से तीन दशक पहले जब ‘टीना’ फ़ैक्टर की बात होती है, तब ‘डेवलपमेंट विद ह्यूमन फ़ेस’ की बात भी हो रही थी. वही दौर था, जब टेलीविज़न का फ़ित्ना अपना विस्तार कर रहा था. कुछ साल बाद ‘गुड गवरनेंस’ यानी ‘सुशासन’ का पासा फेंका गया था. कभी-कभी सोचता हूँ, ये जुमले कहाँ गए? परंतु, जब ध्यान से देखता हूँ, तो ये अब भी मौजूद हैं, बस भाषा, बैनर और ब्राण्ड का अंतर है. जाड़ा है, तो जाड़े की स्टोरी होनी चाहिए. प्रदूषण और जाड़े का संबंध है, तो वह स्टोरी भी होनी चाहिए, लोकतंत्र में कोई न ठिठुरे, यह आग्रह भी ज़रूरी है, धरती गरमा हो रही है और दिल्ली समेत उत्तर भारत में सर्दी का मौसम घटता जा रहा, यह भी लेख छापना है, इस वज़ह से गरम कपड़ों का बाज़ार मंदा है, इस पर भी ख़बर हो, पर यह ना हो कि इनके अंतरसंबंध जोड़े जाएँ. कहानी वहाँ गड़बड़ा जाएगी. पर टिप्पणीकार श्रीवास्तव को यह नहीं दिखेगा क्योंकि उनकी आधुनिकता भी कुमार की आधुनिकता से परे नहीं है. 

कोई कह दे कि दिल्ली में बाहरी लोगों की बेतहाशा आमद हवा और पानी को ख़राब कर रही है, तो इन दोनों को दिक़्क़त हो जाएगी, तब इन्हें भारतीय राष्ट्रवाद याद आएगा, जो बहुत कुछ संबित पात्रा के राष्ट्रवाद से मिलता-जुलता होगा. छोटे उद्योग और टैक्सी बंद करो, तो यही मिलेंगे मोर्चे पर विरोध करते हुए. बाक़ी दिल्ली सस्ते मज़दूर और सस्ते सामान में ख़ुश है. लानत है उस शहर पर, जहाँ देश में सबसे अधिक आमदनी है और ब्रेड का पैकेट बस पंद्रह रुपए का है. ऐसे में सबका पेट कैसे भरेगा? कहने का मतलब यह कि मुद्दा कहीं, मुद्दई कहीं और बहस कहीं और. ऐसे में मुंसिफ़ भी मज़े में होगा और मठ भी आबाद रहेंगे. इसीलिए श्रीवास्तव की टिप्पणी का वह हिस्सा पूरी तरह से बेमानी है कि कुमार ने सरकार और उसकी एजेंसियों का बाइट क्यों नहीं लिया. कोई नयी बात कह दी जाती क्या? जिस विस्तार से अभिषेक श्रीवास्तव ने केजरीवाल सरकार, इंदू भूषण और रैना बसेरा आदि की कथा लिखी है, उसका क्या मतलब है? यही दाएँ-बाएँ सिस्टम का तो असली मसला है. नवीन कुमार समझ रहे कि सवाल से बीमारी का इलाज होगा, अभिषेक श्रीवास्तव समझा रहे हैं कि इलाज हुआ पड़ा है या फिर इलाज केजरीवाल सरकार के पास नहीं है, या फिर दोनों कहीं हवा में फुग्गे उड़ा रहे हैं. ग़ालिब का एक शेर याद आया- 
हज़रत-ए-नासेह गर आवें दीदा ओ दिल फ़र्श-ए-राह
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझावेंगे क्या 

ग़ालिब की इसी ग़ज़ल में दिल्ली की मुश्किल का बयान है. दिल्ली बेहतर हो ही नहीं सकती. यमुना पार बसे बौद्धिकों की चिंता से तो कतई नहीं- 
है अब इस मामूरे में क़हत-ए-ग़म-ए-उल्फ़त ‘असद’ 
हम ने ये माना कि दिल्ली में रहें खावेंगे क्या 

अब यह चर्चा लम्बी हो गयी, लेकिन टेलीविज़न पत्रकारिता और चूँकि पत्रकारिता के अन्य हिस्से इसी से प्रभावित हैं, तो पूरी पत्रकारिता पर कुछ बातें कहना ज़रूरी है. वह अगले हिस्से में.