टीवी के चार्टर में संवेदना का क्‍वार्टर: दिल्‍ली की सर्द रात की सर्द कहानी


दिल्‍ली की सर्दी पर केंद्रित आजतक के शो का पोस्‍टमॉर्टम


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अभिषेक श्रीवास्‍तव

अच्‍छे को अच्‍छा कहना स्‍वाभाविक है। जैसे बुरे को बुरा कहना। अच्‍छे को बुरा कहना अच्‍छी बात नहीं। कल से मेरा मन कुछ-कुछ वैसा ही हो रहा है। सोच रहा हूं इस बार अच्‍छे को बुरा कह दिया जाए। कैसे कहा जाए, यहीं थोड़ी दिक्‍कत है। ठीक वैसे ही जैसे रविवार की शाम अपनी स्‍टोरी पर रेकी करते वक्‍त टीवी इंडस्‍ट्री के सबसे लोकप्रिय स्क्रिप्‍ट लेखकों में एक नवीन कुमार के मन में चल रहा होगा- आज कुछ तूफानी करते हैं!

एकरस जिंदगी की मटमैली चादर पर करवट बदलते रहने वाले हर व्‍यक्ति के साथ कुछ-कुछ ऐसा छठे छमासे ज़रूर होता है। एक दिन सपने में वह वह बिस्‍तर पर ज्‍यादा थोड़ा करवट लेने के चक्‍कर में ज़मीन पर गिर जाता है। आधी रात थोड़ा आवाज़ होती है। हलचल होती है। आदमी को अपने जिंदा होने का सुबूत बरामद होता है। सुबह से फिर सब कुछ ठप। टीवी की भाषा में कहें तो जिंदगी वापस पटरी पर लौट आती है।

नवीन कुमार ने रविवार की रात पटरी पर से उतरने का फैसला लिया। उसकी वाजिब धमक हुई। अगले दिन सोशल मीडिया पर ‘’दिल्‍ली की सर्द रातों की सर्द कहानी’’ वायरल हुई और छोटे शहरों में बेबस अकेली मांओं के चिंता भरे फोन अपने दिल्‍लीवासी पुत्रों के पास आने लगे कि ठंड बहुत बढ गई है, ठीक से पहन-ओढ़ कर निकला करो। सोमवार को ऐसे कई वाकयात सुनने को मिले कि घर से फोन आया था, लोग पूछ रहे थे दिल्‍ली में बहुत ठंड पड़ रही है क्‍या। एक को तो मैंने खुद बताया कि दिल्‍ली का पता नहीं, हां चुरु में पारा एक डिग्री चला गया है।

जिस रात आजतक ने सर्दी में ठिठुरते दिल्‍ली के गरीब-गुरबा की सुध लेने की ठानी, उस रात दिल्‍ली का तापमान 3.7 डिग्री सेल्शियस था। हफ्ते भर से यही तापमान या इससे भी कम पंजाब के लुधियाना, हलवारा, बठिंडा, अमृतसर, अम्‍बाला और हरियाणा के हिसार व नारनौल में चालू है। अब यह कहना स्‍टीरियोटाइप हो जाएगा कि साहब, आपको दिल्‍ली की ही ठंड क्‍यों दिखती है जबकि हफ्ते भर से तीन डिग्री से कम में दिल्‍ली का पड़ोस ठिठुर रहा है? ऐसे सवाल टीवी के चार्टर के खिलाफ जाते हैं क्‍योंकि पंजाब और हरियाणा के इन छोटे शहरों में टैम कंपनी के बक्‍से नहीं लगाए जाते जिससे टीआरपी नापी जा सके। फिर टीवी वालों को यह ज्ञान देने का भी कोई मतलब नहीं कि बीते शुक्रवार से कश्‍मीर घाटी में 40 दिन का वह दौर शुरू हो चुका है जिसे वहां की भाषा में चिल्‍लई कलां कहते हैं। टीवी के लिए कश्‍मीर में गरीब नहीं रहते। वहां बर्फ और ठंड पड़ने का केवल एक मतलब होता है कि सरहद पार से आतंकियों की आमदरफ्त में कुछ कमी आएगी।

मौसम के मुहावरे का अर्थ इस बात से तय होता है कि आप कहां खड़े होकर बात कर रहे हैं। आजतक पर अपने शो की ओपनिंग में इंडिया गेट के बैकग्राउंड से नवीन ने दुरुस्‍त फ़रमाया कि ‘’दिल्‍ली मतलब ताकत की राजधानी’’, ‘’दिल्‍ली मतलब दौलत की राजधानी’’, ‘’इस मुल्‍क के मालिकों के मठ हैं दिल्‍ली में’’…। टोन अच्‍छा सेट हुआ था। कैमरा सीधे हमें इंडिया गेट पर लगे हुजूम के बीच ले चलता है जहां कुछ मध्‍यवर्गीय लोग नाइट आउट कर रहे हैं। वे खुश हैं। चहक रहे हैं। रिपोर्टर दुहरा कर पूछता है- ठंड अच्‍छी है या बुरी? जवाब आता है- अच्‍छी। और यहीं से रिपोर्टर उन लोगों की ओर मुड़ जाता है जिनके लिए ठंड बुरी है- नई दिल्‍ली स्‍टेशन, फुटपाथ और रैन बसेरों की ओर।

रिपोर्ट का फ्रेम राजधानी दिल्‍ली के भीतर मौसम की मार झेल रहे और मौसम का लुत्‍फ़ उठा रहे दो किस्‍म के नागरिकों के कंट्रास्‍ट से निर्मित होता है। यह कट्रास्‍ट शुरुआती पीस टु कैमरा में ही समझा दिया जाता है जब रिपोर्टर कहता है- ‘’हम देखने निकले हैं कि हुकूमत की रहनुमाइयों ने इस मुल्‍क के मुफ़लिसों के वास्‍ते कौन सी मिल्कियत आबाद की है।‘’ बहुत खूबसूरत उर्दू में बेहतरीन संवाद अदायगी के साथ कैमरा बाइट जुटाने निकल पड़ता है। सारी बाइटें अपेक्षा के अनुरूप हैं। छात्र बेरोज़गारी से नाराज़ हैं। परीक्षार्थी बस न मिलने से नाराज हैं। सड़क पर अलाव ताप रहा शिव इस बात से नाराज़ है कि एमसीडी वाले आकर आग पर पानी डाल जाते हैं। लखनऊ से आकर स्‍टेशन पर ठेला खींचने वाला लड़का नहीं जानता कि रैन बसेरा नाम की भी चीज़ कोई होती है दिल्‍ली में, जिसे वह बार-बार रहन बसेरा कह रहा है।

इसके बाद? कहानी मर जाती है। सपाट हो जाती है। लच्‍छेदार भाषा की कलाकारी और जुमलेबाजी भी उसे नहीं संभाल पाती क्‍योंकि एक बुनियादी गलती हो गई है रिपोर्टर से। इसे टीवी के ग्रामर के लिहाज गलती कहा जा सकता है। जो बात दृश्‍यों के कट्रास्‍ट से स्‍थापित करनी थी उसे रिपोर्टर अपने शुरुआती पीस टु कैमरा में कह देता है। फिर कुल मिलाकर ‘’मुफलिसों की मिल्कियत’’ को दिखाना ही बच जाता है। ऐसा नहीं कि यहां गुंजाइश नहीं थी सवालों की, लेकिन एक हद से आगे बढ़कर सवाल उठाना टीवी का काम नहीं है। संवेदनशील रिपोर्टर इसे समझता है। आइए, कुछ दृष्‍टान्‍त लें।

  1. एक प्रवासी मजदूर रैन बसेरों के बारे में नहीं जानता। क्‍यों? यह सवाल रैन बसेरों का इंतज़ाम रखने वाली दिल्‍ली की सरकारी एजेंसी डूसिब से पूछा जाना चाहिए था कि उसने रेलवे स्‍टेशन के इर्द-गिर्द सोने वालों के बीच रैन बसेरों का प्रचार क्‍यों नहीं किया। रिपोर्ट में लगे हाथ यह काम मुश्किल नहीं था क्‍योंकि रैन बसेरों का इंतज़ामिया आम तौर से रात में गश्‍त पर रहता है। कभी भी किसी अधिकारी को फोन लगाया जा सकता है।
  2. एमसीडी वाले अलाव में पानी डाल जाते हैं। यह एक बर्बर अनुभव का बयान था जिस पर एमसीडी से जवाब तलब किया जाना था, जो नहीं किया गया।
  3. आइएसबीटी पर परीक्षार्थी घंटों से खड़े हैं। क्‍या बस टर्मिनल के मैनेजर के पास जाकर उसके मुंह में माइक नहीं लगाया जा सकता था? रिपोर्टर को किसने रोका था ऐसा करने से? लगे हाथ अगर यह सवाल पूछ लिया जाता प्रबंधकों से कि आखिर इस बदइंतज़ामी की वजह क्‍या है, तो बात एक सिरे पर केवल ‘’मुफलिसों की मिल्कियत’’ दिखाने तक नहीं छूटी रह जाती।
  4. इंडिया गेट पर अपनी कला को बेच रहा बिहार का सकला दास कहता है कि गृहराज्‍य मे कामधाम नहीं है, इसलिए वह दिल्‍ली की ठंड में सामान बेचता है। बिहार में कामधाम क्‍यों नहीं है? इसकी जवाबदेही किसकी होगी? यह सवाल पूछा जाना चाहिए या नहीं?

इस रिपोर्ट में एक बात ध्‍यान देने योग्‍य है कि रिपोर्टर ने जितने भी लोगों की बाइट ली वे तकरीबन सभी प्रवासी थे। कोई भी मूल दिल्‍ली का नहीं दिखा। कोई रोजगार के चक्‍कर में दिल्‍ली में है, तो कोई रोजगारपरक शिक्षा लेने के लिए यहां आया है। ऐसे में पलायन का सवाल इस रिपोर्ट की केंद्रीय चिंता होना चाहिए था जो यहां सिरे से नदारद है। आखिर क्‍या वजह है कि तमाम जगहों से लोग अमानवीय जिंदगी जीने के लिए दिल्‍ली चले आ रहे हैं? क्‍या इसका कारण सूबों में खेती-किसानी का संकट है? क्‍या वहां उद्योग धंधों की किल्‍लत है? पूरी रिपोर्ट में एक भी बाइट देने वाले से ऐसा एक भी सवाल नहीं पूछा गया। जो सवाल पूछे गए वे मूर्खता की हद तक जेनेरिक थे और दिलचस्‍प है कि उसकी मुनादी भी। रिपोर्टर कहता है- ‘’रोजी रोटी की तलाश में लखनऊ से दिल्‍ली आए राकेश फुटपाथ पर सोये हुए हैं, पूछा क्‍यों?’’ यह ‘क्‍यों’ राकेश से पूछा जाना चाहिए था या देश के शहरी विकास मंत्री से?

बहरहाल, राकेश जब कहता है कि ‘’गरीब आदमी हैं साहब, कहां जाएं’’, तो रिपोर्टर उसकी चादर के नीचे से एक चमत्‍कारिक तत्‍व निकालकर करुणा का सैलाब खड़ा करने की पुरज़ोर कोशिश करता है:

‘’फुटपाथ पर सोये राकेश ने जब चादर हटायी तो हम दंग रह गए।‘’ चादर के नीचे उसके पैरों के बीच एक कुत्‍ता लेटा हुआ था और दूसरा कुत्‍ता उसकी बगल में लेटा था। रिपोर्टर स्‍तब्‍ध है। ‘’खत्‍म होते टाइगरों के दौर में’’ ‘’संवेदना के इस मोती’’ और ‘’टाइगर’’ पर वह लहालोट सा होने लगता है कि उसकी करुणा के कवच में राकेश मुस्‍कराते हुए हलका सी तीर मारता है- ‘’हमीं खिलाते हैं हमीं पिलाते है हमारे पास ही सोते हैं।‘’ ये कुत्‍ते राकेश के पालतू थे। ऐसा नहीं था कि ठंड से ठिठुर कर इंसान और कुत्‍ते ने दुर्घटनावश या करुणावश बिस्‍तर साझा कर लिया हो। रिपोर्टर की मनगढ़ंत करुणा का तिलिस्‍म अचानक टूट जाता है।

बहरहाल, रिपोर्टर को ‘दंग’ करने के लिए ऐसा दृश्‍य तो किसी भी मध्‍यवर्गीय या सम्‍भ्रान्‍त परिवार के कमरे में देखने को मिल सकता है। बस ज़रूरत है किसी पैसेवाले की चादर उठाने की, उसकी टांगों के नीचे भी कोई टॉमी कुत्‍ता या भूरी बिल्‍ली दुबकी मिल जाएगी। यहां तो इंसान और कुत्‍ते के बीच ठंड का मुहावरा बरबस काम कर गया क्‍यांकि मामला गरीबी और बेघरी का है, बस कल्‍पना कीजिए कि रिपोर्टर वहां क्‍या कहता जहां न तो गरीबी और बेघरी की मजबूरी होती और न ही ठंड कोई अभिशाप।

असल में टीवी माध्‍यम की अपनी दिक्‍कतें व सीमाएं तो हैं ही, कभी कभार रिपोर्टर के ज्‍यादा पढ़े लिखे होने से भी संप्रेषण के एक औजार के बतौर टीवी का माध्‍यम कमजोर पड़ जाता है। होता यह है कि रिपोर्टर को अपनी भाषा और कहन पर इतना गहन भरोसा होता है कि वह भूल जाता है कि उसने बात कहां से शुरू की थी और समूचे आख्‍यान को खुद ही भ्रष्‍ट कर देता है। राकेश के कुत्‍तों से उपजी करुणा से निजात पाने के बाद ऐसा लगता है कि नवीन कुमार का गरीब जनता के ऊपर से भरोसा ही उठ गया, जब वे कहते हैं:

‘’जहाजों में उड़ने वालों के लिए दिल्‍ली की सर्दी एक नोस्‍टाल्जिया है और फुटपाथ पर सोने वालों के लिए कुदरत की सितमगिरी।‘’ 

अव्‍वल तो टीवी की भाषा में ‘नोस्‍टाल्जिया’ जैसा कठिन अंग्रेजी शब्‍द संपादित कर के छांट दिया जाना चाहिए था क्‍योंकि इससे कुछ समझ में नहीं आता। दूसरे, रिपोर्टर फुटपाथ पर सोने वालों के लिए ठंड को ‘’कुदरत की सितमगिरी‘’ बता रहा है, जिसका कुल निष्‍कर्ष यह निकलता है कि अंतत: कुदरत ही सर्दियों में गरीबां के साथ होने वाले हादसों और मौतों के लिए जिम्‍मेदार है। यदि ऐसा ही था, तो शुरू में दौलत वालों और ताकतवरों की दिल्‍ली का स्‍यापा क्‍यों किया गया? अमीरों के ठंड में आइक्रीम खाने जैसी मामूली सी बात को उनके ‘’मोरल यूनिवर्स’’ यानी ‘’नैतिक जगत’’ से जोड़ कर क्‍यों देखा गया? यह समूचा सीक्‍वेंस जिसमें रिपोर्टर नोस्‍टाल्जिया की बात कह रहा है और सर्दियों को सबसे ज्‍यादा सेकुलर चीज़ बता रहा है, बौद्धिक लापरवाही और फिसलन का नायाब उदाहरण है। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूं कि नवीन कुमार कोई ऐरे-गैरे बाइट कलेक्‍टर नहीं हैं, टीवी इंडस्‍ट्री के पढ़े-लिखे लोगो में एक माने जाते हैं। पढ़े-लिखे आदमी की फिसलन बाकी के मुकाबले ज्‍यादा मायने रखती है। 

यह फिसलन रिपोर्ट के सिमटते-सिमटते एक ऐसे लापरवाह बिंदु पर आ पहुंचती है जहां रिपोर्टर प्रकारांतर से अपनी ही पेशेवर कार्रवाई पर सवाल खड़ा कर देता है। आइए, देखते हैं सराय काले खां के रैन बसेरे का सीन जब रिपोर्टर कहता है- ‘’यह फुटपाथ की जिंदगी से बेहतर तो है लेकिन क्‍या इसको जिंदगी कह भी सकते हैं?” यह वाक्‍य समूची कहानी का एंटी-क्‍लाइमैक्‍स है। अव्‍वल तो बाल की खाल निकालने के उद्देश्‍य से कोई कह सकता है कि ‘’जिसे आप जिंदगी भी नहीं कह सके, वह दूसरी जिंदगी से बेहतर कैसे हो सकता है?’’ मैं ऐसा जब्र नहीं करूंगा। मेरा सवाल रैन बसेरों पर नवीन के स्‍वीपिंग बयान से है क्‍योंकि दिल्‍ली में ठंड के मौसम में हर साल मीडिया के रिपोर्टर रैन बसेरों का हाल जानने पहुंचते हैं और किससी न किसी बहाने उनकी आलोचना करते हैं, लेकिन वे शायद नहीं जानते कि गरीबों को ऐसे अस्‍थायी आश्रय दिलवाने में किसको कितनी लड़ाई कितने साल लड़नी पड़ी है। दिल्‍ली के रैन बसेरों का इतिहास बेघर गरीबों के लिए एक मामूली सेवा मुहैया कराने की भयंकर जद्दोजेहद की मिसाल है। नीचे के पैरा मैं अपनी एक आगामी प्रकाशनाधीन पुस्‍तक से उद्धृत कर रहा हूं।

‘’दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जब ‘परिवर्तन’ नाम की संस्‍था शुरू की थी, उस वक्‍त सामाजिक कार्यकर्ता इंदु प्रकाश- जो फिलहाल दिल्‍ली के रैन बसेरों के आधिकारिक परामर्शदाता हैं- ऐक्‍शन एड से संबद्ध आश्रय अधिकार अभियान के निदेशक हुआ करते थे। परिवर्तन ने इंदु के कई सहयोगियों को सूचना के अधिकार के तहत आवेदन करने का प्रशिक्षण दिया, जिसकी मदद से इंदु की टीम ने दिल्‍ली में खाली पड़ी इमारतों की पहचान की जिन्‍हें बाद में बेघरों के लिए 24 घंटे के आश्रय में तब्‍दील कर दिया गया। इंदु प्रकाश ने जब इस मुद्दे पर काम शुरू किया था, तब 2001 में पूरी दिल्‍ली में केवल 12 रैनबसेरे हुआ करते थे। सरोकार के सवाल पर अरविंद केजरीवाल के साथ जुगलबंदी का नतीजा यह रहा कि उनके दोबारा दिल्‍ली का मुख्‍यमंत्री बनने के बाद 2014 में इन आश्रयों की संख्‍या बढ़कर 231 हो गई।

अरविंद केजरीवाल की पहली बार जब सरकार दिल्‍ली में बनी थी, उस वक्‍त राज्‍य के मुख्‍य सचिव 1979 बैच के आइएएस अफसर दीपक मोहन सपोलिया हुआ करते थे। सपोलिया के साथ इंदु का पिछला अनुभव बहुत बुरा रहा था जिसका जि़क्र उन्‍होंने अपनी किताब ‘सिटिमेकर्स’ मे किया है। सपोलिया से इंदु प्रकाश ने 31 आश्रयों की मांग की थी जिसके बदले में केवल 16 को मंजूरी देते हुए उन्‍होंने टिप्‍पणी की, ”दिल्‍ली में ठंड कितनी पड़ती ही है? ठंड तो आनंद लेने के लिए होती है।” इंदु ने यह बात अरविंद से कही और बोले कि जब तक सपोलिया मुख्‍य सचिव रहेंगे तब तक आश्रयों का काम होने से रहा क्‍योंकि उनके मन में गरीबों के प्रति संवेदना नहीं है। इंदु बताते हैं, ”उन्‍हें तुरंत हटा दिया गया।” वे कहते हैं कि अरविंद उनकी बात को इतनी अहमियत देते थे कि उन्‍होंने बिना देरी लगाए सपोलिया को मुख्‍य सचिव के पद से हटा दिया। उन्‍हें हटाने के लिए ‘अक्षमता’ को आधार बनाया गया था। वे बताते हैं कि जब अरविंद 2015 में दोबारा चुनकर आए, तो एलजी की दखलंदाजी के चलते आश्रयों का हाल बहुत बुरा हो गया। वे उच्‍च न्‍यायालय को इसका श्रेय देते हैं कि आश्रयों का काम किसी तरह चलता रहा।

अरविंद केजरीवाल जब दूसरी बार जीतकर आए उस वक्‍त सपोलिया को दोबारा मुख्‍य सचिव के पद पर बहाल कर दिया गया था, लेकिन इंदु ने उन्‍हें लेकर इस बार कोई आग्रह नहीं किया क्‍योंकि वे जल्‍द ही रिटायर होने वाले थे। सरकार गठन के बाद 30 मार्च, 2015 को उनकी मुलाकात अरविंद केजरीवाल से हुई जिसमें भिक्षावृत्ति के कानून पर बातें हुईं। उसमें यह बात भी हुई कि अगर दिल्‍ली शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डूसिब) में इंदु प्रकाश की ओर से कोई नुमाइंदा भेज दिया जाए तो इस मुद्दे पर काम आसान हो जाएगा। वे कहते हैं कि अरविंद के साथ दोस्‍ती को उन्‍होंने कभी भी किसी निजी लाभ के लिए इस्‍तेमाल नहीं किया बल्कि केवल होमलेस के मुद्दे पर ही दोनों की परस्‍पर संलग्‍नता रही। बीच में एक दिक्‍कत यह हुई कि इंदु प्रकाश ने अपना जो प्रतिनिधि डूसिब में भेजा था, उसके लिए वेतन का कोई प्रावधान नहीं था। अरविंद से इकस बारे में बात करने के बाद उसके लिए बाकायदे एक प्रक्रिया के तहत वेतन-भत्‍ते की व्‍यवस्‍था की गई। फिलहाल डूसिब में दो एक्‍सपर्ट सदस्‍य हैं जिनमें एक इंदु प्रकाश के प्रतिनिधि हैं जो बेघरों के मुद्दे पर उनके साथ लंबा काम कर चुके हैं और दूसरे सदस्‍य डूसिब से ही अवकाश प्राप्‍त इंजीनियर हैं।‘’

आज जो रैन बसेरे दिल्‍ली की सड़कों के किनारे दिखते हैं, उनका इतिहास कोई अठारह साल का होने जा रहा है। शायद ही किसी ने इन पर कोई मुकम्‍मल स्‍टोरी की हो। विडबना यह है कि रिपोर्टर दिल्‍ली की सर्दी का जायजा लेने जब यहां पहुंचता है तो उसे गरीबों के आश्रय को ‘’जिंदगी कहने में भी’’ शर्म आती है। इसकी वजह यह है कि रिपोर्टर ने अपनी लंबी नींद में अचानक थोड़ा ज्‍यादा करवट ले ली है। अगर पहले उसकी आंख खुली रहती, तो शायद वह जान पाता कि कैसे इन रैन बसेरों को बदनाम करने के लिए इसी साल की गर्मियों में दो बार इनमें आग लगाई गई। पुरानी दिल्‍ली स्‍टेयान के पास एक गरीब आदमी इस आग में झुलस कर मर गया, लेकिन किसी मीडिया ने इस खबर को उठाना उचित नहीं समझा।

वजह?  देश के अमीरों की राजानी दिल्‍ली में ये हस्‍बमामूल रैन बसेरे गरीबी के लिए लिप सर्विस हैं जिनका पत्रकारों के लिए कोई महत्‍व नहीं। मई में जब आधी रात एक के बाद एक दो रैन बसेरों में आग लगी, तो इस मुद्दे से जुड़ा हर कोई जानता था कि आगजनी की साजिश किसने की है और किसकी शह पर गरीबों को जलाकर मारा जा रहा है। कई रिपोर्टरों को मैने खुद मई में आगाह किया था कि इस मसले पर ख़बर करें लेकिन किसी ने भी इकी सुध नहीं ली क्‍योंकि मामला भाजपा तक जा रहा था और कोई भी भाजपा के खिलाफ नहीं जाना चाहता था। इसके ठीक उलट, जब साल भर पहले जनवरी में पंजाब के चुनाव हो रहे थे तब रैन बसेरों के प्रबंधन की आलोचना करते हुए एबीपी चैनल ने बेशक एक रिपोर्ट की कि कैसे इसके इंतज़ामिया अधिकारी पंजाब के चुनाव में व्‍यस्‍त हैं। दिलचस्‍प था कि उस वक्‍त कहीं कोई अप्रिय घटना नहीं हुई थी लेकिन अधिकारियों की अनुपस्थिति मीडिया में मुद्दा बन गई थी। मई में जब आदमी जलकर मरा, तो ख़बर दबा दी गई। आज एक रिपोर्टर पूछ रहा है कि ‘’यह फुटपाथ की जिंदगी से बेहतर तो है लेकिन क्‍या इसको जिंदगी कह भी सकते हैं?”

इसी सवाल की तर्ज पर पूछ दिया जाए कि मौजूदा टीवी रिपोर्ट बाकी टीवी कवरेज से बेहतर तो है लेकिन क्‍या इसे पत्रकारिता कह सकते हैं? मैंने शुरू में कहा कि अच्‍छे को अच्‍छा कहना चाहिए, बुरे को बुरा। यह स्‍वाभाविक और मानवीय है। अच्‍छे पर सवाल उठाना थोड़ा जटिल काम है। रिपोर्टर नवीन कुमार ने रैन बसेरों की जिंदगी पर अस्तित्‍व का सवाल खड़ा कर के दरअसल अपनी पत्रकारिता पर ही प्रकारांतर से सवाल खड़ा कर दिया है। संगठित बर्बर पूंजी की चमक में दिल्‍ली के रैन बसेरों की तलछट यदि एक दुर्लभ संयोग है, तो चीखते-चिल्‍लाते हिस्‍टीरियाग्रस्‍त ऐंकरों के नक्‍कारखाने में नवीन कुमार की यह रिपोर्ट भी दुर्लभ ही है1 दोनों अपने-अपने क्षेत्रों में लिप सर्विस है। लिप सर्विस से क्‍या कुछ उखड़ता है? अगर नहीं, तो इसे लेकर रिपोर्टर के दो पैमाने क्‍यों? अपनी रिपोर्ट को लेकर इतना कारुणिक, इतना नोस्‍टाल्जिक और दूसरे के कलणकारी काम को लेकर इतना सशंकित?

मेरा पसंदीदा बुद्धिजीवी जिजेक अकसर एक कहानी सुनाता है मंगोलिया के एक किसान की। बात खत्‍म करने से पहले कहानी सुना देता हूं। शायद पकड़ में आए कि मैं क्‍या कहना चाह रहा हूं। किसान अपनी बीवी के साथ घोड़े पर जा रहा था। धूल भरी सड़क थी। गांव का बाहरी इलाका था। सुनसान था। तभी पीछे से एक घोड़े पर राजा का फौजी आया और उसने उसे रोक लिया। फौजी का दिल किसान की बीवी पर आ गया। उसने किसान से आग्रह किया कि वह उसकी बीवी के साथ संसर्ग करेगा। किसान गरीब मजबूर था। बेशर्त राजी हो गया। फिर फौजी ने किसान को एक हिदायत दी। कहा कि जब वह संसर्ग में लिप्त हो, किसान इस बात का ध्‍यान रखे कि सके अंडकोष में कहीं धून न लग जाए। इसके लिए उसने किसान से कहा कि वह अपने हाथ उसके अंडकोष के नीचे रख दे ताकि स्‍वच्‍छ संसर्ग संभव हो सके।

बहरहाल, ले देकर किसी तरह फौजी संतुष्‍ट हुआ। उसने किसान को शुक्रिया कहा और चल दिया। पीछे औरत आगबबूला हो गई कि अपनी बीवी की अस्‍मत लुटते देख किसान न सिर्फ चुप रहा बल्कि आततायी के अंडकोष संभालता रहा। बीवी लगातार किसान पर लानत भेजे जा रही थी लेकिन आश्‍चर्यजनक रूप से किसान हंसे जा रहा था। बीवी ने आखिरकार किसान के हंसने का राज़ पूछा। किसान ने बताया कि जब फौजी संसर्ग में पूरी तरह मगन था, उसने एक बार को उसका अंडकोष छोड़ दिया था और उसमें धूल लग गई थी। इस तरह किसान ने अपना प्रतिशोध उस बलात्‍कारी से मौके पर ही ले लिया। ऐसा समझा कर पत्‍नी को उसने कन्विंस कर लिया कि वह मजबूर नहीं, बाग़ी है। फिर उसने हवा में नारा उछाला- इंकलाब जिंदाबाद।

इस कहानी का सबक? किसी भी पेशे में लिप सर्विस करने वाला आदमी दरअसल इस कहानी का किसान है जो अपने दमघोंटू और आततायी तंत्र से प्रतिशोध लेने के लिए प्रतीक रूप में व्‍यवस्‍था के अंडकोषों में गाहे-बगाहे धूल लगा देता है और इतने से ही खुद को क्रांतिकारी समझ बैठता है। बरसों से लखटकियया वेतन लेते हुए डेस्‍क पर काम करने वाला एक टीवी पत्रकार जब एक रात माइक लेकर बाहर निकलता है तो सोचता है कि कैसे एक ही रिपोर्ट में इंकलाब ला दे। बरसों एक सरकारी विभाग में व्‍यवस्‍था का भरण पोषण कर रहा कोई कर्मचारी विसिल ब्‍लोअर बनकर जब सड़क पर उतरता है तो सोचता है कि कैसे एक ही आंदोलन में व्‍यवस्‍था को पलट दे। दोनों एक ही श्रेणी के नागरिक हैं। दोनों अपने-अपने तौर से व्‍यवस्‍था की तय की गई सीमाओं के भीतर इस पूंजीवादी तंत्र को एक झटके में चुनौती देकर अपने मन का पुराना मलाल मिटा लेते हैं और वापस काम पर लग जाते हैं। हद से हद ऐसी कार्रवाइयां रेचन हैं। इससे किसी का भला नहीं होता। 

ऐसे किरदार जनता के लिए क्षणिक तौर पर राहतकारी होते हैं, लिहाजा खतरनाक होते हैं क्‍योंकि वे व्‍यवस्‍था और तंत्र के असली बर्बर चेहरे पर गाहे-बगाहे ‘’मानवता’’ का परदा डाल देते हैं। एक भ्रम रचते हैं कि देखो, कोई तो है जो इस ‘अमानवीय’ स्‍पेस में ‘परिवर्तन’ की गुंजाइश निकाल रहा है। चूंकि उनके इर्द-गिर्द सभी व्‍यवस्‍था का अभिन्‍न अंग होते हैं, लिहाजा अपनी पैदा की हुई ‘गुंजाइश’ पर उन्‍हें सामान्‍य से ज्‍यादा फख्र होता है और वे खुद को चौबीस से एकाध कैरट ज्‍यादा क्रांतिकारी समझ बैठते हैं। व्‍यवस्‍था के बाहर बैठ कर गुंजाइश निकाल रहा आदमी इनके लिए भले मूर्ख से ज्‍यादा कुछ नहीं होता। व्‍यवस्‍था इनके लिए जीवनदायी अमृतधारा है। जैसे मछली के लिए पानी। मछली को पानी से बाहर निकाल दीजिए, मछली मर जाएगी।

केजरीवाल जैसी सुधारवादी पहलें या नवीन कुमार जैसी झकझोर देने वाली समाचार रिपोर्टें एक लिहाज से केवल इसलिए बरदाश्‍त की जानी चाहिए कि चौतरफा इतने बुरे के बीच कुछ तो बेहतर है, जिसे देखा-सुना जा सकता है। दिक्‍कत बस यही है कि यह एक अदद बेहतर दरअसल बाकी बुरे के प्रति खड़ा होने की हमारी ऊर्जा को शिथिल करता है। हमें सुकून देता है। जैसे डेंगू के तेज बुखार में सिर पर रखी ठंडी पट्टी। जैसे न्‍यूजरूम की अमानवीयता में छटांक भर संवेदना। जैसे दिल्‍ली की सर्दी में देसी का एक क्‍वार्टर। जैसे बलात्‍कारी व्‍यवस्‍था के अंडकोषों पर थोड़ी सी धूल।

अब आप मुझसे पूछेंगे कि ये भी न करे तो करे क्‍या? इसका जवाब उसी के पास है जिसका लतीफ़ा है। जिज़ेक कहता है कि हम सब वास्‍तव में बलात्‍कारी सत्‍ताओं के अंडकोष पर थोडी-थोडी धूल लगा रहे हैं। असल सवाल इन अंडकोषों को कांट फेंकने का है- वी नीड टु कट द बॉल्‍स ऑफ! असल राजनीति यही है। यह काम आज कौन कर रहा है? यह आगे का सवाल है। इस पर भी कभी आएंगे।

फिलहाल, बात के मर्म को लय में समझने के लिए देखें क्‍लीमेन स्‍लाकोंज़ा का परवर्टेड डांस जिसका नाम है कट द बॉल्‍स…


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